“आध्यात्मिक मानव” की आवश्यकता

October 1959

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(श्री सत्यभक्त)

पश्चिमी देशों में कुछ समय से एक नये आँदोलन का जन्म हुआ है जिसे संक्षेप में एमआरए (मौरल री. आरमामेंट) के नाम से पुकारा जाता है। विज्ञान और यंत्र-विद्या में ऊँचे दर्जे की सफलता पाकर भी जब योरोप और अमरीका के लोगों को शाँति नहीं मिल सकी, इतना ही नहीं वे एक दूसरे के खून के प्यासे बनकर दुनिया में आग लगाने को तैयार होते गये तब कुछ विचारकों को इस पागलपन का इलाज करने की चिंता हुई। जब उन्होंने इस ‘बीमारी’ के कारणों पर विचार किया तो उनको यही जान पड़ा कि हमारे देशवासी एक मात्र भौतिक सुख और सम्पत्ति को ही महत्व दे रहे हैं और त्याग तथा परोपकार की भावना उनमें से अधिकाँश में निकल गई है। उनका आदर्श अधिक से अधिक रुपया कमाना और फिर उसके द्वारा साँसारिक वैभव और ऐश्वर्य का उपभोग करना रह गया है। एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य के बीच में जो आत्मा की समानता और एकता का संबंध है उसको उन्होंने बिल्कुल भुला दिया है और एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपना ‘भक्ष्य’ अथवा ‘शिकार’ समझ रहा है। इसका नतीजा स्वभावतः यह दिखलाई पड़ रहा है कि संसार में ईश्वरीय अथवा धार्मिक नियम के बजाय ‘जंगल का कानून’ प्रचलित हो गया है और जिस मनुष्य के हाथ में शक्ति आ जाती है वही दूसरों को नष्ट करना या मार कर खाना अपना अधिकार समझता है। ऐसी दशा में वैज्ञानिक उन्नति अगर सर्वनाश का साधन बन जाय तो क्या आश्चर्य है।

इस दुरावस्था को देखकर कितने ही सहृदय व्यक्तियों ने संसार भर के मनुष्यों, विशेष कर योरोप, अमरीका के भौतिक साधन सम्पन्न लोगों को नैतिकता का उपदेश देना आरंभ किया। उन्होंने समझाया कि आज कल लोगों के स्वभाव में ऐसी खराबी आ गई है कि वे मुँह से तो मीठी-मीठी बातें करते रहते हैं और पीछे से छुरा भोंक देते हैं। सार्वजनिक और राजनैतिक जीवन में भी डिक्टेटरशिप, हत्याकाँड, नजरबंदी के कैम्प, सर्वस्व अपहरण और युद्ध जैसे उपायों का ही आश्रय लिया जा रहा है। आजकल के मनुष्य ने दूसरे लोगों में पाई जाने वाली ‘बुराई’ को ठीक करने के ये रास्ते समझ रखे हैं, पर अभी तक इनके द्वारा बीमारी घटने के बजाय बढ़ती ही जाती है। सभी राज्यक्राँति के कार्यक्रम में इस समस्या को हल करने का उपाय यह बतलाया गया था कि ‘मनुष्य को नवीन साँचे में ढाला जाय।’ पर खेद से कहना पड़ता है कि इतने वर्ष बीत जाने पर भी कम्युनिज्म मनुष्य को नये साँचे में ढालने में समर्थ नहीं हुआ है। इसलिए अब रूस के साथ सहानुभूति रखने वाले लोगों में भी यह धारणा उत्पन्न होती जाती है कि इस समस्या का हल किसी अन्य उपाय से ही हो सकना संभव है। हम सब लोग न तो पूँजीपति ही हैं और न सब कम्युनिस्ट ही कहे जा सकते हैं। पर एक बात में हम सब अवश्य मिलते हैं हम में से सभी अपनी कठिनाइयों का कारण दूसरों को समझते हैं और चाहते हैं कि उनमें ऐसा परिवर्तन हो जाय कि हमको कठिनाई सहन न करनी पड़े। इस सच्चे तथ्य को हम चाहे विश्वशाँति, समानता, मानव अधिकार, देशभक्ति, राष्ट्रीयता, साम्राज्यवाद, स्वाधीनता, न्याय आदि किसी शब्द का बहाना लेकर प्रकट करें पर वास्तव में हमारा उद्देश्य निजी स्वार्थ की पूर्ति होता है।

जब तक कोई दूसरा दल हमारी अभिलाषाओं के पूर्ण होने में रोड़ा नहीं अटकाता तब तक हम संतुष्ट रहते हैं, चाहे उसकी प्रकृति और चरित्र जैसे का तैसा क्यों न बना रहे। पर जब हमारी अभिलाषाओं को खतरा जान पड़ता है, तो हम परिवर्तन करने के लिए किसी भी उपाय-हिंसा का भी प्रयोग करने को तैयार हो जाते हैं। पर इस प्रकार के उपाय से किसी मनुष्य के कार्य ही बदले जा सकते हैं, उसका स्वभाव और मूल चरित्र प्रायः ज्यों का त्यों बना रहता है। यही कारण है कि पिछले दिनों में बहुत बड़े-बड़े उपायों के करने पर भी केवल विभिन्न राष्ट्रों के ‘शक्ति-संतुलन’ में अंतर पड़ गया है, पर युग की प्रवृत्ति ही दुनिया को सर्वनाश की तरफ ले जा रही है।

इस समय ‘एटम युग’ ने सबसे अधिक महत्व प्रकृति की सबसे छोटी वस्तु ‘परमाणु’ को दिया है। इसके विपरीत ‘आदर्शवाद के युग’ में सबसे अधिक महत्व समाज के सबसे छोटे अंश मनुष्य को दिया जाता है। जिस प्रकार एटम का सबसे अधिक ज्ञान रखने वाला और उसकी कारीगरी से परिचित राष्ट्र ही सैनिक तैयारियों की प्रतियोगिता में सबसे आगे निकलेगा, उसी प्रकार जो जाति मनुष्य की प्रकृति को बदलने का रहस्य और विधि जानती होगी वही आदर्शवाद के आधार पर जगत के पुनर्निर्माण के कार्य में पहला नंबर प्राप्त करेगी।

अब हम यह भी बतला देना चाहते हैं कि चाहे एटम और हाइड्रोजन बम बनाने वाले कैसा भी दावा क्यों न करें, आदर्श अथवा विचारों की शक्ति उससे बड़ी है। क्योंकि विचार ही मनुष्य के दिमाग पर नियंत्रण रखते हैं और दिमाग हाथों पर नियंत्रण रखता है जिनके द्वारा एटमबम तैयार किया जाता है और वही यह निश्चय करता है कि एटमबम को कहाँ और किस प्रकार चलाया जाय। वर्तमान-युग को समझने के लिए सबसे अधिक ध्यान इसी बात पर दिया जाना चाहिए। किसी राष्ट्र की शक्ति का निर्णय केवल उसके आर्थिक साधनों, पैदावार और जनसंख्या के आधार पर नहीं करना चाहिए। इन सबसे बढ़कर विचारों की शक्ति होती है जो मनुष्य के दिमाग तक को भेदकर भीतर घुस जाती है और उसमें एकता के भाव को उत्पन्न कर देती है।

कोई भी विचार जब तक केवल एक वर्ग या जाति में सीमित रहता है तब तक वह विशेष महत्व का नहीं समझा जा सकता। उस दशा में तो उसके कारण प्रायः दूसरे वर्ग या समुदाय वालों से विरोध ही उत्पन्न होता है। पर जिस विचार में सब देशों और सब जातियों के मनुष्यों में फैल सकने की शक्ति होती है वही मानव-जाति को एक सूत्र में संगठन करके संसार का नव निर्माण कर सकता है।

इन्हीं बातों पर विचार करके संसार में सच्ची शाँति की स्थापना का प्रयत्न करने वालों ने सबसे अधिक जोर एक ‘नये स्वभाव का मनुष्य’ उत्पन्न करने पर दिया है और वे निरन्तर ऐसे मनुष्यों की संख्या बढ़ाने में ही संलग्न रहते हैं। सच पूछा जाए तो आज कल हम सच्चा राजनीतिक अथवा राष्ट्र नेता उसी को कह सकते हैं जो मनुष्य के पुनःनिर्माण की कला का ज्ञाता हो। यह एक ऐसा आवश्यक कार्य है कि जिसकी पूर्ति में बड़े और छोटे सब मनुष्यों को ध्यान देना चाहिए। इसके लिए किसी बहुत बड़ी योग्यता, विद्या अथवा चतुराई की आवश्यकता नहीं। इसके लिए अगर किसी बात की आवश्यकता है तो वह है हार्दिक सच्चाई की। अगर मनुष्य इस बात को निश्चित रूप से समझ ले और मान ले कि मनुष्य मात्र एक ही स्त्रोत से आते हैं, अंत में एक ही स्थान को जाते हैं और जब तक वे पृथ्वी पर रहते हैं, सुख प्राप्ति की आवश्यकता भी सभी को अवश्य रहती है, तो फिर झगड़े की कोई बात ही नहीं रह जाती। तब प्रत्येक मनुष्य का यही कर्तव्य हो जाता है कि वह ऐसा कोई काम न करे जिससे दूसरे लोगों की सुख प्राप्ति में बाधा पड़े। अगर वह ऐसा करेगा तो निश्चय है कि उसकी सुख प्राप्ति में बाधा नहीं पड़ सकती। यह कोई असम्भव बात या कोरी कल्पना नहीं है। एक समय था जब कि एक मनुष्य दूसरे को मार कर खा जाने में भी कोई बुरी बात नहीं समझता था, एक दूसरे के प्रति उनमें न कोई सहानुभूति थी और न कठिन परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए किसी प्रकार का संगठन था। ऐसे मनुष्यों का नमूना अब भी अफ्रीका और कुछ टापुओं में देखा जा सकता है। आरंभ में सर्वत्र यही अवस्था थी और मनुष्य अपने को छोड़कर किसी के प्राणों की परवाह नहीं करता था। पर आज ऐसे लोगों का सर्वथा अभाव नहीं है जो सर्वसाधारण के हित के लिए अपने प्राणों को निस्वार्थ भाव से उत्सर्ग कर देते हैं। अपने परिवार की रक्षा के लिए कष्ट सहने वाले या जान दे देने वाले तो हजारों, लाखों की तादाद में मिल सकते हैं। दूसरों के साथ कुछ उपकार कर देने वालों की संख्या तो अब भी बहुत अधिक है। जब कुछ हजार या लाख वर्ष में मनुष्य में इतना परिवर्तन हो सकता है, वह लगभग पशु की दशा से तरह-तरह की विधाओं, कलाओं, ज्ञान, विज्ञान, योग, आध्यात्म का ज्ञाता बन सकता है, तो आगामी वर्षों में अपनी विपत्ति के मूल कारण को समझकर अगर व्यक्तिगत स्वार्थ को त्याग दे तो यह कोई असंभव बात नहीं है। अगर संसार की आर्थिक व्यवस्था में क्राँतिकारी परिवर्तन कर दिये जाएं तो इसमें से आधा काम तो दस पाँच साल के भीतर ही पूरा हो सकता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि इस उद्देश्य की पूर्ति तभी हो सकेगी जब कि मनुष्य की प्रकृति ही बदल दी जाय। अब तक मनुष्य को नैतिक और चारित्रिक शिक्षा देने का भार घर, स्कूल और धर्म गुरुओं के ऊपर समझा जाता था। पर घरों में तो इस बात का ज्ञान बहुत कम पाया जाता है कि जीवन की आवश्यक शिक्षा किस प्रकार दी जाय। स्कूलों ने अपना कर्तव्य केवल पढ़ने लिखने तथा किसी तरह की कारीगरी की शिक्षा देना ही समझ लिया है। धर्म-गुरुओं का प्रभाव बहुत घट गया है और बहुत थोड़े लोग इस मनोभाव को लेकर मंदिरों तथा तीर्थों में जाते हैं। इसलिए आज मनुष्य को चरित्र और अध्यात्म की शिक्षा देने के लिए किसी और ही विधि की आवश्यकता है। अगर हम इस प्रयत्न में सफल नहीं हुए तो वर्तमान शताब्दी मानव जाति के सर्वनाश की शताब्दी सिद्ध होगी और इसका कारण यही बतलाया जायगा हम मनुष्यों की प्रकृति के बदलने में असमर्थ सिद्ध हुये।


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