(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)
मनुष्य की अनेक विशेषताओं में एक विशेषता यह भी है कि उसे जिस ढाँचे में ढाला जाय उसमें वह ढल सकता है। अन्य प्राणियों में यह विशेषता नहीं है। सियार, अजगर, बाज़ आदि हिंसक प्राणी अहिंसक नहीं बन सकते। गाय, हिरन, कबूतर, तितली आदि प्राणी अपनी अहिंसक प्रकृति को नहीं बदल सकते। अन्य सभी जीव जन्तु अपनी एक निश्चित प्रकृति लेकर आते हैं और साधारणतः उसी स्थिति में जीवन यापन करते हैं। किन्तु मनुष्य पर यह बात लागू नहीं होती। वातावरण परिस्थिति और प्रयत्न से उसकी प्रकृति बनती और बिगड़ती है। एक मनुष्य से दूसरा मनुष्य शारीरिक दृष्टि से सूरत शकल से तो बहुत कुछ मिलता जुलता है पर प्रकृति, योग्यता, क्षमता, गुण, स्वभाव, दृष्टिकोण आदि मानसिक परिस्थितियों में भारी अंतर देखा जाता है। एक का जीवन देवता जैसा है तो दूसरे का दानव जैसा। एक उन्नति के शिखर पर तेजी से चढ़ता चला जा रहा है तो दूसरा वतन के गर्त में द्रुत गति से गिर रहा है। एक ने पुरुषार्थ का मार्ग अपना कर अपनी शक्तियों को विकसित करके आश्चर्यजनक प्रगति की है तो दूसरा आलस्य और प्रमाद में पड़ा हुआ दीन-हीन बन रहा है।
प्रगति और पतन के अनेक क्षेत्र हैं। परिस्थितियों के आधार पर मनुष्य उनमें से किसी भी ओर अग्रसर होता है और जिस दिशा में कदम बढ़े थे उसी के अनुरूप बनता और ढलता चला जाता है। प्रयत्नों के द्वारा मनुष्य को ढाला जा सकता है, ढल सकता है। इस ढलने और ढालने की क्रिया को ‘साधना’ कहते हैं। व्यक्ति के निर्माण की विद्या को साधना कहा जाता है। इसे ही संस्कृति भी कहते हैं। ऐसा मनुष्य भी एक पशु ही है, उसमें भी सब पाशविक दुर्गुण मौजूद हैं पर साधना द्वारा संस्कृति के आधार पर उस पर संस्कार डाले जाते हैं। तभी वह संस्कृत एवं सभ्य कहलाने का अधिकारी बनता है। इसी प्रयत्न से उसकी प्रसुप्ति स्थिति में पड़ी हुई महान् विशेषताएँ विकसित होती हैं।
जैसे तैसे जीवित रहने और दिन काटने की स्थिति तो साधारण रीति से भी प्राप्त हो जाती है पर यदि किसी दिशा में प्रगति करनी हो तो प्रयत्न पूर्वक साधना का मार्ग ही अपनाना पड़ता है। ढालने और ढलने की प्रक्रिया को अपनाना पड़ता है। शारीरिक दृष्टि से उन्नति करने के इच्छुक व्यायाम की साधना करते हैं और स्थिर चित्त एवं उत्साह के साथ दीर्घकाल तक उसी ओर लगे रहे तो एक दिन अच्छे खिलाड़ी-अच्छे पहलवान, अच्छे नट और सुंदर सुडौल निरोग दीर्घायु बनने में सफल होते हैं। शिक्षा की दृष्टि से उन्नति करने के इच्छुक शिक्षालयों में प्रविष्ट होते हैं, शिक्षकों का मार्ग दर्शन ध्यान पूर्वक ग्रहण करते हैं। पाठ्यक्रम को हृदयंगम करने के लिए दिन रात पढ़ते हैं, इस प्रकार प्रयत्न करते करते वे एक दिन विद्वान् बन जाते हैं। आर्थिक क्षेत्र में प्रगति करने वाले व्यापार आदि के साधन जुटाते हैं, उनकी बारीकियों को समझने के लिए आवश्यक शिक्षण प्राप्त करते हैं, ग्राहकों को आकर्षित करने की व्यवस्था सीखते हैं। भारी दौड़ धूप करते हैं, प्रतिस्पर्धा में टिके रहने की कुशलता बरतते हैं, अपव्यय को रोकते हैं तब कहीं इस अर्थ साधना से धनवान् बनने की सिद्धि प्राप्त करते हैं।
इंजीनियर, डाक्टर, शिल्पी, मेकेनिक, वैज्ञानिक, संगीतज्ञ, गायक, नर्तक, कलाकार, कवि, लेखक आदि की विशेषताएँ अनायास ही किसी को प्राप्त नहीं हो जाती, वरन इसके लिए चिरकाल तक, निरन्तर प्रयत्न करते रहना पड़ता है, तब कहीं यह सफलताएँ उपलब्ध होती हैं यदि यह प्रयत्न एवं साधन न जुटें तो इन विशेषताओं को प्राप्त कर सकना भला किसी के लिए कैसे संभव हो सकता है ?
जिस प्रकार मनुष्यों में शारीरिक दृष्टि से साधारण सा ही अंतर होता है। इसी प्रकार मानसिक दृष्टि से भी थोड़ा-सा ही अंतर है। यदि हम किसी को पतनोन्मुख देखते हैं तो इसका कारण उसकी साधना एवं साधन ही हैं। व्यक्ति गीली मिट्टी के समान है निश्चय ही वह साधनों के आधार पर, साधनाओं के आधार पर ढाला जाता है, ढलता है।
उपरोक्त भौतिक क्षेत्रों में जिस प्रकार साधना एवं साधनों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार गुण, स्वभाव आदत, चरित्र, आचरण, आदर्श, विश्वास, भावना, दृष्टिकोण आदि मानसिक विशेषताओं के निर्माण में भी साधना एवं साधन ही प्रधान कारण है। यदि उनकी ओर उपेक्षा रखी जाय तो असंस्कृत स्थिति ही बनी रहेगी। जिनकी मनोभूमि का सावधानी पूर्वक निर्माण नहीं हुआ है, वे अपने प्रयत्नों से किसी भौतिक सफलताओं में सफल भले ही हो गये हों, आन्तरिक दृष्टि से हीन दशा में ही पड़े रहेंगे और यह हीनता उन्हें कभी भी महान् पुरुष की, सभ्य नागरिक की, श्रेष्ठ मानव की स्थिति में न पहुँचने देगी। यह अभाव मानव जीवन का सबसे बड़ा अभाव है।
साधन मानव जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। व्यक्तित्व को किसी दिशा में ढालने का कार्य साधना द्वारा ही सम्पन्न होता है। कमाऊ और सन्देहास्पद कार्यों में ही नहीं चोरी, डकैती, जेबकट, ठगी जैसी बुराइयों में भी मंदिर बनने के लिए उन कार्यों का अनुभव एवं शिक्षण प्राप्त करना होता है, उनके लिए भी साधना ही अभीष्ट है। दिन काटने की हीन स्थिति से आगे बढ़कर किसी ने यदि भली या बुरी दिशा में कुछ प्रगति की है तो उसे उस दिशा में साधना अवश्य करनी पड़ी है। साधना ही वह कल्पवृक्ष है जिसकी छाया में मनुष्य के विविध मनोरथ पूरे होते हैं।
सुख प्राप्त करने के लिए अनेक उपकरण जुटाने में लोग व्यस्त हैं, उनके लिए साधनाएँ भी प्राप्त कर रहे हैं और सफलताएँ भी प्राप्त कर रहे हैं इससे एक क्षण के लिए लगता है कि बुद्धिमत्ता की मात्रा इन दिनों काफी बढ़ी है। पर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की ओर जन साधारण की ओर उपेक्षा देखकर दूसरे ही क्षण ऐसा लगता है मानों दूर दर्शिता का, सूक्ष्म दृष्टि का दिवाला ही निकल गया हो। मनुष्य का वास्तविक विकास उसके सद्गुणों, उच्च विचारों, श्रेष्ठ विचारों और सुदृढ़ आदर्शों पर निर्भर रहता है। यदि यह निर्माण न हुआ तो धन, पद, स्वास्थ्य, योग्यता आदि की दृष्टि से कोई व्यक्ति कितना ही बढ़ा चढ़ा क्यों न दिखे अपने आपमें सदा असंतुष्ट रहेगा और उसके संपर्क में आने वाले लोक खिन्न एवं क्रुद्ध ही रहेंगे। दुर्गुणी दुर्भावना युक्त, दुश्चरित्र, आदर्शहीन, स्वार्थी, अशिष्ट, अहंकारी, बुरी आदतों में ग्रसित, दुर्व्यसनों आलसी, प्रमादी लोग अपनी भौतिक योग्यताओं आधार पर बाहर से सफल भले ही दिखें वस्तुतः वे नितान्त असफल ही होती हैं। न तो उनका कोई सच्चा मित्र होता है और न उन्हें किसी का स्नेह सहजभाव ही प्राप्त होता है। अपने दुर्गुण उन्हीं भीतर ही भीतर बुरी तरह जलाते रहते हैं। कभी भी उन्हीं शांति और संतोष के सौभाग्य पूर्ण स्वर्गं का दर्शन नहीं होता है। उनकी अन्तः स्थिति श्मशान की तरह दुर्गन्धित धुएँ से भी भरी और सुलगती सी बनी रहती है। ऐसे लोग यदि बाहरी दृष्टि से कुछ सफल भी हों तो वह सफलता किस काम की ?
आन्तरिक क्षेत्र का असंस्कृत, अव्यवस्थित पड़ा रहना, उनमें दुर्भावनाओं और पतित आदर्शों के झाड़ झंखाड़ उपज पड़ना सब दृष्टियों से दुर्भाग्य पूर्ण है, इन परिस्थितियों में पड़ा हुआ मनुष्य व्यक्तिगत से कभी भी सुख शांति, आनन्द, उल्लास एवं संतोष का अनुभव नहीं कर सकता। इस अभाव के रहते हुए उनकी सारी सफलताएँ और उपार्जित सम्पदायें एक प्रकार से व्यर्थ ही रहती हैं।
सामाजिक दृष्टि से विचार किया जाए तो भी अविकसित, असंस्कृत एवं पतित मनोभूमि के लोग समाज के लिए कलंक, मानवजाति के अभिशाप और राष्ट्र के लिए भार रूप ही हैं। किसी भी देश और समाज की वास्तविक सम्पदा उसके सभ्य नागरिक एवं उच्च आदर्श वाले महापुरुष ही होते हैं। उन्हीं से किसी देश का इतिहास बनता और गौरव बढ़ता है। शांति और सुव्यवस्था भी ऐसे ही लोगों से स्थिर रहती है। पर यदि समाज में बेईमान, निकम्मे, भ्रष्टाचारी, स्वार्थी लोगों की भरमार हो जाय तो फिर उसकी दुर्गति होना निश्चित ही है। कानून और शासन के द्वारा व्यक्ति की आन्तरिक दृष्टता पर अंकुश कहाँ तक लगेगा? न्याय और शासन का कार्य भी तो वे असंस्कृत मनोभूमि के लोग ही जब चलाने वाले हैं तो उनके द्वारा भी कब, कुछ बचने वाला है। सामाजिक पतन को कानूनों के बल पर प्रजातन्त्र व्यवस्था में नहीं रोका जा सकता। निरंकुश अधिनायकवाद में अत्यंत कठोर दंड व्यवस्था का आतंक स्थापित करके भले ही उन हीन मनोभूमि के लोगों को किसी हद तक काबू में रखा जा सके पर स्वाभाविक सद्भावना का पुण्य प्रसाद तो तब भी परिलक्षित न होगा।
वैयक्तिक और सामूहिक सुख शांति की सच्ची स्थापना सदाचार से ही संभव है और वह सदाचार स्वभावतः तो किसी विरले को ही प्राप्त होता है। साधना और साधनों से ही उसे उत्पन्न करना पड़ता है। प्राचीन काल में इस ओर अत्यधिक ध्यान दिया जाता था। उस समय यह भली भाँति समझा जाता था कि सद्गुणों और उच्च आदर्शों की मनोभूमि बने बिना कोई व्यक्ति न तो अपने आपमें सुखी रह सकता है और न समाज की सुव्यवस्था में कोई योग दे सकता है, इसलिए सबसे पहले सबसे आवश्यक कार्य यह समझा जाता था कि व्यक्ति को आन्तरिक दृष्टि से सुसंस्कृत बनाया जाय, उसकी मनोभूमि को श्रेष्ठ संस्कारों में संस्कारित किया जाए। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए आस्तिकता और धार्मिकता के दो माध्यम प्रयुक्त किये जाते थे। भारत के प्रत्येक नागरिक को धार्मिक एवं आस्तिक बनने के लिए साधना करनी पड़ती थी। आत्म निर्माण के लिए साधना करनी पड़ती थी। आत्म निर्माण की यह साधना जीवन का सर्वश्रेष्ठ, सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता था। जब तक यहाँ प्रक्रिया भारतवर्ष में चलती रही यह प्रत्येक क्षेत्र में महानता का, उत्कृष्टता का, समृद्धि और सफलता का बोल बाला रहा। अब उस दिशा में जितनी ही उपेक्षा होती है, उतनी ही अशान्ति और अव्यवस्था बढ़ती जा रही है। प्राचीन गौरव की तुलना में हम दिन दिन नीचे उतर रहे हैं।
मनुष्य की शारीरिक भूख इन्द्रिय विषयों से, सत्ता, प्रद, धन, अहंकार, शृंगार, विलासिता आदि के आधार पर पूर्ण हो सकती है, पर इन सबसे जो सुख मिलेगा वह ऊपरी ही रहेगा। कुछ ही समय ठहरेगा आत्मिक भूख की तृप्ति उन विचारों और कार्यों से ही संभव है जो आत्म संतोष देने वाले हैं। सद्विचारों, सद् भावों, सद्गुणों, सत्कर्मों की मात्रा जितनी अधिक होगी उतना ही आत्म संतोष बढ़ेगा। आत्म तृप्ति के लिए किये गये यह प्रयत्न ब्रह्म जीवन में भी एक अद्भुत सरसता का संचार करते हैं। सत् प्रवृत्तियों से मनुष्य का व्यवहार आर आचरण दूसरों के लिए सुखदायक होता है। सद्गुणी व्यक्ति अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य की भाँति ही बाहर के सब लोगों के साथ भी सौजन्य पूर्ण व्यवहार करता है। उसकी प्रतिक्रिया स्वभावतः लोगों के प्रेम, सद् भाव एवं सम्मान के रूप में उपलब्ध होती है। लोग उसके आचरण से प्रभावित होकर अनायास ही सद् भाव रखने लगते हैं और उसे अपने चारों ओर प्रेम एवं सौजन्य का समुद्र लहराता दीखता है। यही अनुभव यही लाभ जीवन का सर्वश्रेष्ठ अध्यात्मिक लाभ है। उसके बिना जीवन सर्वथा नीरस ही रहता है।
परस्पर स्नेह, सद् भाव, सौहार्द्र और सहयोग होने पर जीवन में जो रस, आनन्द और उल्लास रहता है वह इनका अभाव होने पर अपार वैभव द्वारा भी नहीं मिल सकता। इस वस्तुस्थिति की समझ कर हमारे पूर्वज सदा व्यक्ति के सद्गुणों और उच्च आदर्शों को पुष्ट करने पर जोर देते रहे। इसी के लिए आध्यात्मिकता का, धार्मिकता का विशाल ढाँचा खड़ा किया था। गुरुकुलों में छात्रों का जो शिक्षण होता था उससे सत्प्रवृत्तियों के विकास एवं पोषण की ही साधना उनसे कराई जाती थी। वर्णाश्रम धर्म, षोडश संस्कार, व्रत, पर्व, त्यौहार, तीर्थ, कथा, कीर्तन, अनुष्ठान, तप, संयम आदि की पृष्ठ भूमि, व्यक्ति की मनोभूमि को उच्च स्तर की ओर अग्रसर करती ही हैं।
खेद की बात है कि जहाँ भौतिक विकास के लिए इतने प्रयत्न हो रहे हैं वहाँ मनुष्य की अन्तः भूमि के परिष्कार की दिशा में सर्वत्र उदासीनता और उपेक्षा दिखाई देती है। इस अवस्था के रहते उन्नति के लिए प्रयत्न असफल ही रहेंगे। धन और शिक्षा की दृष्टि से यदि लोग सम्पन्न भी हुए तो उनसे आन्तरिक दुर्गुणों के रहते कोई सत्परिणाम निकलने की संभावना नहीं है। सम्पन्नता मिलने पर तो दुर्गुणी के दुर्गुण और भी अधिक बढ़ते हैं और वह अपेक्षाकृत और भी अधिक विपत्ति में फँस जाता है।
मनुष्य की आत्मा में अनन्त सत तत्त्व सन्निहित हैं। उसको कुरेदना और बढ़ाया जाना चाहिए। सम्पन्नता की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्न हो रहे हैं वे सराहनीय हैं पर साथ ही मानवीय महानता के उत्थान को भी ध्यान में खा जाना चाहिए। यह आत्म निर्माण की साधना का कार्य अत्यन्त ही उपयोगी एवं आवश्यक है। शुष्क उपदेशों के द्वारा तो यह कार्य बनने वाला नहीं है। इसके लिए साधना का मार्ग उसी प्रकार अपनाना पड़ेगा जिस प्रकार धन, स्वास्थ्य, विद्या, यश आदि की प्राप्ति के लिए सुनिश्चित प्रयास करना पड़ता है।
साधना के नाम पर आज देवी देवताओं की पूजा पाठ का कर्मकाण्ड शेष रह गया है। यह अपूर्ण है। देवान् भी आत्म साधना का एक अंग है पर वही सब कुछ नहीं हैं। दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा कर अपने अंदर की असुरता को समाप्त करने और सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण करके अन्तः भूमिका में देवताओं जैसे स्वर्गं सोपान की स्थापना करने का वैज्ञानिक प्रयास ही साधना का वास्तविक उद्देश्य है। ऐसी ही साधना प्राचीनकाल में होती थी आज भी आत्म निर्माण की दृष्टि से, वैयक्तिक ओर सामूहिक सुख-शान्ति की दृष्टि से ऐसी ही साधना की आवश्यकता है। साधना के साथ ही हर क्षेत्र की सफलता जुड़ी हुई है। आत्म निर्माण की सर्वोपरि आवश्यकता की पूर्ति के लिए भी हमें साधना का ही मार्ग अपना पड़ेगा। जीवन लक्षण की सफलता अभीष्ट हो तो साधना आवश्यक है, अनिवार्य है, यह तथ्य स्वीकार करना ही होगा।