गृहस्थ-जीवन और हमारी मानसिक भावनाओं का विकास

March 1959

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(प्रो. लालजीराम शुक्ल)

अनेक अध्यात्मवादी व्यक्ति गृहस्थ आश्रम को माया मोह बढ़ाने वाला जंजाल मात्र समझते हैं। उनका विचार है कि अगर आत्मोन्नति करना है तो उसके लिये गृह-त्याग करके जप-तप करना आवश्यक है। पर उनकी यह धारणा निराधार है और काल्पनिक विचारों से उत्पन्न हुई है। गृहस्थ-जीवन, विशेषकर संतान उत्पन्न करके उसका यथोचित पालन पोषण करके उसे सुयोग्य नागरिक बना देना केवल एक बड़ी भारी समाज-सेवा ही नहीं है वरन् आत्मोन्नति का भी एक बड़ा साधन है।

वेदशास्त्र का पर्याप्त अध्ययन करने के पश्चात् जब देवर्षि व्यास को मानसिक शान्ति न मिली तो उन्होंने नारद जी से शान्ति के उपार्जन का मार्ग पूछा। नारद जी ने उन्हें बालकृष्ण की उपासना का उपदेश दिया। व्यासजी ने इस उपदेश को मानकर अपने शुष्क शास्त्रीय जीवन को त्यागकर रसमयी बालकृष्ण की भक्ति का जीवन स्वीकार किया। जिसके परिणामस्वरूप ‘श्रीमद्भागवत’ का सृजन हुआ। कृष्ण की बाललीला गा-गा कर न सिर्फ व्यासजी ने ही मानसिक शान्ति प्राप्त की किन्तु करोड़ों नर नारियों ने अपने आपको आनन्दमय बना लिया। आज भी कृष्ण-चरित्र भारत के करोड़ों लोगों के अवर्णनीय सुख का हेतु है।

मनोविज्ञान की दृष्टि से किसी भी बालक की सेवा से वही लाभ होता है जो उत्तम से उत्तम काम करने से होता है। बालक की सेवा परमात्मा की सेवा है। यदि बालक की सेवा कोई निःस्वार्थ भाव से करता है तो वह परमानन्द की प्राप्ति का अधिकारी अपने आपको बनाता है। जो माता-पिता अपनी संतान को अपनी न समझकर सर्वात्मा की समझते हैं, जो अपने को उनका रक्षक मात्र मानते हैं, वे सन्तान को योग्य ही नहीं बनाते किन्तु अपने आप में भी दैवी विभूतियों को जागृत करते हैं, जो मनुष्य को अपने आध्यात्मिक शत्रुओं के विनाश में बड़ी सहायक होती हैं। वे शिक्षक धन्य है जो अपने सभी शिष्यों से अपनी सन्तान जैसा व्यवहार करते हैं। बालकों के प्रति अपना और पराया भाव छोड़कर उनकी सेवा करना वैसा ही उच्चतर कर्म है जैसा कि कठिन से कठिन योगाभ्यास ।

बालकों की सेवा करना सरल कार्य नहीं। विरले ही माता-पिताओं का अपनी सन्तान के प्रति योग्य दृष्टिकोण होता है। अधिकतर माता-पिता सन्तान की सेवा अपने सुख के हेतु करते हैं। बालकों के कल्याण के विषय में वे ध्यान नहीं देते। यह धर्म-बुद्धि नहीं, अधर्म-बुद्धि है। यह बालकों के प्रति प्रेम प्रदर्शन नहीं, अन्याय करना है जिसे हम जानते भी नहीं। यदि हम बालकों का लालन-पालन इसलिये करते हैं कि वे हमको रुपया कमाकर देंगे अथवा हमारा ज्ञान बढ़ावेंगे तो हम उनके प्रति सच्ची भलाई नहीं करते। कितने आमिषाहारी अजापुत्र की नई-नई बेर की कोपलें इसलिये खिलाते हैं कि उसका माँस खाने में स्वादिष्ट लगे। वे बकरे के बच्चे को बड़े परिश्रम के साथ पालते हैं। बच्चा भी जब तक जीता है, बड़ा ही सुखी रहता है किन्तु वास्तव में इस बच्चे को पालने वाले की बुद्धि पालने वाले की नहीं है। बकरी के बच्चे का वास्तविक सुख मीठी पत्तियों के खाने में नहीं है। पालन की बाह्य क्रिया के मूल में मारने की इच्छा है। उसे बच्चे का क्षणिक सुख उसकी मृत्यु में परिणत होता है। सन्तान से लाभ उठाने की इच्छा से उनका लालन-पालन करना ऐसा ही अनर्थमूलक है जैसा कि हत्या की इच्छा से बकरी के बच्चे को पालना। यह बाल-कृष्ण की सेवा नहीं है, यह अपने अहंकाररूपी भेड़िये के लिये खाद्य की तैयारी है।

बालक की सेवा कामवासना पर विजय प्राप्त करने में बड़ी भारी सहायक सिद्ध होती है। जितने ही छोटे बालकों की सेवा की जाय, उतना ही अधिक इस विषय में लाभ होता है। जो विधवायें अथवा अविवाहित स्त्रियाँ अपना जीवन पवित्रता से बिताना चाहती हैं, वे बालकों की सेवा, शिक्षा अथवा लालन- पालन का कार्य अपने ऊपर लेती हैं। बालकों के लालन-पालन से कामवासना भोग का रूप न ग्रहण कर शुद्ध-समाज प्रेम के रूप में प्रकाशित होती है। समाज-प्रेम कामवासना का शोधित रूप है। जो पति-पत्नी कामेच्छा से मुक्त होना चाहते हैं, वे लगन के साथ बालकों की सेवा करते हैं। बालकों की लगन से सेवा करना भोगेच्छा को शिथिल बनाना है।

बालक पति-पत्नी के प्रेम का मूर्तिमान स्वरूप हैं। इस प्रकार परमात्मा की पूजा से भोग की इच्छा रूपी जड़-बुद्धि नष्ट हो जाती है। जब पति-पत्नी एक दूसरे का मिलन अपनी सन्तान में मूर्तिमान होते देखते हैं तब उनके क्षणिक मिलन की इच्छा दूर हो जाती है। अब जड़ आलिंगन की जगह चैतन्य आलिंगन होता है। जड़ आलिंगन शक्ति का विनाशक और मृत्यु कारक होता है और चैतन्य आलिंगन शक्ति का उत्पादक और अमरता का देने वाला है। संतान से माता-पिता को स्थायी सुख का ही लाभ नहीं होता, उन्हें अमरत्व की भी प्राप्ति हो जाती है। जो लोग संतान-निग्रह के उपायों का रतिक्रिया में उपयोग करते है वे वास्तव में दाम्पत्य प्रेम के रहस्य को ही नहीं समझते। वे अपने और दूसरे के प्रति अत्याचार करते हैं। उनकी कामवासना शान्त होने का कोई साधन ही नहीं रहता। उन्हें विषय भोग का क्षणिक सुख प्राप्त होता है, किन्तु उन्हें आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति नहीं होती जो कि सन्तान सेवा से ही प्राप्त हो सकती है। जैसे भोग जड़ता का मूर्त्तिमान रूप है, वैसे ही सेवा आध्यात्मिकता का।

क्रोध की विनाशक मैत्री भावना है। पारिवारिक जीवन मैत्री के अभ्यास का सबसे सुन्दर स्थल है। कौन ऐसा पिता होगा जो अपने पुत्र का कल्याण न चाहता हो ! कौन ऐसी माता होगी जो पुत्र के बिल्कुल निकम्मा होते हुए भी उसका जीना नहीं चाहेगी ! यह मैत्री भावना का अभ्यास मानसिक दृढ़ता लाता है, हमारे नकारात्मक विचारों को नष्ट करता है तथा निराशावाद का उन्मूलन करता है। क्रोध इसके सामने वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य के प्रबल आतप से मेघ ।

बालकों का लालन-पालन घृणा की मानसिक वृत्ति का नाश करता है। प्रत्येक साधारण व्यक्ति अपने शरीर के प्रति प्रेम करता है और दूसरे के प्रति घृणा जिसका अहंकार जितना बड़ा होता है, उसकी घृणा भी उतनी ही बड़ी होती है। घृणा से व्याप्त लोग बाहर से बड़े साफ सुथरे रहते हैं। वे गन्दगी में हाथ डालना पसन्द नहीं करते। इसके विपरीत प्रेम अभिमान का दमन करता है और घृणा से निर्मित मानसिक ग्रन्थियों को खोलकर उनके विष को नष्ट कर देता है। माता प्रेम कर बालक की शारीरिक गन्दगी को साफ करती है, इस कार्य में उसे कोई भी घृणा और ग्लानि नहीं होती। इस काम को करके माता अपने मन को पवित्र बनाती है। जो स्त्रियाँ बाँझ रह जाती हैं, उन्हें इस प्रकार अपने मन को पवित्र बनाने का अवसर नहीं मिलता अथवा जिन स्त्रियों के मन में सन्तान की सेवा की भावना इतनी प्रबल नहीं होती कि उनकी घृणा की भावना को जीत सके, उन्हें प्रकृति सन्तान नहीं प्रदान करती अथवा संतान पैदा होकर उसे जीवित नहीं रहने देती। बाँझ स्त्रियाँ जितनी स्वच्छ दिखाई देती हैं उतनी सन्तान वाली स्त्रियाँ नहीं दिखाई देती। बाँझ स्त्रियाँ दूसरों के चरित्र की आलोचना बड़े चाव के साथ करती हैं। जो बात स्त्रियों के सम्बन्ध में सत्य है वही पुरुषों के विषय में भी सत्य है।

वास्तव में बच्चा एक शक्ति का केन्द्र है। जो बच्चे की सेवा इस भाव से करता है, कि उससे उसे शान्ति और आनन्द मिलता है तथा उसकी मानसिक शक्ति बढ़ती है, उसे अवश्य लाभ होता है। बच्चे के मन में अंतर्द्वंद्व नहीं होता। इसलिए उसकी शक्ति व्यर्थ खर्च नहीं होती। बच्चे के संपर्क में आते ही मनुष्य का मन भी बच्चे के मन जैसा सरल बन जाता है। जिस भाव से हम प्रभावित रहते हैं, उसी भावना को हम चरितार्थ भी करते हैं। बच्चे की सरलता बार-बार मन में लाने से, उसके प्रेम का चित्र बार-बार मन में अंकित करने से हम स्वयं सरल चित्त के हो जाते हैं और हमारा स्वत्व प्रेम से पूर्ण हो जाता है। जहाँ प्रेम है वहीं आनन्द है, वहीं शान्ति और वहीं सच्चा स्वास्थ्य है। प्रेम और परमात्मा एक ही तत्व के दो नाम हैं। प्रेम परमात्मा की शक्ति है। शक्ति और शक्तिमान में नाम का भेद है,तत्व का नहीं।


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