मृत्यु से खेलना सीखो

October 1959

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(श्री भगवनसहाय वाशिष्ठ)

‘मृत्यु’ के समान भयानक शब्द संसार में कदाचित ही दूसरा होगा। मनुष्य मात्र के लिए मृत्यु एक निश्चित बात है। एक स्वाभाविक और अनिवार्य स्थिति है। जल्दी या देर में, प्रत्येक व्यक्ति को इस स्थिति में होकर गुजरना ही पड़ेगा। मृत्यु के सम्मुख किसी की विनती, घूँस अथवा धमकी का कोई असर नहीं होता। राजा से लेकर रंक तक को अंत में मृत्यु की शैया पर अवश्य सोना पड़ेगा। एक कवि ने कहा है-

“आयु रूपी नगरी के दो द्वार हैं एक आनन्द-दायक जन्म और दूसरा भय भीषण मृत्यु।”

फारसी के प्रसिद्ध कवि फिरदौसी ने मृत्यु की तुलना खेत काटने वाले के साथ करते हुए लिखा है कि “हम सब सूखी घास की तरह हैं, और काटने वाला बुड्ढ़े और जवान का ख्याल किये बिना सब को एक समान भाव से काटता जाता है। इस दुनिया का निर्माण ही इस ढंग से हुआ है कि जिसने माँ के पेट से जन्म लिया है उसे मरना भी अवश्य पड़ेगा। हर एक मनुष्य एक दरवाजे से आकर दूसरे दरवाजे से निकल जाता है, जब कि समय उसकी घड़ियाँ गिनता हुआ बेपरवाही से खड़ा रहता है।”

अनेक मनुष्यों को हम मरते हुए देखते हैं, सुनते हैं, ओर यह भी जानते हैं कि किसी दिन हमको भी अवश्य मरना होगा यह होने पर भी मृत्यु की भयंकरता इतनी अधिक है कि उसका नाम सुनते ही थरथराहट आ जाती है। मनुष्य की लालसा इतनी अधिक है कि एक दम मृत्यु के किनारे बैठा महाजर्जर वृद्ध मनुष्य भी उससे दूर भागने का प्रयत्न करता है।

मृत्यु के विषय में हमारे जो विचार हैं उनसे ऐसा प्रकट होता है कि मानो मृत्यु के समय घोर वेदना होती है। इसी वेदना की कल्पना से काँप उठते हैं। जिस प्रकार अंधकार पूर्ण अनजान स्थान में जाते हुए हमको डर लगता है, वैसी ही बात मृत्यु के विषय में है। मृत्यु के पीछे क्या होगा इसका कोई पता नहीं। वर्तमान समय के बड़े से बड़े वैज्ञानिक और उनके आधुनिक से आधुनिक यंत्र मृत्यु के बाद के जीवन के संबंध में कोई बात जानने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं। हमारे पास मृत्यु के पश्चात का हाल जानने के लिए अगर कोई साधन है तो वह हमारी धर्मकथाएं और किम्वदन्तियाँ हैं। पर इनकी सत्यता को सिद्ध करने का हमारे पास कोई ऐसा दृढ़ प्रमाण नहीं है जिसे सब विचारों के व्यक्ति स्वीकार कर सकें। इसलिए हम अधकचरे, असत्य और मनमाने विचार बनाकर मृत्यु का काल्पनिक भाव उत्पन्न कर लेते हैं।

मृत्यु की भयानकता का एक कारण यह भी है कि हम प्रायः मरने के पहले अधिकाँश व्यक्तियों को तरह-तरह के यंत्रणादायक रोगों में फंसकर कष्ट पाते और तड़फड़ाते देखा करते हैं। इसलिए लोगों का यह ख्याल हो जाता है कि इन यंत्रणाओं का कारण मृत्यु ही है। पर इसमें एक भूल की बात यह है कि हम बीमारी और मृत्यु को एक साथ मिला देते हैं। ध्यानपूर्वक देखा जाय तो जो व्यक्ति मृत्यु के पहले बीमारी की पीड़ा से भयंकर कष्ट पाता और चीत्कार करता रहता है, मृत्यु के बाद उसके मुख पर एक परम शाँति का सा भाव आ जाता है। इसलिए हमको तो ऐसा अनुमान होता है कि मनुष्य को अपार व्यथा और पीड़ा में से मुक्त करने के लिए ही परमात्मा ने मृत्यु को भेजा है। अगर हम इस विचारधारा को सत्य मानें तो मृत्यु को दुखदायी मानने के बजाय सुखदायी समझना चाहिए। महाकवि गालिब ने इसी आशय को दृष्टिगोचर रखकर कहा है-

अशरते कतरा है दरिया में फना हो जाना। दर्द का हद से गुजरना है, दवा हो जाना॥

अर्थात् “पानी की एक बूँद का सर्वोत्तम आनंद इसी में है कि वह नदी में जाकर मिल जाय, इसी प्रकार दर्द जब हद से बढ़ जाता है तो वही दवा हो जाता है अर्थात् मृत्यु के रूप में उसमें उससे पीड़ा का अंत हो जाता है।”

मृत्यु हमको इतनी खराब चीज जान पड़ती है कि अगर हमारा बस चले तो ‘मृत्यु’ को ही मृत्यु दण्ड सुना दें। पर हमको विचार करना चाहिए कि अगर संसार में मृत्यु न हो तो कैसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी। कुछ ही वर्षों में संसार में सब प्राणियों की संख्या इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि फिर नये प्राणियों की सृष्टि के लिए स्थान ही न रहेगा। जिस प्रकार कि दफ्तर के टेबल पर फाइलें बराबर आती तो रहें, पर उनको निबटारा करके वापस न लौटाया जाय तो वही की सी दशा संसार की भी दिखलाई पड़ेगी। इसके अतिरिक्त मनुष्य युवावस्था समाप्त होने के बाद ज्यों ही वृद्ध होने लगता है वैसे ही उसका मन जीवन की प्रवृत्तियों से हटकर निवृत्ति की तरफ जाने लगता है। ऐसा निवृत्ति का भाव और अकर्मण्यता आने से शरीर रोगों का घर बनने लगता है। अनेक शारीरिक व्याधियों से पीड़ित रहता हुआ और घिसटता हुआ अगर मनुष्य जीवित भी रहा करे तो उसे वह अमरत्व शाप के समान सिद्ध होगा। इस अवस्था में मृत्यु उसके लिए आशीर्वाद रूप होती है। मनुष्य समस्त दिन के कार्यों से जब थक जाता है और विरक्त होने लगता है तो रात्रि में उसे निद्रा की आवश्यकता होती है जिससे दूसरे दिन वह पुनः ताजा और कार्यक्षम हो जाता है। इसी प्रकार इस जीवन से थका हुआ मनुष्य मृत्यु रूपी निद्रा थकावट को दूर करके शाँति का अनुभव करता है और नये जन्म के लिए तैयारी करता है। बहुत से धर्मों ने पुनर्जन्म के सिद्धाँत को सत्य माना है। उसके अनुसार यह मानना पड़ता है कि मृत्यु के बाद भी शाश्वत जीवन है। यद्यपि इस बात को हम पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं कर सकते, पर जब हम उत्पत्ति के क्रम पर विचार करते हैं तो यही जान पड़ता है कि गुठली से आम का पेड़ पैदा होता है, उसमें फल लगते हैं, फल में बीज रहता है और बीज में फिर विशाल आम के पेड़ का सूक्ष्म रूप मौजूद होता है। इस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टि से इस जीवन के परिपक्व होकर समाप्त होने पर दूसरे जीवन की संभावना होना सर्वथा तर्क विरुद्ध नहीं कहा जा सकता।

इस प्रकार अगर मृत्यु के पीछे शाश्वत जीवन हो तो फिर ‘मृत्यु’ किसको समझा जाय? भगवद् गीता में इसका उत्तर दिया गया है कि ‘आत्मा अमर है, देह नाशवान है, इसलिए मृत्यु देह की होती है आत्मा की नहीं। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा भी एक जीर्ण शरीर को त्याग दूसरे नवीन शरीर में प्रवेश करता है।’ महात्मा सुकरात को जब जहर का प्याला पिला दिया गया तो उसके शिष्यों ने पूछा कि उसके शव की अंतिम व्यवस्था किस प्रकार की जाय? इस पर उसने उत्तर दिया कि ‘मेरे शव को चाहे पृथ्वी में गाड़ दो और चाहे अग्नि में जला दो मुझे किसी बात में एतराज नहीं है। मेरी आत्मा तो अमर है, इसलिए मैं कभी नहीं मर सकता।

इस प्रकार जिस मृत्यु से मनुष्य को परम शाँति मिलती है और नई यात्रा के लिए ताजगी और प्रफुल्लता प्राप्त होती है भयानक कैसे कहा जा सकता है? जो प्राकृतिक स्थिति सबके लिए निश्चित है, उसे सहर्ष क्यों न अंगीकार किया जाय? इस स्थिति को प्राप्त होते समय हमारी अंतिम भावना यह होनी चाहिए-

तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय॥


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