न मद न दीनता

October 1959

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(डॉ. राम महेन्द्र, एम. ए. पी. एच. डी.)

प्रायः मनुष्य के जीवन में एक ऐसा स्थल आता है, जब उसे यह भ्रम होने लगता है कि उसे अन्यों की अपेक्षा बहुत ज्ञान है, उसकी योग्यताएं दूसरों से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हैं, उसकी बुद्धि सर्वोत्कृष्ट है, वह दूसरों से आगे की बात सोच सकता है। और उसके मुकाबले में दूसरे कुछ नहीं जानते। वह अपने विषय में दम्भपूर्ण अत्युक्तिमय धारणा बना लेता है। अपने निर्णयों को दूसरों से कहीं उत्तम और फलदायक समझता है। यह भ्राँति का एक पहलू है। इस वृत्ति में फंसकर मनुष्य मिथ्या दंभ में डूबा रहता है। उसकी उन्नति रुक जाती है और वह कोई भी नवीन बात नहीं सीखना चाहता। प्रायः यह कह दिया करता है।

“इसमें नई बात क्या है। हम तो पहले से ही इस बात को जानते थे। हमें पहले ही ज्ञात था कि अमुक बात अमुक रीति से होने वाली है। यह क्या, अनेक व्यक्तियों, संख्याओं, घटनाओं के विषय में जानते हैं कि किस प्रकार घटनाक्रम चलने वाला है। हम सर्वज्ञ हैं। संसार किस करवट उठता है, किस करवट बैठता है, यह सब जानते हैं। हमसे क्या छिपा है? हमसे कौन बड़ा, हम सब जानते हैं। उड़ती चिड़िया के पंख गिन सकते हैं।”

यह दंभ की भावना खतरनाक मानसिक भ्रम है। यह एक ऐसा मोहक मद है, जिसमें फंसकर मनुष्य अपनी कीर्ति के नशे में भर जाता है। यह एक मृगमरीचिका है जो उसे अपनी शक्तियों के विषय में दम्भपूर्ण अत्युक्तिमय धारणा से भर देती है। ऐसी भावना में फंसकर मनुष्य की उन्नति रुक जाती है। वह कोई भी नई बात नहीं सीखना चाहता। पुराने तान, संचित अनुभव और शिक्षा पर ही संतोष करता रहता है।

ज्ञान की कोई सीमा नहीं। संसार में इतना बड़ा ज्ञान बिखरा हुआ है, ज्ञान के इतने रूप और विषय हैं, इतने वर्ग हैं कि उसकी कोई मर्यादा नहीं। जो व्यक्ति यह दंभ करता है कि उसे सब कुछ आ गया है और सीखने के लिए कुछ भी अवशेष नहीं रहा है। वह गलती करता है। इस खतरे से यदा बचते रहना चाहिए।

जो व्यक्ति अपने धन का मद करता है, वह भी मूर्खों के स्वर्ग में निवास कर रहा है। संसार में एक से एक धनी कुबेर पड़े हुए हैं। बड़े-बड़े पूँजीपति हैं, मिलों के मालिक हैं, व्यापारी हैं, राजा महाराजा हैं। अतः धन का मद त्याग देना चाहिए।

आपको अपनी शारीरिक शक्ति का घमंड है, पर क्या आपको मालूम है कि इसकी उपयोगिता सत्य, न्याय और मर्यादा की रक्षा में ही है। आप अपनी शक्ति से यदि अन्याय का विरोध करते हैं, तभी उत्तम है।

बुद्धि की, धन व शारीरिक बल की सीमाएं अनन्त हैं। संसार के व्यक्ति निरंतर इस बात का प्रयत्न कर रहे हैं कि इन क्षेत्रों में और आगे बढ़ा जाय, खोजें की जाएं, प्रत्येक क्षेत्र का विकास किया जाय। फिर आप किस बात से दंभ में भूले बैठे हैं। आपकी उन्नति के लिए अनेक क्षेत्रों में अभी बहुत सा कार्य करने को पड़ा हुआ है। अंधकारमय पक्षों पर आपको नया प्रकाश डालना है, भूले हुओं को मार्गदर्शन करना है, जो रुक गये हैं, उन्हें बढ़ाना है। स्वयं अपने अंदर से एक नहीं अनेक त्रुटियों को छाँट छाँट कर निकाल डालना है। प्रत्येक प्रकार का नवीनतम ज्ञान संग्रह करना है। अपने अनुभवों से निष्कर्ष निकालने हैं। दंभ का आनंद क्षणिक है। जब मनुष्य को ज्ञान का विस्तार और दूर दृष्टि प्राप्त होती है, तो उसका दंभ दूर हो जाता है और मिथ्याडम्बर का मायाजाल टूट जाता है।

अपने समय में अत्युक्तिपूर्ण धारणा से बचना पहला खतरा है। जिससे हमें सदा सावधान रहना चाहिए। जिसने महानता प्राप्त की है, उसने सदा विनयशीलता, गुण ग्राहकता और विनम्रता के गुणों को धारण किया है। अपने स्वार्थों को छोड़कर शिष्यत्व की भावना से लाभ उठाया है। महापुरुषों से परिचय प्राप्त कर उनके सत्संग से आगे बढ़े हैं। कहावत भी है ‘ज्यों पलास संग पान के पहुँच राजा हाथ’। महापुरुषों के साथ आगे बढ़ने में मनुष्य की उन्नति के नये क्षेत्र मिलते हैं।

इस संबंध में यह ध्यान रखिए कि झूठा प्रशंसा करने वालों के पंजों में न फंस जाएं। ये लोग हमारे मिथ्या दंभ को अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करके फुला देते हैं। हमारी गलतियाँ हमसे छिप जाती हैं। अज्ञानियों की प्रशंसा के बजाय ज्ञानवानों की झिड़कियाँ लाभदायक हैं, क्योंकि उनकी झिड़की से मनुष्य को अपने दोष का ज्ञान हो जाता है, परंतु बुद्धिहीन दोषों को भी गुण बतलाकर मिथ्या दंभ का प्रोत्साहन देते रहते हैं जो अत्यन्त हानिकारक होता है।

तात्पर्य यह है कि अपने विषय में यदि अनुचित दंभ आ गया है, अति अतिशयोक्तिपूर्ण धारणा जम गई है, तो उसका त्याग कर दीजिए। अभी दुनिया में आपको बहुतों से बढ़ना है, बहुत कुछ ज्ञान, बुद्धि, बल विवेक अर्जित करना है, अनेक क्षेत्रों में विकसित होना है, अतः उन्नति का यह कार्य आज से ही प्रारंभ कर डालना चाहिए।

जिस प्रकार दम्भपूर्ण अत्युक्तिमय धारणा हानिकर है, उसी प्रकार इसकी दूसरी सीमा अर्थात् अपने आपको क्षुद्र या हीन मानना भी खतरनाक है। यह भ्रम का दूसरा पहलू है जिससे सदा बचना चाहिए। अपने आपको तुच्छ समझना एक प्रकार से अपने अंदर निवास करने वाली सत्चित् आनन्द स्वरूपा आत्मा का तिरस्कार करना है। ईश्वर की शक्ति का अनादर करना है। जिस व्यक्ति का संबंध ईश्वरीय शक्ति से हो, वह भला क्यों कर तुच्छ हो सकता है।

हीनत्व की भावना एक बड़ी मानसिक निर्बलता है, उसे मन से निकाल देना चाहिए।

आपके पास धन नहीं है, तो क्या हुआ है? संसार के अनेक बड़े व्यक्तियों के पास कुछ भी नहीं था। फिर भी वे महान् कहलाए। संसार ने उनकी पूजा की, समाज उनके इशारों पर चला। यदि धन की कमी ने आपको हीन बनाया है, तो उसे आज ही छोड़ दीजिए।

यदि आप सदा सुस्त और निराश दिखाई देते हैं, तो गलती कर रहे हैं, कारण इनसे आपकी उत्पादन शक्तियाँ पंगु हो जाती हैं, लाभ कुछ नहीं होता, आपके मालिक या अफसर आपसे परेशान रहते हैं। आपकी बुद्धि आपकी कार्यकुशलता आपकी महत्ता प्रकट नहीं हो पाती।

यदि आप स्वयं अपना तिरस्कार और अपमान ही करेंगे। यदि आप स्वयं को ठोकर मारेंगे, तो दूसरे को ठोकर लगायेंगे और जो कोई भी आयेगा, ठोकर ही मारता आयेगा।

आप यह दृढ़ भावना मन में रखिए कि अनिष्ट, निराशा, भय, आत्मग्लानि और आत्म तिरस्कार की दुर्भावनाएं आपके जीवन पर आरुढ़ नहीं हो सकती। इन सबको भगा देने का आत्मबल प्रचुरता से आप में विद्यमान है। प्रतिकूल विचार और परिस्थितियाँ आपको सत्पथ से डिगा नहीं सकेंगी।

ऊपर लिखी दोनों सीमाओं से बचते रहिए। न अपने विषय में अत्युक्तिपूर्ण दंभ की ही भावना को प्रोत्साहित कीजिए और न तुच्छता की भावना ही आने दीजिए। मध्य मार्ग ही श्रेष्ठ है। जैसा आदर्श समर्थ पुरुषों का होना चाहिए वैसे ही विवेकशील बनिये। उचित न्यायोचित विचारों के अनुकूल ही चलना पुरुषार्थ है।


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