पावन कर्म-यज्ञ-दान-तप

October 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री गिरीश देव वर्मा.बहराइच)

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा कि हे मधुसूदन! आप संन्यास व त्याग की बात करते हैं तथा अनासक्त होकर सात्विक कर्मों के करने की भी बात करते हैं, किन्तु कर्म तो सभी दोष युक्त है। खेती ही को लें तो यह एक सात्विक क्रिया है लेकिन हल जोतने आदि में कितने ही जन्तु मरते हैं। तालाब, मंदिर आदि बनवाना पुण्य कर्म है परंतु इसमें कितने प्राणियों की हिंसा हो जाती है। सबेरे दरवाजा खोलते ही सूर्य का प्रकाश घर में प्रवेश करता है, उससे असंख्य जन्तु नष्ट हो जाते हैं। हम गेहूँ, चावल, तरकारी, फल, दूध आदि नित्य सेवन करते हैं, किन्तु यह सभी पदार्थ जीवधारी हैं। इनको उपयोग लाना तो मारण क्रिया ही हो जाती है। इसी तरह जब सभी कर्म दोषयुक्त हैं, तो क्या करें।

भगवान ने कहा कि अर्जुन! कुछ लोग ऐसा ही कहते हैं कि सभी कर्म दोष युक्त हैं अतः त्याज्य हैं। किन्तु मेरा यह निश्चित मत है कि तीन कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं। वे मनुष्य के परम कर्तव्य हैं। नित्य की क्रियाओं में जो पाप मनुष्य से हो जाता है, उसको यह तीन कर्म नाश करके, उसको पवित्र बना देते हैं। वे कर्म हैं यज्ञ-दान-तप।

यज्ञ दान तपः न त्याज्यं कार्यमेव तत्। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥

गीता 185

अर्थ-यज्ञ दान तप कर्म त्यागने योग्य नहीं है, वे कर्तव्य हैं। यज्ञ दान व तप मनुष्यों को पवित्र करने वाले हैं।

एतान्यपि तु कर्माणि सगं त्यवत्वा फलानि च। कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥

गीता 18-6

अर्थ-हे पार्थ! यह सब कर्म आसक्ति व फल को त्याग कर करने चाहिएं। ऐसा मेरा निश्चित व उत्तम मत है। हे परंतप! मनुष्य तीन प्रकार के शरीरों से घिरा है। सबसे छोटा तो यह हाड़ माँस का बना शरीर है। दूसरा शरीर समाज का है जिसमें माता, पिता, मित्र, पड़ौसी आदि आते हैं। तीसरा शरीर प्रकृति का है, अर्थात् हर प्राणी, हवा, पानी, आकाश आदि देवताओं से घिरा हुआ है। संसार का कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो इन तीन शरीरों से घिरा न हो। इन तीन शरीरों का उपयोग हर मनुष्य करता रहता है और इस्तेमाल से उसमें विकार उत्पन्न करता है। उसी क्षति को पूर्ण करने के लिए हमने यह तीन कर्म बनाये हैं, ताकि मनुष्य यज्ञ, दान, तप करके पाप से मुक्त हो जावे। मनुष्य इन तीन शरीरों का व्यवहार करके इतना कर्जदार हो जाता है कि बगैर यज्ञ, दान, तप किये, इन ऋणों से छुटकारा नहीं पाता।

भगवान की यह वाणी कितनी कल्याणकारी है। मनुष्य मात्र के ऊपर यह उनकी महान् कृपा है! कबीरदास ने इन्हीं शरीरों को चादर कहा है। यह मनुष्य इन्हीं चादरों को ओढ़ ओढ़कर मैली कर देता है, और गंदी चादर छोड़कर चला जाता है। वह ऐसा कर्म नहीं करता है कि चादर मैली न हो। कबीरदास जी कहते हैं कि

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़े,

ओढ़ ओढ़ मैली कर दीनी-

चदरिया झीनी झीनी बीनी।

दास कबीर जतन से ओढ़े,

जैसी कि घर दीनी-

चदरिया झीनी झीनी बीनी।

(1) प्रकृति को लीजिए। हम शुद्ध वायु श्वास लेते हैं किन्तु प्रश्वास द्वारा गंदी वायु निकालते हैं। प्रकृति हमको ऑक्सीजन देती है मगर हम उसका कार्बन बनाकर निकालते हैं। हमको क्या अधिकार है कि हम शुद्ध वायु को गंदा करें और यदि करते हैं तो उसके लिए प्रायश्चित रूप में क्या करते हैं। वरुण देवता हमको शुद्ध जल देता है मगर हम पेशाब व पसीना बनाकर विसर्जन करते हैं। प्रकृति हमको शुद्ध भोजन देती है मगर हम विष्ठा बना कर निकालते हैं। हम बड़े-बड़े इंजिन, कल कारखाने खड़े करके प्रकृति को अशुद्ध करते हैं। हम एटम बम बनाकर सारी सृष्टि को दूषित करते हैं। हमें क्या अधिकार है कि हम गंदगी फैलावें। यदि यह पाप कर्म करने ही हैं तो उसको शुद्ध करने का हम क्या उपाय करते हैं। प्रकृति को दूषित करके हम जो कर्जदार हो जाते हैं उसकी अदायगी का हम क्या जतन करते हैं।

भगवान ने बताया कि प्रकृति के प्रति होने वाले पाप कर्म से छूटने के लिए हर मनुष्य को यज्ञ करना चाहिए। प्रकृति रूपी शरीर को जो हानि होती है उसे पूरा करना ही यज्ञ है। हम अपने घरों में नित्य यज्ञ करें। बाहर मोहल्लों में साप्ताहिक बड़े यज्ञ करें, तथा बड़ी-बड़ी मशीनों, इंजनों व बमों से जो अशुद्धता फैल रही है उसकी शुद्धि के लिए बड़े शत कुण्डी व सहस्र कुण्डी यज्ञ करें। यज्ञ से वायु शुद्ध होती है, वर्षा ठीक से होती है, अनाज काफी पैदा होता है। रोग नहीं आते हैं। यज्ञ से प्रकृति के छीजन की पूर्ति होती है और हम उसके ऋण से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए यज्ञ हमारा परम कर्त्तव्य है। यह एक पावन कर्म है।

यज्ञ शिष्टाशिः न सन्तो मुच्यन्ते सर्व किल्विषैः। सुखने ते व्यधं पापा ये पचन्त्यात्म कारणात्॥

-गीता 3-13

अर्थ- यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले पुरुष सब पाप से छूट जाते हैं। जो पापी लोग अपने लिये ही पकाते हैं, वे तो पाप ही को खाते हैं।

अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ कर्म समुद्भवः॥

गीता 3-14

अर्थ- सब प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्म से होता है।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम। तस्मार्त्सव गतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

गीता 3-13

अर्थ-कर्म को ब्रह्म से उत्पन्न हुआ जान। ब्रह्म अक्षर (अविनाशी परमात्मा) से उत्पन्न हुआ है। इससे सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य यज्ञ में प्रतिष्ठित है।

(2) दूसरा शरीर हमारा समाज है जिसमें माँ, बाप, गुरु, मित्र, परिवार, परिजन, संस्था, समाज आदि आते हैं। यह सभी हमारे लिये मेहनत करते हैं। जब हम इस संसार में आये तो दुर्बल व असहाय स्थिति में थे। इसी समाज ने हमको बड़ा किया, बल दिया, बुद्धि दी तथा ज्ञान मार्ग दिखाया। इसी समाज में पल कर हम वास्तविक रूप में मनुष्य हुए हैं। हम समाज के कर्जदार हो चुके हैं। इसी ऋण को चुकाने के लिए दान की व्यवस्था है। मनुष्य, समाज को आगे बढ़ाने में जो सहायता करता है वही दान है। समाज के इस ऋण को चुकाने के लिए हमें तन, मन, धन से दान करना चाहिए। बगैर मन, वचन कर्म से दान किये, हम पवित्र नहीं हो सकते और न पाप से छुट्टी पा सकते हैं। अतः दान भी हमारा परम कर्तव्य है। यह मनुष्यों को पावन बनाने वाला है। कलियुग में तो दान की सर्वश्रेष्ठ महत्ता है।

प्रगट चारि पद धर्म के काले महुँ एक प्रधान। जेन केन विधि दीन्हे दान करदू कल्यान॥

दान तभी सार्थक होता है जब वह सत्कार्य के लिए सत्पात्र को दिया जाए। दान भी नित्य कर्म है। इसलिए गायत्री संस्था ने इस धर्मघट के रूप में एक आवश्यक दैनिक धर्म कर्तव्य नियत किया है। इस कुबुद्धि के साम्राज्य में सद्विचारों का प्रकाश करने से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ सत्कर्म नहीं हो सकता।

(3) तीसरा आचरण यह शरीर है। यह प्रतिदिन छीजता जाता है। हम अपने मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि से काम लेते हैं इनको छिजाते हैं। इस शरीर से हम अनेकों अनावश्यक कार्य लेते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि करके इसमें विकार उत्पन्न करते हैं। समय का पालन न करके हम इस शरीर को जर्जर बनाते जाते हैं। हम निद्रा, भोजन, विश्राम से इसकी थकावट मिटाने का प्रयत्न करते हैं मगर जो छीजन इसमें होती जाती है उसकी पूर्ति केवल तप से हो सकती है। जो शरीर व इन्द्रियों में अशुद्धि आ जाती है, उसका निवारण केवल तप से संभव है। शास्त्र कहता है कि :-

कायेन्द्रिय सिद्धिर शुद्धि क्षयात्तपसः।

योगसूत्र 2-43

अर्थात्- तप से अशुद्धि के क्षय होने पर शरीर व इन्द्रियों की शुद्धि होती है। तप व ब्रह्मचर्य से मनुष्य मृत्यु पर भी विजय पा सकता है।

तप बल रचह प्रपंचु विधाता। तप बल विष्णु सकल जगत्राता॥ तप बल संभु करहिं संघारा। तप बल शेष धरइ महिभारा॥ तप आधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाई तपु अस जिय जानी॥

तप हर मनुष्य का परम पुनीत कर्तव्य है। तप से शरीर शुद्ध, निरोग, सबल बना रहता है तथा शरीर के प्रति किये पापों से हमें मुक्ति मिलती है। तप अनेकों प्रकार के हैं। गीता में इसका विशद वर्णन है।

इस तरह हम देखते हैं कि इस संसार में प्रकृति, समाज तथा शरीर से हम घिरे हुए हैं। इन तीनों का कार्य अच्छी तरह चल सके उसके लिए यज्ञ, दान, तप का विधान बताया गया है। यह कर्म कर्तव्य हो जाते हैं। यह स्वभावतः ही हमें मिल गये हैं। यह कृत्रिम भी नहीं है। इनकी हानि यज्ञ, दान, तप से पूरी करता है। जो मनुष्य यज्ञ, दान, तप न करके इन तीनों शरीरों की छीजन को पूरी नहीं करता है वह मरने पर क्या जवाब देगा। जो संसार में गंदगी फैलाता है और उसकी सफाई नहीं करता, वह घोर नरक में आता है और नाना प्रकार के क्लेशों को सहता है। यज्ञ, दान, तप, पुण्यकर्म हैं। इन्हीं के द्वारा हम भगवान के निकट पहुँचते हैं। महर्षि बाल्मीकि भगवान राम से कहते हैं कि-

मन्त्रराज नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहिं सहित परिवारा॥ तरपन होम करहिं विधि नाना। प्रिय जवाँइ देहिं बहु दाना॥ तुम्ह से अधिक गुरुहिं जिय जानी। सकल भाँग सेवहिं सनमानी॥

आज संसार में इन तीनों शरीरों के छीजन की मात्रा बहुत बढ़ गई है। नये नये वैज्ञानिक आविष्कारों ने प्रकृति को दूषित कर दिया है। नित कल कारखानों से बढ़ने वाले धुओं ने वायु मंडल को विषाक्त कर दिया है। एटम बम के परीक्षणों से जो प्रकृति दूषित हो रही है उसका आभास सभी को मिल रहा है। इस तरह आज संसार में अनीति, अन्याय, पाप, अत्याचार, स्वार्थ, धोखेबाजी, झूठ, छल कपट का बाजार गरम है। हमारा समाज इन बुराइयों से खोखला हो गया है। नैतिकता का अभाव हो गया है। समाज व संस्थाओं की दशा आर्थिक संकट के कारण शोचनीय हो रही है। हर जगह स्वार्थपरता बढ़ती जा रही है। अब रहा शरीर, इस पश्चिमी सभ्यता व शिक्षा ने हमारे रहन सहन को ऐसा कृत्रिम बना दिया है कि हम बिल्कुल लिफाफा बन रहे हैं। आज कोई मनुष्य अपने को पूर्ण स्वस्थ व पूर्ण निरोगी नहीं कह सकता है। हमारे खाने की वस्तुएं दूषित हो गई हैं। हमारे पीने का जल भी दूषित हो गया है। हमारा रहन, सहन सोना जागना सब दूषित हो गया है। शरीर में रोग सदैव घर बनाये हुए हैं। हम दवाओं के भरोसे जी रहे हैं। हम पूर्ण आयु न प्राप्त करके अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं।

ऐसे समय में जबकि तीनों शरीरों का वृहद रूप में विनाश हो रहा है, तब यज्ञ, दान तप की विशेष आवश्यकता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारी गायत्री संस्था कार्य कर रही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: