अखण्ड ज्योति के उत्तरदायित्वों में परिवर्तन

October 1959

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(भगवती देवी शर्मा धर्मपत्नी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य )

‘अखण्ड ज्योति’ के इस अंक पर संपादक के स्थान पर मेरा नाम पढ़कर पाठकों को आश्चर्य होगा। अपने परिवार के अधिकाँश सदस्य ऐसे हैं जो बहुधा मथुरा आते रहते हैं और मेरे कार्य क्षेत्र से भली प्रकार परिचित हैं। काफी दिन हो गये परिवार के परिजनों की भोजन व्यवस्था का कार्य मेरे जिम्मे है। बाहरी दृष्टि रखने वाले-मेरे कार्य भार को देखकर बहुधा खिन्न होते हैं और सहानुभूति प्रकट करते हैं पर मुझे अपने उस कार्य में कितना आनन्द और संतोष हैं, इसे मैं ही जानती हूँ। अब यह कार्य मेरे स्वभाव का एक अंग बन गया है। परिवार के परिजनों, आगन्तुक अतिथियों की आये दिन बड़ी संख्या देखकर मुझे भोजन संबंधी अधिक कार्य भार की वृद्धि से परेशानी होना तो दूर उलटे दूने आनन्द का अनुभव होता है। बहुत दिनों से यही मेरी कार्य शैली रही है। अब उस कार्य शैली से भिन्न ‘अखण्ड ज्योति’ के सम्पादन के कार्य से भी मुझे संलग्न देखकर पाठकों को निश्चय ही आश्चर्य होगा।

हमारे छोटे भौतिक परिवार-की जिसमें मैं, आचार्यजी, मेरी सास तथा दो बच्चे कुल पाँच प्राणी हैं-की परिस्थितियों तथा गतिविधियों से परिजन भली प्रकार परिचित हैं। कुछ समय से आचार्य जी ने अखण्ड ज्योति का कार्य अपने जिम्मे लेने के लिए मुझसे कहा था, पर इन दिनों जो कार्य मेरे ऊपर या उसकी व्यस्तता, अपनी स्वल्प सामर्थ्य तथा अनुभवहीनता के कारण मुझे भारी संकोच था और मैं उनसे अपनी कमजोरियों की ओर ध्यान दिला कर यह बराबर कहती रही है कि यह कार्य मेरे बस का नहीं है। इतना बड़ा कार्य भार अपने कंधे पर उठाने में मुझे भारी झिझक, संकोच और भय दबा रहा था अपनी उस मानसिक स्थिति को मैं बराबर आचार्यजी के सामने रख रही थी, वे भी वस्तुस्थिति से अपरिचित नहीं हैं, अन्त में जो निर्णय उनने किया, जो आदेश उन्होंने दिया। उसे शिरोधार्य करना ही मेरे लिए एकमात्र मार्ग था। वह मैंने स्वीकार किया। कई महीने से चल रहे हम लोगों के बीच एक विवाद का अंत हुआ। फलस्वरूप सम्पादन में नाम परिवर्तन इस अंक में उपस्थित है। पाठक जिस प्रकार आश्चर्यान्वित होंगे, उसी प्रकार मैं भी भारी संकोच अनुभव कर रही हूँ।

आचार्य जी के घर में जब से मेरा प्रवेश हुआ है तब से मैंने उन्हें देवता रूप में पाया और परमेश्वर के रूप में उन्हें पूजा है। उनकी प्रत्येक इच्छा और प्रत्येक आज्ञा में मुझे अपना सौभाग्य और कल्याण अनुभव होता रहा है। समय-समय पर वे मुझे कई परीक्षाओं में डालते रहे हैं। गत नरमेध यज्ञ में उन्होंने अपनी सारी पैतृक एवं व्यक्तिगत सम्पत्ति, मेरे जेवर तथा प्रेस आदि जो कुछ था। सार्वजनिक घोषित कर देने, समाज को सर्वस्व दान कर देने का विचार किया, मुझसे सलाह ली, मेरी मनोभूमि में कुछ कच्चाई थी पर उनने कुछ गंभीरता से उस बात का महत्व बताया तो मेरे लिये वही बात सर्वश्रेष्ठ थी। उतनी ही आन्तरिक प्रसन्नता से मैं भी सहमत हो गई थी जितनी कि उनकी आन्तरिक इच्छा थी। इसी प्रकार छह वर्ष पूर्व जब उन्होंने शेष जीवन में ब्रह्मचर्य-पूर्वक रहने की बात सोची और मुझसे सलाह ली तो मुझे वही परम कल्याण का मार्ग अनुभव हुआ। कुछ दिन पूर्व वे दोनों बच्चों को समाज को देकर मुझे अपने साथ लेकर धर्म प्रचार के लिए देशव्यापी पर्यटन की बात सोचते थे तब भी मेरी पूर्ण सहमति थी। अब उनने अपनी वर्तमान इच्छा मुझे अखण्ड ज्योति चलाते रहने और स्वयं अन्यान्य महत्वपूर्ण कार्यों की ओर अग्रसर होने का निश्चय किया तो इनसे भी मुझे क्यों इनकारी होती। मेरी अयोग्यता बाधक थी, उसी के कारण संकोच भी था, पर जब उनका आदेश आशीर्वाद सामने है तो दूसरी बात सोचने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। मैंने अपने इस छोटे से जीवन में ऐसी अगणित घटनाएं देखी हैं जिनमें उनके आशीर्वाद को पाकर तुच्छ व्यक्ति भी महान कार्य संपन्न कर सके हैं। उसी बलबूते पर मेरा संकोच शाँत हो जाता है और अखंड ज्योति की गुरुतम जिम्मेदारी को अपने कंधे पर लेने का साहस किसी प्रकार समेट पाती हूँ।

‘अखण्ड ज्योति’ के सम्पादन संबंधी यह परिवर्तन आचार्य जी ने क्यों किया इसकी एक विस्तृत पृष्ठभूमि है। उनका जीवन साधनामय जीवन है। सच्चे अर्थों में उनका अन्तः विश्लेषण किया जाय तो वे और कुछ पीछे-साधक पहले हैं। यही उनका सब से प्रिय कार्य रहा है, इसी में उनका मन रमता एवं रचता है। 24-24 लक्ष के 24 गायत्री पुरश्चरण उनने पूरे कर लिये थे तो उनने उसकी पूर्णाहुति स्वरूप कुछ धर्म-प्रचार कार्य करने का संकल्प किया था। उसमें उन्हें सात वर्ष लगाने थे। वे सात वर्ष अगले साल पूरे हो जाते हैं, इसलिए उन्हें अब फिर अपने साधना क्षेत्र में लौटना है। अखण्ड-ज्योति का यह सम्पादन परिवर्तन भी इसी योजना का एक अंग है।

अपने 24 महापुरश्चरण पूर्ण कर लेने पर उनने पूर्णाहुति की सप्तम वर्षीय योजना बनाई थी उसमें (1) गायत्री तपोभूमि की स्थापना जिसके द्वारा विश्व व्यापी गायत्री प्रचार हो सके। (2) अखण्ड अग्नि की स्थापना-जिसमें नित्य यज्ञ होते रहने से यज्ञ शक्ति की परिपुष्टि होना। (3) गायत्री परिवार की स्थापना-जिसमें 2400 शाखाओं के अंतर्गत सवालक्ष उपासक नित्य नियमित उपासना का संकल्प लेकर प्रतिदिन कम से कम सवा करोड़ गायत्री जप करते रहें (4) सहस्र कुँडी यज्ञ-जिसमें देश भर के गायत्री उपासक एक स्थान पर एकत्रित होकर एक सम्मिलित शक्ति का उद्भव कर सकें। (5) युग निर्माण के लिए नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान आँदोलन का आरंभ। (6) देश भर में 24000 कुण्डों के यज्ञ कराके गायत्री और यज्ञ का व्यापक प्रसार तथा भावी अशुभ समय की शाँति की सम्पन्नता। (7) चारों वेदों का सरल सुबोध एवं सस्ता हिन्दी भाष्य करके वेदज्ञान का विस्तार। सात वर्षों में यह सात कार्य उन्हें सम्पन्न करने थे।

कार्य बहुत बड़े थे। जिन दिनों 24 पुरश्चरण उन्होंने पूर्ण किये थे और यह सप्त सूत्री योजना मुझे बताई थी तो मैं अवाक् रह गई थी। अपने साधन जितने सीमित थे, योजना का प्रत्येक भाग जितना बड़ा था, उसे देखते हुए सातों तो क्या एक कार्य का एक अंश भी पूरा होना संभव नहीं दीखता था क्योंकि इन कार्यों के लिए प्रचुर धन, विशाल जन सहयोग और काफी समय एवं श्रम लगाने की आवश्यकता स्पष्ट थी। पर जिस छोटे से घर में हम पाँच प्राणी रहते हैं, उसके सीमित दायरे और सीमित साधनों को देखते हुए वह सात सूत्री योजना असंभव जैसी लगी। मैंने अपना संदेह उनके सामने विनम्र शब्दों में रखा तो वह मुसकराये और बोले ‘तुम्हें इतने दिन साथ रहते हो गये पर अभी भी तुम इन कार्यों में हम लोगों की व्यक्तिगत तुच्छ सामर्थ्य के आधार पर सफल असफल होने का अनुभव लगाती हो?’ इस संकल्प को हम नहीं वरन् वह शक्ति पूरा करेगी जिस के साथ जिसकी गोदी में हम लोगों ने अपने आप को सर्वतोभावेन सौंपा हुआ है।’ मैं चुप हो गई। उनकी आत्मिक प्रेरणा के आधार पर अनेक लोगों को सफलताएं प्राप्त करते देखा है, फिर अपना संकल्प अधूरा क्यों रहेगा? यह सोचकर मैंने मस्तक झुका लिया।

24 महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति स्वरूप जो 7 संकल्प उनने किये थे, उनमें से 5 पूर्णतया पूरे हो गए। दो संकल्प आधे शेष हैं, उनके लिए एक वर्ष शेष है, वह भी इस अवधि में पूरा हो जाने की संभावना है। (1) गायत्री तपोभूमि बन गई। यह आदर्श, देवालय, साधनाश्रम तथा धर्मप्रचार का केन्द्र भारत के अत्यन्त महत्वपूर्ण धर्मस्थानों में से एक है। (2) ऋषियों के आश्रमों में रहने वाली अखंड अग्नियाँ जो कभी न बुझें और जिनका पूजन नित्य यज्ञ द्वारा होता रहे, देश भर में अब दो चार स्थानों पर ही रह गई है। ऐसी अग्नियों का असाधारण आध्यात्मिक महत्व है, पर वह परम्परा लुप्त हो चली है। ऐसी अखण्ड अग्नि की स्थापना तपोभूमि में हो चुकी और उसका सदा जलते रहने का व्यवस्था क्रम बन गया। (3) अ.भा. गायत्री परिवार की शाखाएं 2400 से अधिक हो गई हैं। सवालक्ष उपासकों द्वारा सवा करोड़ जप का क्रम भली प्रकार चल पड़ा है। (4) सहस्र कुण्डी महायज्ञ बड़ी सफलता और शाँति के साथ संपन्न हो गया, इस युग का महानतम एवं अभूतपूर्व यज्ञ माना जाता है। (5) नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना का युग निर्माणकारी कार्यक्रम अभी गायत्री परिवार की शाखाओं द्वारा ही प्रसारित किया गया है, यह आशा है कि उसका देशव्यापी रूप बनेगा और प्राचीन युग की महान परम्पराओं को भारत भूमि में प्रतिष्ठापित करने के लिए यह योजना महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त करेगी।

यह पाँच कार्य सम्पन्न हो चुके इन्हें ठीक प्रकार चलते रहने की योजना चल रही है। छठवें संकल्प के अनुसार 24 हजार कुण्डों के यज्ञ होने थे एक हजार कुण्डों का तपोभूमि में और तेईस हजार कुण्डों का देश भर में। उसका आधे में अधिक भाग अब तक पूर्ण हो चुका। जो आधा भाग शेष है वह भी वर्तमान प्रगति को देखते हुए अगले वर्ष पूर्ण हो जाना निश्चित है। चारों वेदों का सरल भाष्य करने और उसे अत्यंत स्वल्प मूल्य में जनता तक पहुँचाने की योजना में आचार्यजी लगे हुए हैं। तीन वेदों का भाष्य हो चुका है। एक का होना शेष है तथा उनका प्रकाशन और प्रचार होना है। यह कार्य अगले एक वर्ष में पूरा कर लेने का उनका विचार है। तब तक उनके संकल्प के सात वर्षों की अवधि भी पूर्ण हो जाएगी।

इस सप्त सूत्री संकल्प को पूर्ण करके आचार्य जी पुनः अपनी विशेष साधना में लगेंगे। पूरी बात तो अभी उनने स्पष्ट नहीं की है, पर मालूम होता है किन्हीं विशेष स्थानों पर किन्हीं विशेष आत्माओं के सान्निध्य में मथुरा से बहुत दूर रहने की उनकी योजना है। वे राष्ट्र के लिए एक विशेष व्यक्ति का आविर्भाव करने के लिए कुछ विशेष साधनात्मक कार्यक्रम बना रहे हैं। इसलिए अगले एक वर्ष में सप्त सूची संकल्प का शेष भाग पूरा करने के साथ साथ वे अपनी वर्तमान सीधी जिम्मेदारियों को दूसरों के हाथों सौंप देने में लगे हुए हैं। अखण्ड ज्योति का यह सम्पादकीय परिवर्तन भी उसी का एक पूर्व भाग माना जा सकता है।

गायत्री तपोभूमि को आत्मदानियों के जो जीवन दान प्राप्त हुए हैं, उसे इस युग की एक महान घटना कहा जा सकता है। अत्यन्त शुद्ध चरित्र, गहरी अध्यात्म निष्ठा सम्पन्न, सुयोग्य, सुशिक्षित, धर्मप्राण और भारतीय धर्म संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए तिल तिल कर अपने को होम कर देने की साधना लेकर जो आत्मदानी तपोभूमि पर आये हैं उनकी गतवर्षों में कार्य तत्परता की अगाध भावना को देखते हुए ऐसा लगता है कि आचार्य जी के संकल्प ही शरीर धारण करके आत्मदानियों के रूप में अवतरित हुए हैं। उन्हें उनका मानस पुत्र-धर्मपुत्र कहा जा सकता है। देशव्यापी धर्म जागृति के जो सपने उनने जीवन भर देखे हैं उनके यह मानस पुत्र पूरा करके रहेंगे ऐसा निश्चित दीखता है। गायत्री परिवारों का संगठन, उपासकों एवं धर्मव्रतियों की अभिवृद्धि, सद्ज्ञान का विस्तार, लोक शिक्षण, सत् साहित्य निर्माण, नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना का विस्तार आदि कार्यों से वे चिपट गए हैं मानो इन्हें पूरा करने के लिए उनने जन्मधारण किया हो। ऐसी उच्च मनोभूमि का सम्पन्न आत्मदानियों का मिलना आचार्य जी का सप्त सूत्री योजना का भविष्य उज्ज्वल है। यह स्पष्ट कर देती है। इन मानस पुत्रों को पाकर वे बहुत संतुष्ट है, उस सुसंतति की प्राप्ति को वे बार-बार माता का एक विशेष वरदान बताया करते हैं। धर्म जागृति का बहुत महत्वपूर्ण कार्य यह आत्मदानी पूरा करेंगे इसका उन्हें पूरा और पक्का विश्वास है। जीवन यज्ञ, गायत्री परिवार पत्रिका, वेद वाक्य प्रकाशन तथा एक पैसा ट्रैक्ट माला की योजना उन्होंने बड़ी सफलतापूर्वक संभाली है। आगे देशव्यापी शिक्षण शिविरों का विस्तृत कार्यक्रम उनके सामने है। तपोभूमि की आश्रम व्यवस्था तथा व्यापक धर्म प्रचार की योजनाएं आशाजनक गति से चलती रहेंगी ऐसा विश्वास किया जा सकता है।

अब उनके अपने और मेरे भावी कार्यक्रमों की बात रह जाती है। आचार्य जी अगले नये साधनात्मक कार्य क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। उनकी योजनाएं आध्यात्मिक आधार पर होती हैं, उनके पीछे कुछ दिव्य संदेश रहते हैं इसलिए उनमें हेर-फेर करने अनुरोध करने को भी अपनी हिम्मत नहीं होती। वैयक्तिक जीवन में कुछ मानसिक तथा बाहरी कठिनाइयाँ उनके सान्निध्य के अभाव में दुखी करती हैं, करेंगी, पर इसके लिए मैं उनको महान लक्ष्य से विचलित नहीं करना चाहती। मैं अब तक कभी उनके मार्ग में बाधक बनी भी नहीं-और न आगे बनना चाहती हूँ। वे जो उचित समझते हैं निश्चय ही उसके पीछे औचित्य ही परिपूर्ण होता है।

मेरे लिए एक ही कार्य उनने सौंपा है ‘कि साधना का यह प्रचंड स्त्रोत सूखने न पाये जिसके आधार पर गायत्री परिवार की सारी गतिविधियों की सफलता निर्भर है।’ चूँकि परिवार काफी बड़ा हो गया है, उसकी योजनाएं भी बहुत बड़ी हैं, उनको पूरा करने में तपोभूमि निवासी आत्मदानी तथा देशभर में फैले हुए व्रतधारी तथा उपासकगण संलग्न है। पर उनकी उस शारीरिक एवं मानसिक प्रक्रिया के पीछे एक सूक्ष्म शक्ति संपन्न आध्यात्मिक प्रेरणा की भी आवश्यकता है जिसके आधार पर युग निर्माण के कार्यक्रमों में आवश्यक निष्ठा एवं तत्परता सब लोगों में बनी रहे। आचार्य जी अगले वर्ष में जिस साधना में लगेंगे वे बहुत ऊँचे स्तर की है। पर मुझे उन्होंने यह सौंपा है कि गायत्री परिवार की प्रवृत्तियों में समुचित अध्यात्म तत्व सन्निहित रहे इसके लिए मैं भी एक विशेष साधना क्रम में लग जाऊँ।’

उनने मुझे तीन काम सौंपे हैं। (1) अखण्ड घृत दीपक जो यहाँ जलता है। वह 24 पुरश्चरणों के लिए था। वह कार्य पूरा हो जाने पर भी उसका विसर्जन न हो। उसे अभी 10 वर्ष और प्रज्ज्वलित रखा जाय। जिस प्रकार 40 दिन में एक गायत्री अनुष्ठान पूर्ण हो जाता है। इसी प्रकार 40 वर्ष तक जलते रहने पर अखण्ड घृत दीप भी ‘सिद्धि ज्योति’ बन जाता है। जब तीस वर्ष यह दीपक जल चुका सारे परिवार ने क्रमशः 24 घंटे जागरण रखकर उसे जलाये रखा-तो अब दश वर्ष के लिए ही उसे अधूरा क्यों छोड़ा जाए? दस वर्ष और भी इस दीपक का ज्वलित रखकर इसको ‘सिद्ध-ज्योति’ बनाया जाए।

(2) इस दीपक के सम्मुख अब अखण्ड जप का आयोजन किया जाय और दश वर्षों में 24 लक्ष के 24 अनुष्ठान और कराने का आयोजन करूं।

(3) अखण्ड दीप और अखण्ड जप जहाँ रहे वहाँ के संस्कार लेकर ही ‘अखण्ड ज्योति’ निकले।

यह दश वर्षीय योजना उन्होंने मेरे लिए प्रस्तुत की है। दश वर्ष तक इस योजना को पूर्ण करके मैं इस कार्य का उत्तरदायित्व अन्यों पर छोड़कर उस दिशा में बढूं जिसकी अभी से चर्चा करना असामयिक ही होगा।

उनकी आज्ञा को मैंने शिरोधार्य किया है। अखण्ड-ज्योति कार्यालय में जो घृत दीप जलता है, उसका अधिकाँश उत्तरदायित्व अब तक भी मुझ पर तथा हमारी सास जी पर था, फिर भी आचार्य जी उसकी देखभाल एवं सुरक्षा में बहुत समय देते थे, अब वह उत्तरदायित्व मैंने अपने ऊपर पूर्णतया ले लिया है।

अखण्ड जप किस प्रकार आरंभ किया जाय इसके लिए जनशक्ति की आवश्यकता पड़ेगी। यह किस प्रकार पूर्ण हो यह अभी विचार करना है। अभी इस व्यवस्था में तीन-चार महीने लग सकते हैं। तैयारी पूर्ण होने पर इसे आरंभ कर दूँगी। और दश वर्ष में 24-24 लक्ष के 24 महापुरश्चरण इसी अखण्ड दीपक की छाया में पूरे करने में संलग्न रहूँगी।

(3) अखण्ड-ज्योति का सम्पादन इस अंक से आरंभ कर दिया है और यह प्रयत्न करूंगी कि पत्रिका में गये हुए लेखों के साथ वह प्रेरणा भी जुड़ी हुई हो, जिससे उन लेखों का प्रभाव पाठक की अन्तरात्मा पर निश्चित रूप से हो।

इस आयोजन का उद्देश्य गायत्री परिवार के सदस्यों की आत्मिक स्थिति तथा सुख-शाँति की अभिवृद्धि ही है। इसी संकल्प के आधार पर यह त्रिविध कार्यक्रम आरंभ किया गया है।

यह पंक्तियाँ लिखते समय अखण्ड दीप और अखण्ड-जप वाली दोनों प्रक्रियाएं उतनी कठिन नहीं मालूम हो रही हैं। जितना अखण्ड-ज्योति पत्रिका का कार्य कठिन मालूम देता है। यह बहुत झंझट भरा काम है। इसमें आचार्य जी पिछले वर्षों काफी परेशान रहे हैं फिर मेरी क्षमता तो उनकी तुलना में नगण्य है। फिर भी जो आदेश है वह तो करना ही है।

मेरे लिए जो तीन सूत्री दश वर्षीय कार्यक्रम निर्देशित हुआ है उसे ईश्वरीय आदेश मानकर मैं आरंभ करती हूँ। आचार्यजी को उनके आदेशों को मैंने सदा इसी रूप में देखा और माना है। पर अपनी दुर्बलताओं के कारण मेरा नारी हृदय बार-बार सकपका जाता है।

आप पाठकों, परिजनों, आत्मीयों, धर्म पुत्रों से एक ही अनुरोध है कि जब इस भारी बोझ को लेकर चलने में मेरे दुर्बल पैर कंपकंपाने लगें तब आप प्रोत्साहन और शुभकामना एवं सहानुभूति का एक शब्द कह दिया करें। वह ममता भरा शब्द भी मुझे देवतुल्य आचार्यजी के आशीर्वाद की ही तरह अपेक्षित है।


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