आत्मिक समता की आवश्यकता

October 1959

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(श्री अरविन्द)

समता ही सच्ची आध्यात्मिक चेतना का प्रमुख अवलम्बन है और जब साधक भाव, वचन या कर्म से किसी प्राणिक गति में निज को बह जाने देता है, तब वह समता से ही विच्युत होता है। समता तितिक्षा एक ही चीज नहीं, यद्यपि यह बात संशयरहित है कि समता के प्रतिष्ठित होने से मनुष्य की सहनशीलता और तितिक्षा की क्षमता अत्यधिक परिणाम में, यहाँ तक असीम रूप में बढ़ जाती है।

समता का अर्थ होता है मन और प्राण का अचंचल तथा अविचलित होना। इसका अर्थ यह होता है कि जो कुछ घटित हो या तुम्हें जो कुछ कहा जाता हो या तुम्हारे संबंध में जो कुछ किया जाता हो, इन सबका तुम पर कोई स्पर्श न हो और न तुम इन सबसे विचलित होओ, वरन् तुम इन्हें सीधी दृष्टि से देख सको, तुम्हारी यह दृष्टि व्यक्तिगत भावनाओं की विकृतियों से विमुक्त रहे और तुम यह समझने का प्रयत्न करो कि इनके पर्दे के पीछे क्या चीज है, ये चीजें क्यों घटित हो रही हैं, इनसे क्या सीखा जा सकता है, हमारे स्वयं के अंदर क्या चीज है, जिस पर इनका प्रहार हो रहा है और इन सबसे हम कौन-सा आन्तरिक लाभ उठा सकते हैं या कौन-सी प्रगति कर सकते हैं। इसका अर्थ होता है प्राणिक गतियों पर आत्म प्रभुत्व का होना, क्रोध, संवेदनशीलता अहंकार और कामना तथा और सब बाकी चीजों पर भी आत्म प्रभुत्व का होना, अपनी भावमय सत्ता को इन चीजों के हाथों में पड़ने देकर आन्तरिक शाँति को विक्षुब्ध नहीं होने देना, इन चीजों के प्रवाह और वेग में नहीं बहना और न कार्य ही करना, सदैव अपनी आत्मा को शाँत आन्तरिक स्थिति से बोलना और कार्य करना। किसी पूर्ण मात्रा में इस समता को प्राप्त करना आसान नहीं, परंतु इसे अपनी आन्तरिक स्थिति और बाह्य गतियों का अधिकाधिक आधार बनाने का प्रयत्न हमें सदैव करते रहना चाहिए।

समता का एक और अर्थ भी है-मनुष्यों, उनकी प्रकृति उनके कार्यों और उन्हें चलाने वाली शक्तियों के प्रति समदृष्टि रखना। इससे हमें देखने और निर्णय करने में अपने मन

से समस्त व्यक्तिगत भावनाओं को, यहाँ तक कि समस्त मानसिक पक्षपातों को ढकेल बाहर करने में सहायता मिलती है। व्यक्तिगत भावना सदैव विकृति ले आती है और इससे यह होता है कि हम मनुष्यों के कार्यों को ही नहीं वरं उनके पीछे ऐसी चीजों को देखते हैं जो अधिक प्रायः वहाँ नहीं होती हैं। इसके परिणाम में गलतफहमी होती है, गलत निर्णय होते हैं और ये चीजें ऐसी होती हैं जिनका वर्णन किया जा सकता था। छोटे-छोटे महत्त्वों वाली चीजें बहुत बड़े रूप धारण कर लेती हैं।

मैंने देखा है कि जीवन में होने वाली इस प्रकार की प्रतिकूल घटनाओं में से आधी से अधिक का कारण यही रहता है, किन्तु साधारण जीवन में व्यक्तिगत भावनायें और संवेदनशीलता मानव-प्रकृति का स्थायी अंग रहती हैं और स्व-रक्षा के लिए उनकी आवश्यकता भी हो सकती है, पर मेरे विचार में वहाँ भी मनुष्यों और चीजों के प्रति एक सबल विशाल और सम-दृष्टिकोण बनाये रखना रक्षा का कहीं अधिक अच्छा साधन होता है, किन्तु साधक के लिए तो इन चीजों को पार करना और आत्मा की प्रशाँत शक्ति में निवास करना ही उसकी प्राप्ति का आवश्यक अंग है।

आन्तरिक प्रगति की पहली शर्त है प्रकृति के किसी भी अंग में हो रही या विद्यमान गलत गति को पहचानना, गलत भावना, गलत वचन, गलत कर्म जो कुछ भी हो उसे पहचानना और गलत का अर्थ होता है उस चीज से जो सत्य से विच्युत हो, भगवान के मार्ग से विच्युत हो और तब एक बार पहचान लेने पर इसे उचित ठहराना है और इसका समर्थन करना है, वरन् इसे स्वीकार करना है और भगवान को अर्पित कर देना ताकि उनकी ज्योति और कृपा अवतरित हो अपने इसके स्थान पर सच्ची चेतना की ठीक गति को प्रतिष्ठित करे।

पूर्ण समता की स्थापना में लंबा समय लगता है और यह तीनों पर निर्भर करती है-आन्तरिक समर्पण के द्वारा अन्तरात्मा का भगवान को आत्मार्पण ऊपर से आध्यात्मिक प्रशान्ति एवं वीरता का अवतरण ओर समता का विरोध करने वाली समस्त अहमात्मा, राजसिक तथा अन्य भावनाओं का स्थिर, दीर्घ तथा अटल वर्णन। पहली चीज जो करनी है वह है हृदय का पूर्ण निवेदन एवं अर्पण-अहं, रजोगुण आदि का वर्जन कार्यकारी हो सके, इसके लिए आध्यात्मिक शाँति एवं समर्पण का वर्द्धन अनिवार्य है।


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