सामाजिक सुधार और महापुरुष

March 1959

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(ला. हरदयाल एम. ए.)

महापुरुषों के वाक्य जाति की चिरस्थायी संपत्ति हैं। उनके चरित्र जाति के युवकों के सामने उचित मार्ग पर चलने के लिए उच्च आदर्श पेश करते हैं। उनके विचारों को जीवित रखना जाति का परम कर्तव्य है।

संसार में दो प्रकार के महापुरुष होते हैं। एक वे, जो किसी विचार की धुन में चल पड़ते हैं और उसके प्रचार में मस्त होकर सारे संसार को भूल जाते हैं। जान बूझकर अपने जीवन को संकीर्ण और अपूर्ण बना लेते हैं। उच्च आदर्श के अनुसार उनका जीवन प्रशंसा के योग्य नहीं होता, क्योंकि वे अपनी शारीरिक मानसिक ओर नैतिक शक्तियों को पूर्ण रूप से बढ़ने नहीं देते। वे अपनी मानसिक उन्नति को तुच्छ समझते हैं। शरीर की ओर से तो बिलकुल उदासीन हो जाते हैं। सभा ओर समाज के नियम, सभ्यता पूर्वक बात-चीत करने के ढंग, साँसारिक व्यवहार का अनुभव आदि बातें उनके लिए कोई आदरणीय वस्तु नहीं है। नंगधड़ंग, पागल, उजड्ड तथा असभ्य बन कर संसार से अलग रहकर लोगों के पथ-प्रदर्शक बनते हैं। सदा उन्हें एक ही विचार की लौ लगी रहती है, जिसे वे हर समय हर मनुष्य तक पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। जीवन के दूसरे अंगों के विषय में पूछो तो उन्हें तनिक भी उनका पता नहीं । वे अपनी सम्पूर्ण शक्तियाँ जाति को एक ही मार्ग दिखलाने में खर्च कर देते हैं। जाति बड़ी बन जाती है परन्तु वे स्वयं मनुष्य नहीं रहते कुछ और ही हो जाती हैं। कोई उन्हें पागल कहता है और कोई साधू। आधा संसार उन पर हँसता है और आधा उनकी पदरज को पवित्र समझ कर सिर पर चढ़ाता है।

यह तो उन महापुरुषों का हाल है जो अपना सारा जीवन किसी एक सच्चाई के प्रचार में बिता देते हैं। वे उस ताड़ के वृक्ष की तरह होते हैं जो सीधा जाता है। न उसमें छाया होती है और न फूल। वह केवल आकाश से बातें करता है। उसकी चोटी को देखकर मनुष्य मूर्छित हो गिर पड़ता है। इस प्रकार के महापुरुष सदैव संसार से अलग, नैतिक धुन में लगे रहते हैं। उनसे मिल कर साधारण मनुष्य शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, परन्तु लाभ नहीं उठा सकते। उनको सभा, समाज, उत्सव, विवाह, मेला, त्यौहार इत्यादि का शौक नहीं होता। वे सबके कृपालु और सहायक बन सकते हैं परन्तु किसी के मित्र या लंगोटिया यार नहीं। वे दस आदमियों में बैठकर बातें भी नहीं कर सकते क्योंकि जहाँ जरा किसी बात ने उनके विचारों को एक निश्चित मार्ग से हटाया ओर उनका मन विचलित हुआ।

दूसरे प्रकार के महापुरुष ताड़ के वृक्ष के अनुसार नहीं, वरन् बरगद के वृक्ष के सदृश होते हैं, जिसकी शाखाओं में पक्षी बसेरा करते और जिसकी छाया से पथिक सुख उठाते हैं। जिसकी ओर देखकर दृष्टि आकाश तक नहीं पहुँचती वरन् पत्तों ही रह जाती है। सूरज की चमक से चौंधियाई हुई आँखों को हरियाली से शीतलता प्राप्त होती है। ऐसे महा पुरुष संसार में रहकर और लोगों के सुख और दुख आनन्द ओर शोक में शामिल होकर घरबार के कर्तव्यों को पूरा करते हुए संसार के सामने व्यवहारिक धर्म का नमूना रखते हैं। वे अपने प्राकृतिक भावों को नहीं मारते वे प्रेम के रक्त को नहीं बहाते फिरते। वे मानुषिक विशेषताओं और गुणों को नमस्कार करके विचार की मूर्ति बनने की कोशिश नहीं करते। परन्तु दूसरे भाइयों की तरह जीवन-मार्ग में प्रवेश करके इस प्रकार रहते हैं जैसे पानी में कमल। काम वैसे ही करते हैं, जैसे उनके पड़ोसी, परन्तु उद्देश्य का फर्क होता है। स्वार्थपरता नहीं वरन् परोपकार और कर्तव्य-परायणता उनके जीवन का लक्ष्य होता है।

महापुरुषों के जीवन का लोगों के मन पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है उन्हीं के जीवन को आदर्श मान कर लोग दूसरों के क्लेश और दुःखों को मिटाने और अपनी जिन्दगी में सुधार करने का प्रयत्न करते हैं।

हर महापुरुष के मन में एक बड़ा विचार होता है, जिसको वह व्यावहारिक रूप से संसार के सामने लाने का प्रयत्न करता रहता है। वही उसका धर्म होता है। वही उसके जीवन के चरित्र का प्राण होता है। वही उसके जीवन के चक्र का केन्द्र होता है। वही उसके कामों के मोतियों की माला की लड़ी हो जाती है। उससे बहुत से प्रश्नों का उत्तर मिलता है। उससे उस मनुष्य के कामों का भेद मालूम होता है। जिस प्रकार एक बड़े कारखाने में लोग सारी कलों को देखते हैं परन्तु एञ्जिन, जिसके बल से सारा काम चलता है, नहीं देखते उसी प्रकार जब तक हम किसी महापुरुष के मन तक पहुँचकर उसके बड़े विचार का न समझें तब तक हम उसके जीवन से ठीक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह महापुरुष प्रत्येक समय और प्रत्येक काम में भाग लेने के पहिले इस विचार को प्रत्येक मनुष्य के सामने प्रकट करता रहे। कोई भी महापुरुष ओछे आदमियों की तरह सदैव अपने मन की बातें दूसरों के सन्मुख नहीं करता रहता। अपनी तबियत के सम्पूर्ण अंगों को प्रत्येक भले बुरे मनुष्य को नहीं दिखाता रहता। वह अपने दुःखी मन के भावों को हर समय मित्र और शत्रु के सामने नहीं खोलता रहता ताकि असावधान मित्र उस पर ठट्ठे का नमक छिड़कें और सावधान शत्रु उसे और घायल करें। जो मनुष्य गम्भीर और बुद्धिमान होते हैं वे नीच और अदूरदर्शी मनुष्यों की भाँति अपने विश्वासों को पल-पल में वर्णन नहीं करते, परन्तु उन्हें व्यवहार में लाकर दूसरों को दिखा देते हैं कि तुम भी ऐसा करो।

महापुरुषों का जीवन हम लोगों के लिए उन्नति का मार्ग दिखलाने वाला होता है परन्तु वह हमारी बाढ़ रोकने वाला घेरा; जिसके पार जाना पाप कहा जाता है नहीं बन सकता। कोई महापुरुष नहीं चाहता कि उसके वाक्य और कार्य जातीय जीवन के लिए शृंखला बन जायें, जो युवा पुरुषों को आगे पैर रखने से रोकें। हम अपने महापुरुषों को अपना सहायक नहीं, बल्कि शत्रु बना देंगे, यदि हम सपूत होने के बदले कपूत होने ही को आज्ञापालन का लक्षण समझेंगे। जाति की उन्नति हर समय होती रहेगी। कौन है जो उसको रोक सके? कौन है जो अपने कामों को जातीय प्रवाह की धार रोकने के लिए बाँध बनाना चाहता है? कौन है जो स्वयं इस बात को न माने कि उसने भी समय के साथ नये विचार प्राप्त किये है? यदि कोई मनुष्य ऐसा हैं जो पत्थर के खम्भे की तरह एक ही स्थान पर खड़ा रहा हो और जातीय झुँड दूर निकल गया हो तो वह महापुरुष नहीं, वह कुम्भकरण है। वह “दकियानुसी” समय का एक नमूना है। अजायबघर में रखे जाने के योग्य है। जातीय समाज में आने के योग्य है। जातीय समाज में आने के योग्य नहीं।


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