कर्मवाद और भाग्यवाद

March 1959

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(श्री योगेन्द्र ब्रह्मचारी)

हमारे देश में आज जितनी त्रुटियाँ और अभाव दृष्टिगोचर होते हैं उनमें से अधिकाँश का कारण यहाँ की जनता में प्रचलित भाग्यवाद का अंधविश्वास है। कर्म का सिद्धान्त तो हिन्दू धर्म का एक बहुत बड़ा अंग है और इसे भारतीय तत्व-ज्ञान की एक अनुपम खोज माना गया है। जो जैसा करेगा उसे उसका वैसा फल या परिणाम अवश्य ही भोगना पड़ेगा यह धर्म का ही नहीं वरन् नीति और चरित्र का भी बहुत उच्च सिद्धान्त है और जो इसे नहीं मानता वह मानव नहीं दानव या पशु श्रेणी में गिने जाने योग्य है।

पर खेद है कि पिछले कई सौ वर्षों में इस ‘कर्म वाद’ के सिद्धान्त की बहुत अधिक छीछालेदर हुई है तथा अज्ञानी और आलसी लोगों ने, जिनमें हम भीख माँगने वाले साधुवंशधारियों की गणना विशेष रूप से कर सकते हैं, इसे ‘भाग्यवाद’ के रूप में बदल कर पतन का साधन बना दिया है। कहाँ तो ‘कर्मवाद’ यह शिक्षा देता था कि हम जैसा करेंगे वैसा ही अवश्य हमको भोगना पड़ेगा, इसलिये हम सदैव शुभ और उन्नतिकारी कर्म करें; जिससे हमारा भावी जीवन सुखी और कल्याणमय हो। और कहाँ भाग्य का यह रोना कि “दाने-दाने पर मुहर है”-”जो हमारे भाग्य में है वह अवश्य मिल जायगा।” फिर परिश्रम, उद्योग, पुरुषार्थ करने से क्या लाभ? भगवान के भरोसे बैठे रहो वह चींटी से लेकर हाथी तक के खाने-पीने की व्यवस्था करता है, तो क्या हम मानव तन धारियों को, जो सदा उसका नाम लेते रहते हैं, भूखों मर जाने देगा? हरगिज नहीं । हमारे संत महात्मा कह गये है :-

अजगर करै ना चाकरी-पंछी करै ना काम।

दास मलूका कह गये सब के दाता राम ॥

न जाने किस अशुभ घड़ी में ऐसे निकम्मेपन और कायरता के उद्गार जनता के दिमाग में भरे गये थे कि आज समूचा देश नहीं तो कम से कम 90 प्रतिशत भारतवासी तो ‘भाग्यवाद’ के पक्के शिकार हैं। ये बेचारे जीवन-निर्वाह के लिये कोई न कोई धंधा, कारबार अवश्य करते हैं, पर भाग्यवाद के विष के कारण उनके जीवनों में कोई उत्साह या उल्लास नहीं रहता। वे यही विचार करते रहते हैं कि हम चाहे जितनी मेहनत, कोशिश करें मिलेगा हमें उतना ही जितना हमारे भाग्य में लिखा है। यह भयंकर विचार उनके पुरुषार्थ के भाव को कुँठित कर देता है और वे दिन पर दिन अकर्मण्य बनते चले जाते हैं। वे यही सोचते हैं जब हमारा भाग्य ही नहीं बदल सकता तो हमारी कंगाली भी दूर नहीं हो सकती, हमें धन नहीं मिल सकता, हम तरक्की नहीं कर सकते, फिर ज्यादा प्रयत्न ही क्यों किया जाये?

सच पूछा जाये तो यह भाग्यवाद का ढकोसला मानव-समाज का एक बहुत बड़ा कलंक है। यह कैसे पैदा हो गया ? तो इसका उत्तर यही है कि कुछ स्वार्थी और चालाक लोगों ने धर्म की आड़ लेकर इसे फैला दिया। जो लोग चालाकी से अथवा ताकत के द्वारा दूसरे लोगों का स्वत्व अपहरण करके स्वयं मालदार और श्रीमान बनते हैं, अथवा बैठे ठाले तर माल उड़ाते रहते हैं वे लूटे जाने वाले गरीब लोगों को इन्हीं शब्दों से संतोष देते हैं। वे समझते हैं कि यदि हम भाग्य अथवा तकदीर का सहारा नहीं लेते तो इन लोगों में असंतोष का भाव उत्पन्न होगा और वे हमारी लूट अथवा ठगी के विरुद्ध कुछ न कुछ हाथ पैर मारेंगे। इसलिये वे उनको ईश्वर और धर्म के नाम पर भाग्य का ऐसा भूत बनाकर दिखला देते हैं कि वे बेचारे उससे भयभीत हो जाते हैं और अपनी दुर्दशा और हानि को ईश्वरीय विधान समझ कर चुप रह जाते हैं। पर इससे उनमें धीरे-धीरे अकर्मण्यता और उदासीनता की भावना घर करती चली जाती है और उनका जीवन प्रायः नष्ट हो जाता है।

वास्तव में भाग्यवाद सर्वथा निराधार और काल्पनिक चीज है। अगर प्रारब्ध का कोई अर्थ है तो उद्योग उससे कहीं बड़ी चीज है। शास्त्रों में भी स्थान- स्थान पर ऐसे उपाख्यान मिलते हैं जिनसे विदित होता है कि उद्योग द्वारा मनुष्य भाग्य पर निश्चित रूप से विजय प्राप्त कर सकता है। “सावित्री-सत्यवान” की कथा में सत्यवान के भाग्य में युवावस्था में मरना लिखा था, पर सावित्री ने मृत्यु से लड़कर उसे वापस लौटा लिया। यह उदाहरण अगर उद्योग की प्रधानता को नहीं बतलाता तो और क्या प्रकट करता है? भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले संसार में किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकते और उनका जीवन निराशा और शोक करते रहने में ही व्यतीत हो जाता है।

यदि भारतवासी इस ‘भाग्यवाद’ के चक्कर में न फँसकर पुरुषार्थ का सहारा लेते तो आज हमारे देश की रंगत ही कुछ और होती। जब कि धर्म, आध्यात्म, दर्शन के सिद्धान्तों से अपरिचित और ईश्वर की सत्ता का भी ज्ञान न रखने वाले देश उद्योग के सहारे थोड़े से समय में ही उन्नति की चोटी पर पहुँच गये तो हम लोग, जिनकी सभ्यता हजारों वर्ष पहले ही संसार के कोने-कोने में व्याप्त हो चुकी थी और जहाँ के विद्वान संसार भर को शिक्षा देते थे, क्यों न आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी बन जाते? पर इस दूषित भाग्यवाद ने तो हमको एक नम्बर का काहिल और परमुखापेक्षी बना दिया। हम पसीने की कमाई से सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के बजाय भीख के टुकड़ों को अधिक वाँछनीय समझने लगे। उद्योग में विश्वास करने वाले अमरीका, योरोप आदि के गरीब और मजदूर भी हमारे यहाँ के अधिकाँश लोगों की अपेक्षा आराम और सम्मान का जीवन व्यतीत कर रहे हैं और हमारे देश के शिक्षित और उच्च श्रेणी के व्यक्ति भी जन्मकुँडली के ग्रहों तथा देवी देवताओं की कृपा का भरोसा किये समय काटते रहते हैं।

हिन्दू शास्त्रों के मतानुसार मनुष्य में अनन्त शक्ति, असीम उत्साह और अपार सामर्थ्य है और वह पुरुषार्थ द्वारा चाहे जब ईश्वर के समकक्ष पदवी तक प्राप्त कर सकता है। अन्य धर्मों में तो मनुष्य को स्वभावतः पापी बतलाया है और वह सदैव ईश्वर के दण्ड या कृपा का पात्र बना रहता है। पर हिन्दू धर्म में आत्मा को परमात्मा का अंश ही माना गया है जो अपने को पहिचान कर फिर उसी में लीन हो सकता है। ऐसे महान और उद्दात्त सिद्धान्त वाले धर्म के अनुयायी “भाग्य” जैसी निरर्थक और सारहीन धारणा के वशीभूत होकर पतन के गर्त में गिर जायें तो निस्सन्देह यह बड़े ही शोक और लज्जा की बात है। अभी तक लोग उस व्यक्ति को नास्तिक कहते थे जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करता, पर हम कहते हैं कि जो अपने आपके ऊपर विश्वास नहीं करता वह उससे भी बड़ा नास्तिक है। हिन्दू तत्त्वज्ञान और संस्कृति के अनुयायिओं को तो सदैव पुरुषार्थी होकर साहस और अध्यवसाय के साथ आत्मोन्नति के शिखर पर चढ़ने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।


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