हिन्दू संस्कृति में विवाह का उद्देश्य

October 1959

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(श्री सच्चिदानन्द एम. ए.)

संसार की अन्य जातियों की अपेक्षा हिन्दू जाति की अपनी कुछ विशेषताएं हैं। इसका आधार आध्यात्मिकता है। ऋषि अपनी लंबी खोज के परिणामस्वरूप इस निर्णय पर पहुँचे थे कि मनुष्य जीवन की सच्ची सुख शाँति और आनन्द आध्यात्मिकता में ही है। इसलिए उन्होंने हिन्दू जाति के प्रत्येक क्रियाकलाप, आचार व्यवहार एवं चेष्टा में इस तत्व का विशेष स्थान रखा। यही कारण है कि हमारी छोटी से छोटी क्रिया में भी धर्म का दखल है। हमारा खान पान, मलमूत्र त्याग, सोना उठना आदि सभी शारीरिक मानसिक, बौद्धिक क्रियाएं धर्म द्वारा नियंत्रित की गई हैं ताकि इनको भी हम ठीक ढंग से करें और जैसा करना चाहिए, उससे नीचे न गिरें और मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ सकें। हमारे वेद शास्त्रों का प्रयास इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है। ऊँचे आदर्शों को लेकर चलने के कारण ही संसार की सभी सभ्य जातियों में इसका हमेशा ऊँचा स्थान रहा है। विवाह के संबंध में भी यही बात लागू होती है क्योंकि हिन्दू धर्म में विवाह का उद्देश्य काम वासना की तृप्ति नहीं वरन् मनुष्य जीवन की अपूर्णता को दूर करके पूर्णता की ओर कदम बढ़ाना है। विवाह में प्रयोग आने वाले मंत्र हमें इसी ओर संकेत करते हैं।

यह तो मानना ही पड़ेगा कि सृष्टि की रचना के लिए परमात्मा ने स्त्री और पुरुष में कुछ ऐसे आकर्षण उत्पन्न किये हैं जिससे वह एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। इस सृष्टि का क्रम तो चलना ही है, उनमें वह स्वाभाविक काम प्रवृत्तियाँ तो जागृत होंगी ही और हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार मनुष्य जन्म 84 लाख पशु पक्षी कीट पतंग आदि योनियों के पश्चात प्राप्त होता है, और वह पशु प्रवृत्तियां उसमें रहती ही हैं, इसलिए जिस प्रकार से पशु को स्वच्छन्द छोड़ देने से वह किसी भी खेत में चरता रहता है इसी तरह मनुष्य भी स्वच्छन्दता प्राप्त करके अपनी स्वाभाविक काम वासना को शाँत करने के लिए अनियंत्रित हो जायेगा और स्त्रियों के लिए पुरुष के हृदय में और पुरुष के हृदय में स्त्रियों के लिए अनुचित आकर्षण की भावना जाग उठेगी और अवसर मिलने पर वह अपनी पशु प्रवृत्ति को चरितार्थ करेगा। इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए ही विवाह की व्यवस्था की गई है कि पुरुष एक स्त्री तक सीमित रहे और संसार की अन्य स्त्रियों को पवित्र दृष्टि से देखे। इस प्रकार से विवाह वह पुनीत संस्कार है जिसने मानव को मानव बनाने का कार्य किया है और उसकी पशु प्रवृत्तियों पर नियंत्रण लगा दिये हैं। इसके अभाव में मनुष्य पशु से गया गुजरा होता। न उसकी कोई पत्नी होती न माँ न बहिन न बेटी अपनी काम वासना पूर्ति के लिए वह कुत्तों की तरह लड़ता, झगड़ता और छीना झपटी करता। हिन्दू धर्म के अनुसार होने वाले विवाह में प्रयोग में आने वाले मंत्रों द्वारा कन्या यह कहती है कि-

“तुम कभी पर स्त्री का चिन्तन नहीं करोगे और मैं पति परायण होकर तुम्हारे ही साथ निर्वाह करूंगी। तुम्हारे सिवा अन्य किसी पुरुष को पुरुष ही नहीं समझूँगी।”

उपनिषदों में आता है कि सृष्टि के आरंभ से ही स्त्री धारा व पुरुष धारा-दो धाराएं चलीं। इन दो धाराओं का मिलन ही सृष्टि विस्तार का कारण है। विवाह का वास्तविक उद्देश्य स्त्री धारा को पुरुष धारा में मिलाकर उसे मुक्ति की अधिकारिणी त्रिवेणी बनाना है। विवाह के समय कन्या अग्नि को साक्षी करके कहती है। “आज मैं इस युवक को पति रूप में स्वीकार करती हूँ ताकि पति लोक को पहुँच सकूँ।” युवक एक और मंत्र के द्वारा कहता है “मैं इस देवी को पत्नी के रूप में गृहण करता हूँ ताकि ब्रह्मलोक में पहुँच सकूँ। एक मंत्र में पति लोक का वर्णन है दूसरे में ब्रह्मलोक का। वास्तव में दोनों का एक ही अर्थ है। पति लोक है पतियों का पति ईश्वर। ब्रह्मलोक है वह परमात्मा जिससे बड़ा और कुछ नहीं। हमारी संस्कृति में पति और पत्नी ईश्वर को प्राप्त करने के लिए गृहस्थ में प्रवेश करते हैं। संसार की और कोई भी संस्कृति ऐसा ऊँचा आदर्श उपस्थित नहीं कर सकती। इसीलिए एक विद्वान ने लिखा है कि ‘विशाल मानव जाति की एकता का अनुभव तभी हो सकता है जब व्यक्ति समष्टि के लिए अपने व्यक्तित्व का बलिदान कर दे। इस त्याग को उद्भूत करने की प्रारम्भिक पाठशाला है परिवार और इसका आधार है विवाह प्रथा।’ कन्या अपने घर को छोड़ कर अपना शरीर, मन और आत्मा सब कुछ अपने पति के चरणों में अर्पण कर देती है, उसे ही अपना देवता मानती है। उसकी प्रसन्नता में ही उसकी प्रसन्नता होती है। वह अपने व्यक्तित्व को पति में मिला देती है। एकता अनुभव करती है और पति उसे अपनाकर अपनी वृत्तियों, कामनाओं, इच्छाओं, वासनाओं को नियन्त्रित और संयमित करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है। स्त्री पुरुष की पशु वृत्तियों को अपने तक सीमित कर लेती है। इस तरह उसे पशुता की ओर कदम बढ़ाने से रोकती है। मन गतिशील है। वह निरंतर कार्य करता रहता है। एक तरफ से मुड़कर वह दूसरी ओर लग जाता है। जब उसकी शक्तियों का व्यय इधर से बच जाता है तो वह निर्माण कार्य में लगता है और मनुष्य को श्रेष्ठ मार्ग की ओर अग्रसर करके पूर्णता की ओर बढ़ाता है।

भारतीय संस्कृति में विवाह एक धार्मिक बंधन है। धर्म का नियंत्रण रहने से यह संबंध शिथिल नहीं हो पाते क्योंकि धर्म के प्रति श्रद्धा होने के कारण वह अधर्म करके, पाप कमा कर, नरक भोगों को प्राप्त नहीं करना चाहते। इस तरह से विवाह को धार्मिक कर्तव्य समझते हुए साँसारिक दौड़ में कदम से कदम मिलाकर एक साथ चलते हैं चाहे कभी-कभी आपस में मन मुटाव भी हो जाये। यदि एक दूसरे में अरुचि भी उत्पन्न हो जाए तो भी पर पुरुष या पर स्त्री की ओर आँख उठाकर देखने या ध्यान करने को वह अधर्म और पाप समझते हैं।

विवाह के मधुर संबंध से आत्मभाव का विकास होता है। विवाह द्वारा उसके ममत्व का विस्तार स्त्री तक होता है। फिर बाल बच्चे होने पर उनकी ओर बढ़ता है। इस तरह धीरे-धीरे विस्तार पाता हुआ गली, मुहल्ले, नगर, प्राँत देश और समस्त विश्व में व्याप्त होकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के उच्चतम आदर्श की ओर बढ़ता है। यह उच्चतम आत्म विकास प्रेम की अन्तिम सीढ़ी है और वह अपने परम लक्ष्य को प्राप्त हो जाता है। पुरुष स्त्री की साधना का व्यवहारिक क्षेत्र दाम्पत्य जीवन है। जो इसमें असफल रहे, उसकी साधना अधूरी ही मानी जाती है। यह दोनों के लिए परीक्षा का क्षेत्र है। इसमें तरह तरह के दुख कलह, कठिनाइयाँ आती हैं। एक दूसरे के लिए त्याग के अवसर आते हैं, कभी-कभी प्रतिकूल व्यवहार हो जाता है। इन में सहन शीलता धैर्य, त्याग, क्षमा आदि गुणों को प्रकट करने वाला ही उत्तम साधक माना जाता है।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में विवाह का वास्तविक उद्देश्य काम वासना की तृप्ति नहीं मनुष्य जीवन के परम पुनीत कर्तव्य आध्यात्मिक उन्नति के द्वारा ईश्वर प्राप्ति है जो अन्य जातियों व संस्कृतियों में देखने में नहीं आता।




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