बुरे विचारों का स्वास्थ्य पर कुप्रभाव

March 1959

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र, पी. एच.डी.)

खरगोन के एक भाई लिखते हैं, “गत वर्ष मैं बीमार पड़ा था। बड़ी कठिनता से ईश्वर की कृपा से बच तो गया, पर तबसे कुछ न कुछ व्याधि दबा ही लेती है। आठ माह की बात है कि पता नहीं किस रोग से एक विद्यार्थी की आकस्मिक मृत्यु हो गई। फिर मैंने समाचार पत्र में एक और मृत्यु का हाल पढ़ा । इससे मेरा दिल थोड़ा घबड़ाने लगा। गर्मी के दिन थे। शाम के पाँच बजे का टाइम था। मैंने सोचा शायद गर्मी के कारण मन घबड़ा रहा है। इसलिए स्नान किया, परन्तु मेरे मन की घबड़ाहट बढ़ती गई। हृदय में धड़कन इतनी बढ़ गई कि मुझे महसूस होने लगा कि मेरा हार्ट फेल होने वाला है। वह घबड़ाहट मैं सहन नहीं कर सका। डॉक्टर बुलाया गया। उन्होंने अच्छी तरह मेरे शरीर की परीक्षा की और अच्छी तरह देख-भालकर निर्णय किया कि मुझे कोई रोग नहीं है; न कोई दिल सम्बन्धी हलचल ही है। परन्तु मुझे शान्ति नहीं हुई। मैंने दूसरे डॉक्टर को बुलवाया; पर उन्होंने भी यही कहा कि मेरे शरीर में कोई रोग नहीं है। हृदय की हलचल दो चार दिन में ठीक हो जायेगी। फिर भी धड़कन न गई। .... इसके कुछ माह बाद मुझे दूसरे नगर में जाने का मौका आया। उन्हीं दिनों मैंने समाचार पत्र में पढ़ा कि एक युवक प्रसिद्ध स्टार बनने जाने के लोभ में रेल में कटकर मर गया। यह पढ़ते ही मुझे महसूस होने लगा कि जैसे मेरा हार्टफेल हुआ जा रहा है। धड़कन बढ़ गई। दवाई उपचार हुआ। फिर सबसे बड़े डॉक्टर को बुलाया तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा हृदय मुझ जैसा ही सुदृढ़ है, निरोग है। तुम अपने मन से डर और मृत्यु के बुरे विचारों को निकालो। मुसीबत यह है कि मैं तो इन बुरे विचारों को छोड़ना चाहता हूँ; पर ये बुरे विचार मुझे नहीं छोड़ते और धीरे-धीरे मौत के मुँह में ले जा रहे हैं।”

वास्तव में अनेक शरीरगत रोगों का कारण हमारा मन होता है। मनुष्य का शरीर उसकी प्रत्येक भावना के प्रतिक्रियात्मक प्रभाव को स्पष्ट करता है। कहा गया है “मूलं नास्ति कुतः शाखा।” अर्थात् जहाँ मूल या जड़ नहीं, उस पौधे की शाखाएँ भी नहीं हो सकतीं। रोग की भूल मन में नहीं है, तो भला उसकी शाखाएँ प्रशाखाएँ कैसे शरीर में पनप सकती हैं।

आप मन में एक विचार ले लीजिए अच्छा या बुरा। फिर चेहरे को दर्पण में देखिए। जैसा विचार होगा, वैसा ही भाव चेहरे और शरीर के द्वारा प्रकट होगा, शरीर क्रियाओं द्वारा अन्दर के भाव को प्रकट करेगा। मन के विचार के साथ शरीर परिवर्तित होता है, खिलता और मुर्झाता है। गुप्त मन में संचित भाव की प्रतिक्रिया शरीर पर चलती ही रहेगी।

कोई मधुर विचार, कोई प्रसन्नता की बात मन में लाइये, फिर दर्पण में चेहरा देखिए । चेहरे पर खुशी प्रकट हो जायगी, जैसे फूल खिल उठा हो। आनन्द, प्रसन्नता, उन्नति और सफलता का एक भी विचार मन लाइये। फिर इनका चमत्कार चेहरे और समूचे शरीर पर देखिए। आप पायेंगे कि वह विकसित हो रहे है। उसके अवयव, रगरेशे खिल रहा हैं, आपको जीवन का रस आ रहा है।

अब किसी बुरे विचार, क्रोध, घृणा, आवेश, वैर, द्वेष को मन में लाइये, आप पायेंगे कि चेहरा उदास हो गया है, या उत्तेजित होकर फड़क रहा है अथवा घृणा से सिकुड़ रहा है, या आवेश से काँप रहा है। इस प्रकार जैसे-2 विचार मन में आते जायेंगे, वैसे वैसे चेहरे के रूप में परिवर्तन होता जायेगा। जब आप चेहरे में एक मामूली भाव रखने से इतना परिवर्तन देखते हैं, तब जर अनुमान कीजिए कि बुरे विचारों से मनुष्य के जटिल शरीर के आन्तरिक अंगों में क्या क्या सूक्ष्म परिवर्तन होते होंगे। स्मरण रखिए, विचार एक बीज की तरह उत्पादक पदार्थ है। जैसे बीज में से अंकुर, डंठल, पत्तियाँ और फल इत्यादि पनपते हैं, वैसे ही एक विचार के साथ अनेक नन्हें नन्हें सूक्ष्म मनोभावों का उत्थान पतन होता जायेगा और उसी की प्रतिक्रियाएँ शरीर में प्रकट हो जायेंगी। खेद की बात है कि आधुनिक अस्पतालों में साधारण बीमारी में शल्य क्रिया तक कर दी जाती है। नाना दवाइयाँ दी जाती हैं, पर रोग और व्याधि के मनोवैज्ञानिक पहलू को बहुत कम चिकित्सक देखते हैं।

श्री शान्तिलाल एन. अमीन ने अपने लेख में लिखा है कि अमेरिकन अस्पतालों में मनोवैज्ञानिक और मानसोपचारक, शस्त्रोपचारक के साथ रहकर अनेक अनावश्यक आपरेशनों से रोगियों को मुक्त -कर देते हैं। न्यूयार्क के एस. डी. ए. अस्पताल के “सयको सेमंटिक मेडिसन” का विशेष विभाग रखा गया है, जहाँ मानसिक रोगी, विक्षिप्त तथा दीर्घकालीन अवधि से चले आ रहे पुराने उदर रोगियों और विक्षिप्तों की एक विशेष प्रकार से चिकित्सा की जाती है। सर्जन की शक्ति और कुशलता की परख इस बात से होती है कि कितने रोगियों को मानसोपचार द्वारा आपरेशन से बचाया गया।

भय, शंका, निराशा, उद्वेग, ईर्ष्या, क्रोध, आवेश आदि वे विषैले विकार हैं, जो अन्दर ही अन्दर शरीर में विषैले रोगों की उत्पत्ति करते हैं। एक तनिक से भय या मानसिक आघात की प्रतिक्रिया शरीर में टूट फूट कर देती है। जो दृढ़ चित्त व्यक्ति होते हैं, वे तो ऐसे आघात आसानी से सह लेते हैं और उसके विषैले प्रभाव से जल्दी छुटकारा पा जाते हैं, पर कमजोर ढुलमुल स्वभाव के व्यक्ति इन आघातों से बुरी तरह विचलित हो जाते हैं। ये आघात उनके स्मृति-पटल पर स्थायी छाप छोड़ जाते हैं और उनकी जटिल और निगूढ़ प्रतिक्रियाएँ दिमाग में निरन्तर हरी रहती हैं। ऊपर जिस मानसिक रोगी का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, उनके मन में एक के बाद एक इस प्रकार के कई कटु भय के मानसिक आघात पड़े हैं; मौत के स्मरण मात्र से वे अस्त व्यस्त हो जाते हैं। बराबर मौत, बीमारी और संसार छोड़कर चलने की भय-मिश्रित मन-स्थिति ने उन्हें हृदय की धड़कन का रोगी बना दिया है। तनिक सी घटना देखते या सुनते ही पुरानी बुरी घटनाएँ अंतर्मन से कूद-कर स्मृति पटल पर आ जाती हैं और दिमाग में जहरीलापन उत्पन्न कर देती हैं। यदि खोज की जाय तो प्रत्येक व्यक्ति के मन में बचपन की या यौवन के प्रारंभ की कोई दुखद घटना मिलेगी, जो उनका पीछा नहीं छोड़ती। घटना का स्मरण ही हृदय की धड़कन का कारण बनता है। बहुत से भय तो मनुष्य के शरीर की आकृति पर स्थायी प्रभाव डाल जाते हैं। आप उनका चेहरा देखकर स्वतः मालूम कर सकते हैं कि ये किसी मानसिक आघात के शिकार हैं ।

बुरे विचार विषैले पदार्थों की तरह हैं। जैसे विजातीय तत्त्व निकल जाने से शरीर में शान्ति मिलती है, उसी प्रकार बुरे विचारों को मन से निकालकर ही मन की शान्ति प्राप्त की जा सकती है और स्वस्थ मानसिक जीवन व्यतीत किया जा सकता है। भय के भी अनेक रूप हैं जैसे निर्धनता का भय, आलोचना का भय, रोग का भय, प्रेम से वंचित होने का भय, बुढ़ापे का भय, मृत्यु का भय। इन सभी प्रकार के भयों से साहसपूर्वक युद्ध करना चाहिए।

रोग का भय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बहुत जल्दी नष्ट करता है। मनुष्य का शरीर सौ वर्ष स्वस्थ और सशक्त रहने के लिए बना है। ग्रामीणों को देखिए। वे रोगों के विषय में कुछ नहीं जानते, तो काल्पनिक रोगों की बाबत सोचते भी नहीं, बीमार भी कम होते हैं। हम तनिक से बीमार होते ही मौत और अति की अनहोनी कुकल्पनाओं में फँस जाते हैं। ये कल्पनाएँ विषैले बीज हैं। अपनी जड़ें जमा लेते हैं। कालान्तर में जिन रोगों से डरते हैं, वे ही शरीर में प्रकट होकर रहते हैं। महामारी, हैजा, सर्प का काटना आदि अनेकों रोगों के हम मिथ्या भय से ही डर कर मरते हैं।

बुरे विचार रखना एक गन्दी आदत है। हीनता की भावना, रोग की कल्पना, पराजय की विचारधारा, नैराश्य, शंका का परित्याग कीजिए। भगवान् कृष्ण ने स्वयं ही मर्म स्पष्ट कर दिया है, “यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति ता दृशी।” मनुष्य अपनी अच्छी या बुरी भावना के अनुसार ही सिद्धि प्राप्त करता है। यदि वह रोग मूलक कुकल्पना में जकड़ा रहा तो समय आयेगा कि वह रोग के चंगुल में पड़ेगा। निर्बल रोगमूलक मनः स्थिति स्वयं रोगों के रूप में प्रकट हो जायगी। अतः बुरे विचारों से सदा दूर रहिए।

अथर्ववेद में कहा गया है “त्वं नो मेघे प्रथमा” अर्थात् सद्बुद्धि ही संसार में सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। जिसने अपनी विचारधारा शुद्ध कर ली है, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। कानों से अच्छे विचार सुनो और श्रेष्ठ विचार ही मन में रखो। अपनी निन्दा या दूसरों की त्रुटियाँ सुनने में समय नष्ट न करो। “मा विदीध्यः” चिन्ता करना व्यर्थ है। चिन्ता में खून सुखाने की अपेक्षा कठिनाई का हल सोचना श्रेष्ठ है।


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