चाह-चिन्ता और त्याग

March 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री कमल भटनागर)

सामाजिक प्राणियों में कोई भी ऐसा जीव नहीं जिसे किसी प्रकार की कोई चाह न हो। इच्छाएँ अनन्त होती हैं, उनका अन्त होना असम्भव है। एक इच्छा की पूर्ति के उपरान्त तुरन्त ही दूसरी उठ खड़ी होती है। परन्तु चाह दुखों की जड़ है- चिन्ता की अर्धांगिनी है। अधिक से अधिक दुखों का अनुभव तब ही होता है जब इच्छाएँ अत्याधिक बढ़ जाती हैं और पूर्ति न होने से मन में चिन्ताएँ घर कर जाती हैं। इससे शरीर को घुन लग जाता है? अतएव इच्छाओं से दुख का बीज पनपता है और तब तक बढ़ता है जब तक कि उसकी पूर्ति नहीं हो जाती है। वही प्राणी मुक्तात्मा है जिसमें कोई चाह नहीं। चाह का त्याग करते रहने पर वह आनन्द होता है जो स्वर्ग में भी नहीं, फिर किसी भी वस्तु का अभाव नहीं रहता। अतः चाह का त्याग कर वास्तव चाह रहित प्राणी बनना हो तो दूसरों की चाहों की पूर्ति करते जाना चाहिए, पर यह ध्यान रहे कि इससे किसी को दुःख न हो, किसी का अधिकार खंडन न हो।

चाह की पूर्ति के लिए कुछ त्याग करना आवश्यक है। जिसकी चाह है उसके प्राप्त करने में कुछ त्यागना ही पड़ेगा। यदि सुखी रहना है, दुखों से बचना है, तो मोह छोड़ना होगा, लोभ छोड़ना होगा, मान-अभिमान छोड़ना होगा और छोड़ना होगी इस जीवन से अपनत्व की ममता। तब किसी भी वस्तु का वियोग दुखी न कर सकेगा चारों तरफ आनन्द ही आनन्द नजर आएगा।

सुखी होने से पूर्व सुख की लालसा का त्याग करना पड़ेगा क्योंकि सारे दुखों की जड़ सुखों की लालसा ही तो है। सुखों की तृष्णा ही तो मनुष्य को लोभी, मोही, लालची, अभिमानी बना देती है, दुखों बढ़ा देती है। अमुक वस्तु की आपूर्ति ही द्वेष, कलह, वेदना उत्पन्न कर देती है। दुखों को कम करने के लिए, हमें उस वस्तु को त्यागने के लिए पहले से तैयार रहना चाहिए जिसे पाने के लिए हम अत्यधिक बेचैन रहते है, जिसकी कमी हमें व्याकुल बनाए रखती हैं। यदि आपके भीतर यह त्याग की भावना उत्पन्न हो गई तो आपको कभी दुखी होने का अवसर नहीं आयेगा।

तनिक अपने मन में विचार कीजिये कि जिसे सबसे प्रिय समझते है अत्याधिक प्रेम करते हैं अपनी समझते है उसे त्याग भी सकते हैं या नहीं? यदि किसी को अपने व्रत से अधिक प्रेम है तो उसे तैयार रहना चाहिए त्याग ने के लिए भी, फिर उसे दुख न होगा, वियोग-वेदना न होगी। जो कुछ है वह मेरा नहीं ऐसी भावना रख कर संबंध रखना चाहिए। किसी निजी संबंधी से वियोग होते समय हम क्यों रोते बिलखते है? केवल मोह और सुख की आशा के लिए। सुख की लालसा के ही कारण लाभी धन के लिए, अभिमानी, अधिकार के लिए, वीर प्रयुक्त बल के लिए एवं भोगी इन्द्रिय सुख की लालसा के लिए रोते रहते हैं। केवल वही सुखी निर्भय एवं शान्त रह सकता है जिसने सुख की इच्छाओं को त्याग दिया है और प्राप्त सुख को बाँटते रहने का संकल्प कर लिया है। पर ऐसा दान करते समय भी अभिमान रहित रह कर महानता के ज्ञान का परिचय दिया जाना चाहिये। ऐसा महान कार्य कराने के लिए दैवी शक्तियाँ कठिन परीक्षाएँ लेती है। प्रभु जिससे महान कार्य करवाना चाहता है उसे बार बार दुख देकर उसकी दुर्बलताएँ दूर करने के लिए परीक्षाएँ लेता है। सत्यवादी हरिश्चन्द्र, ध्रुव, प्रहलाद, शिवाजी हमारे सामने प्रत्यक्ष प्रमाण है। अतएव महान त्याग के लिये कार्य करने से पहिले कटिबद्ध हो जाओ। तब चाह और इच्छायें आपका किसी प्रकार का अनिष्ट नहीं कर सकती।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles