धर्म पुराणों की सत् कथाएँ

August 1961

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कर्तव्य पालन की साधना।

कौशिक नामक एक ब्राह्मण बड़ा तपस्वी था। तप के प्रभाव से उसमें बहुत आत्म बल आ गया था। एक दिन वह वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था कि ऊपर बैठी हुई चिड़िया ने उस पर बीट कर दी। कौशिक को क्रोध आ गया। लाल नेत्र करके ऊपर को देखा तो तेज के प्रभाव से चिड़िया जल कर नीचे गिर पड़ी। ब्राह्मण को अपने बल पर गर्व हो गया।

दूसरे दिन वह एक सद् गृहस्थ के यहाँ भिक्षा माँगने गया। गृहिणी पति को भोजन परोसने में लगी थी। उसने कहा-भगवान थोड़ी देर ठहरें अभी आपको भिक्षा दूँगी। इस पर ब्राह्मण को क्रोध आया कि मुझ जैसे तपस्वी की उपेक्षा करके यह पति सेवा को अधिक महत्व दे रही है। गृह स्वामिनी ने दिव्य दृष्टि से सब बात जान ली। उसने ब्राह्मण से कहा-क्रोध न कीजिए मैं चिड़िया नहीं हूँ। अपना नियत कर्तव्य पूरा करने पर आपकी सेवा करूँगी।

ब्राह्मण क्रोध करना तो भूल गया, उसे यह आश्चर्य हुआ कि चिड़िया वाली बात इसे कैसे मालूम हुई? ब्राह्मणी ने इसे पति सेवा का फल बताया और कहा कि इस संबंध में अधिक जानना हो तो मिथिला पुरी में तुलाधार वैश्य के पास जाइए। वे आपको अधिक बता सकेंगे।

भिक्षा लेकर कौशिक चल दिया और मिथिलापुरी में तुलाधार के घर जा पहुँचा। वह तौल नाप के व्यापार में लगा हुआ था। उसने ब्राह्मण को देखते ही प्रणाम अभिवादन किया ओर कहा-तपोधन कौशिक देव! आपको उस सद्गृहस्थ गृह स्वामिनी ने भेजा है सो ठीक है। अपना नियत कर्म कर लू तब आपकी सेवा करूँगा कृपया थोड़ी देर बैठिये। ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरे बिना बताये ही इसने मेरा नाम तथा आने का उद्देश्य कैसे जाना? थोड़ी देर में जब वैश्य अपने कार्य से निवृत्त हुआ तो उसने बताया कि मैं ईमानदारी के साथ उचित मुनाफ़ा लेकर अच्छी चीजें लोकहित की दृष्टि से बेचता हूँ। इस नियत कर्म को करने से ही मुझे यह दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है। अधिक जानना हो तो मगध के निजात चाण्डाल के पास जाइए।

कौशिक मगध चल दिया और चाण्डाल के यहाँ पहुँचा। वह नगर की गंदगी झाड़ने में लगा हुआ था। ब्राह्मण को देखकर उसने साष्टांग प्रणाम किया और कहा-भगवान आप चिड़िया मारने जितना तप करके उस सद्गृहस्थ देवी और तुलाधार वैश्य के यहाँ होते हुए यहाँ पधारे यह मेरा सौभाग्य है। मैं नियत कर्म कर लू, तब आपसे बात करूँगा तब तक आप विश्राम कीजिए।

चाण्डाल जब सेवा वृत्ति से निवृत्त हुआ तो उन्हें संग ले गया और अपने वृद्ध माता पिता को दिखाकर कहा अब मुझे इनकी सेवा करनी है। मैं नियत कर्तव्य कर्मों में निरंतर लगा रहता हूँ इसी से मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त है।

तब कौशिक की समझ में आया कि केवल तप साधना से ही नहीं, नियत कर्तव्य कर्म निष्ठा पूर्व करते रहने से भी आध्यात्मिक लक्ष’ पूरा हो सकता है और सिद्धियाँ मिल सकती हैं।

सत्संग की शक्ति।

एक बार वशिष्ठ जी विश्वामित्र ऋषि के आश्रम में गये। उनने बड़ा स्वागत सरकार और आतिथ्य किया। कुछ दिन उन्हें बड़े आदरपूर्वक अपने पास रखा। जब वशिष्ठ जी चलने लगे तो विश्वामित्र ने उन्हें एक हजार वर्ष की अपनी तपस्या का पुण्य फल उपहार स्वरूप दिया। बहुत दिन बाद संयोगवश विश्वामित्र भी वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। उनका भी वैसा ही स्वागत सत्कार हुआ। जब विश्वामित्र चलने लगे तो वशिष्ठ जी ने एक दिन के सत्संग का पुण्य फल उन्हें भेंट किया।

विश्वामित्र मन ही मन बहुत खिन्न हुए। वशिष्ठ को एक हजार वर्ष की तपस्या का पुण्य भेंट किया था। वैसा ही मूल्यवान उपहार न देकर वशिष्ठ जी ने केवल एक दिन के सत्संग का तुच्छ फल दिया। इसका कारण उनकी अनुदारता और मेरे प्रति तुच्छता की भावना का होना ही हो सकता है। यह दोनों ही बातें अनुचित हैं।

वशिष्ठ जी विश्वामित्र के मनोभाव को ताड़ गए और उनका समाधान करने के लिए विश्वामित्र को साथ लेकर विश्व भ्रमण के लिए चल दिये। चलते चलते दोनों वहाँ पहुँचे जहाँ शेष जी अपने फन पर पृथ्वी का बोझ लादे हुए बैठे थे। दोनों ऋषियों ने उन्हें प्रणाम किया और उनके समीप ठहर गये।

अवकाश का समय देखकर वशिष्ठ जी ने शेष जी से पूछा-भगवन् एक हजार वर्ष का तप अधिक मूल्यवान है या एक दिन का सत्संग? शेष जी ने कहा-इसका समाधान केवल वाणी से करने की अपेक्षा प्रत्यक्ष अनुभव से करना ही ठीक होगा। मैं सिर पर पृथ्वी का इतना भार लिए बैठा हूँ। जिसके पास तप बल है वह थोड़ी देर के लिए इस बोझ को अपने ऊपर ले लें। विश्वामित्र को तप बल पर गर्व था। उनने अपनी संचित एक हजार वर्ष की तपस्या के बल को एकत्रित करके उसके द्वारा पृथ्वी का बोझ अपने ऊपर लेने का प्रयत्न किया पर वह जरा भी नहीं उठी। अब वशिष्ठ जी को कहा गया कि वे एक दिन के सत्संग बल से पृथ्वी उठावें। वशिष्ठ जी ने प्रयत्न किया और पृथ्वी को आसानी से अपने ऊपर उठा लिया।

शेष जी ने कहा- ‘तप बल की महत्ता बहुत है। सारा विश्व उसी की शक्ति से गतिमान है। परंतु उसकी प्रेरणा और प्रगति का स्त्रोत सत्संग ही है। इसलिए उसकी महत्ता भी तप से भी बड़ी है।’

विश्वमित्र का समाधान हो गया और उनने अनुभव किया कि वशिष्ठ जी ने न तो कम मूल्य की वस्तु भेंट की थी और न उनका तिरस्कार किया था।

सत्संग से ही तप की प्रेरणा मिलती है। इसलिए तप का पिता होने के कारण सत्संग को अधिक प्रशंसनीय माना गया है। यों शक्ति का उद्भव तो तप से ही होता है।

द्वेष का कुचक्र

द्रोणाचार्य और द्रुपद एक साथ ही गुरुकुल में पढ़ते थे। द्रुपद बड़े होकर राजा हो गये। एक बार किसी प्रयोजन की आवश्यकता पड़ी। वे उनसे मिलने गये। राज सभा में पहुँचकर द्रोणाचार्य ने बड़े प्रेम से उन्हें सखा कहकर संबोधन किया। पर द्रुपद ने उपेक्षा ही नहीं दिखाई तिरस्कार भी किया। उनने कहा-जो राजा नहीं वह राजा का सखा नहीं हो सकता। बचपन की बातों का बड़े होने पर कोई मूल्य नहीं उनका स्मरण करके आप मेरे सखा बनने की अनधिकार चेष्टा करते हैं।

द्रोणाचार्य को इस तिरस्कार का बड़ा दुःख हुआ। उनने इसका बदला लेने का निश्चय किया। वे हस्तिनापुर जाकर पाँडवों और कौरव बालकों को अस्त्र विद्या सिखाने लगे। जब शिक्षा पूर्ण हो गई और शिष्यों ने गुरु से दक्षिणा माँगने की प्रार्थना की तो पाँडवों से उनने यही माँग, कि राजा द्रुपद को जीतकर उन्हें बाँधकर मेरे सामने उपस्थित करो। भीम और अर्जुन ने यही किया, उसने द्रुपद को बाँधकर द्रोणाचार्य के सामने उपस्थित कर दिया।

द्वेष का कुचक्र टूटता नहीं। द्रुपद के मन में द्रोणाचार्य के लिए प्रतिशोध की भावना बनी रही। उसने भी द्रोणाचार्य को नीचा दिखाने की ठानी और बाज़ ऋषि को प्रसन्न करके मन्त्र शक्ति से एक ऐसा पुत्र प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की जो द्रोणाचार्य को मार सके। उस पुत्र का नाम धृष्टद्युम्नः रखा गया। बड़े होने पर महाभारत में उसी ने द्रोणाचार्य को मारा।

भीष्म की पितृ-भक्ति ।

राजा शान्तनु एक रूपवती निषाद कन्या सत्यवती से विवाह करना चाहते थे। उसने निषाद के आने पर प्रस्ताव रखा तो उसने उत्तर दिया कि यदि मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न बालक को ही आप राज आदि देने का वचन दें तो मैं यह प्रस्ताव स्वीकार कर सकता हूँ। शान्तनु असमंजस में पड़े। क्योंकि उनकी पहली रानी गंगा का पुत्र भीष्म मौजूद था और वही राज्याधिकारी भी था। शान्तनु लौट आये पर वे मन ही मन दुखी रहने लगे।

भीष्म को जब यह पता चला तो उसने पिता को संतुष्ट करना अपना कर्तव्य समझा और निषाद के सामने जाकर प्रतिज्ञा की कि मैं अपना राज्याधिकारी छोड़ता हूँ। सत्यवती का पुत्र ही राज्याधिकारी होगा। इतना ही नहीं मैं आजीवन अविवाहित भी रहूँगा ताकि मेरी संतान कहीं उस गद्दी पर अपना अधिकार न जमाने लगे। इस प्रतिज्ञा से निषाद संतुष्ट हुआ और उसने अपनी कन्या का विवाह शान्तनु के साथ कर दिया।

पिता के दोष को न देखकर उनकी प्रसन्नता के लिए स्वयं बड़ा त्याग करना भीष्म को आदर्श पितृभक्ति है।

आत्म ज्ञान की प्राप्ति।

महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नी थीं। एक मैत्रेयी दूसरी कात्यायनी। महर्षि जब संन्यास लेने लगे तब उसने दोनों को बुलाकर कहा मेरे पास जो सम्पत्ति है उसे आधा-आधा बाँट दूँ, ताकि तुम दोनों सुख पूर्वक रह सको।

मैत्रेयी ने सोचा कि मनुष्य अधिक सुख के लिए ही स्वल्प सुख का त्याग कर सकता है। महर्षि जब भोग को छोड़कर त्याग अपना रहे हैं तो अवश्य ही उसमें कुछ अधिक सुख होना चाहिए। इसलिए उसने कहा-भगवान जिनसे मेरा मरना जीना न छूटे उसे लेकर मैं क्या करूँगी? आप तो मुझे ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दीजिए।

सम्पत्ति से ज्ञान का मूल्य अधिक है। सम्पत्ति तो समय के प्रभाव से नष्ट हो सकती है पर अविनाशी ज्ञान से लोक और परलोक दोनों का ही साधन होता है।

श्रद्धा द्वारा पोषित मिट्टी का गुरु

गुरु द्रोणाचार्य से पाण्डव धनुर्विद्या सीखने बन में गये हुए थे। उनका कुत्ता लौटा तो देखा कि किसी ने उसके होठों को बाणों से सी दिया है। इस आश्चर्यजनक कला को देखकर पाण्डव दंग रह गये कि सामने से इस प्रकार तीर चलाये गये कि वह कहीं अन्यत्र न लग कर केवल होठों में ही लगे जिससे कुत्ता मरे तो नहीं पर उसका भौंकना बंद हो जाए। कुत्ते को लेकर पाण्डव द्रोणाचार्य के पास पहुँचे कि यह कला हमें सिखाइये। गुरु ने कहा-यह तो हमें भी नहीं आती। तब यही उचित समझा गया कि जिसने यह तीर चलाये हैं उसी की तलाश की जाय। कुत्ते के मुँह से टपकते हुए खून के चिह्नों पर गुरु को साथ लेकर पाण्डव उस व्यक्ति की तलाश में चले। अन्त में वहाँ जा पहुँचे जहाँ कि भील बालक अकेला ही बाण चलाने का अभ्यास कर रहा था। पूछने पर मालूम हुआ कि कुत्ते को तीर उसी ने मारे थे। अब अधिक पूछताछ शुरू हुई। यह विद्या किससे सीखी ? कौन तुम्हारा गुरु है? उसने कहा-द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं उन्हीं से यह विद्या मैंने सीखी है। द्रोणाचार्य आश्चर्य में पड़ गये। उनने कहा मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं फिर बाण विद्या मैंने कैसे सिखाई?

द्रोणाचार्य को साक्षात सामने खड़ा देखकर बालक ने उनके चरणों पर मस्तक रखा और कहा मैंने मन ही मन आपको गुरु माना और आपकी मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसी के सामने अपने आप अभ्यास आरंभ कर दिया।

गुरु भाव सच्चा और दृढ़ होने पर गुरु की मिट्टी की मूर्ति भी इतनी शिक्षा दे सकती है जितनी कि वह गुरु शरीर भी नहीं दे सकता। श्रद्धा का महत्व अत्यधिक है।


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