शिवरात्रि का व्रत और उसकी कल्याणकारी शिक्षाएं

March 1959

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(डॉ.चमन लाल)

हिन्दू धर्म में जितने त्यौहार मनाये जाते हैं वे सभी किसी न किसी साँस्कृतिक, ऐतिहासिक या वैज्ञानिक आधार पर प्रचलित किये गये हैं। यह बात दूसरी है कि बहुत अधिक समय बीत जाने और राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने से उनका महत्व हमको पूर्ववत् नहीं जान पड़ता । तो भी यदि हम उनको उचित रीति से मनायें, उनमें उत्पन्न हो गई त्रुटियों को दूर कर दें और उनमें समयानुकूल तत्वों का भी समावेश कर दें तो उनसे अभी बहुत लाभ उठाया जा सकता है। देश की साधारण जनता की उनके ऊपर हार्दिक आस्था है, और इन त्यौहारों और धार्मिक उत्सवों के द्वारा उनको बड़ी कल्याणकारी नैतिक और चारित्रिक शिक्षाएं दी जा सकती हैं। यहाँ पर हम शिवरात्रि के व्रत के सम्बन्ध में कुछ विवेचना करना चाहते हैं, आगामी मास में मनाया जाने वाला है।

शिवरात्रि के व्रत की कथा इस प्रकार हैं कि फाल्गुन कृष्ण 13 के दिन एक बहेलिया को किसी साहूकार ने कर्ज अदा न करने पर गाँव के बाहर एक शिवालय में बन्द कर दिया। वहाँ उसने शिवरात्रि के व्रत की कथा सुनी। फिर कर्ज चुकाने का वायदा करने पर साहूकार ने उसे छोड़ दिया। वह दिन भर का भूखा और थका आजीविका के लिये इधर-उधर शिकार मारने की कोशिश करने लगा पर उस समय कोई जानवर उसे न मिल सका। इस प्रकार लाचारी से उसका दिन भर का व्रत हो गया। जंगल में ही रात हो जाने से वह आत्म रक्षार्थ शिवालय के पास ही एक विल्व-वृक्ष पर बैठ गया। रात के समय कई हिरनियाँ और एक हिरन पानी पीने के लिए उस रास्ते से निकले और उन्हें मारने के लिए उसने अपना धनुष उठाया। पर उनके विनय करने और दूसरे दिन सुबह लौट कर आजाने का वचन देने पर उसने उन्हें छोड़ दिया। इस प्रकार वह रात को भी भूखा ही रह गया। उस दिन व्रत के कारण अनेक गृहस्थी और साधु भी वहाँ शिवजी की पूजा करने को आते रहे और उनकी बातचीत को सुनकर उसे भी शिवरात्रि की महिमा का कुछ बोध हो गया और इससे उनके मन के विकार बहुत कुछ निकल गये। इसलिए जब प्रातःकाल वे सब हिरन हिरनियाँ उसके सामने अपना वचन निभाने को उपस्थित हुये तो उस पर बड़ा प्रभाव पड़ा ओर उसने इस पाप-कर्म को छोड़कर सेवा और परमार्थ में जीवन लगाने का निश्चय कर लिया और आगे चलकर वह एक सच्चा धर्मात्मा बन गया।

यह तो शिवरात्रि के व्रत की स्थूल कथा है। पर इसका सूक्ष्म आशय यह है कि जिसमें यह सारा जगत शयन करता है, जो विकार रहित है वह शिव है। जो सारे जगत को अपने भीतर लीन करे लेते हैं वे ही भगवान शिव हैं। ‘शिव महिम्न स्तोत्र” में एक जगह लिखा है कि -”महासमुद्र रूपी शिवजी एक अखण्ड पर-तत्व हैं। इन्हीं की अनेक विभूतियाँ अनेक नामों से पूजी जाती हैं। यही सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान हैं, यही व्यक्त -अव्यक्त रूप से क्रमशः सगुण ईश्वर और निर्गुण ब्रह्म कहे जाते हैं, तथा यही “परमात्मा” “जगदात्मा” “शंकर” “रुद” आदि नामों से सम्बोधित किये जाते हैं। यह भक्तों को अपनी गोद में रखने वाले “आशुतोष” हैं। यही त्रिविध तापों के शमन करने वाले है तथा यही वेद और प्रणव के उद्गम हैं। इन्हीं को वेदों ने “नेति-नेत” कहा है। साधन पथ में यही ब्रह्मवादियों के ब्रह्म, साँख्य-मतावलम्बियों के पुरुष, तथा योगपथ में आरुढ़ होने वालों की प्रणव की अर्धमात्रा हैं।

जो सुखादि प्रदान करती है वह रात्रि है, क्योंकि दिन भर की थकावट को दूर करके नवजीवन का संचार करने वाली यही है। “ऋग्वेद” के रात्रिसूक्त में इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है, कहा है-”हे रात्रे! अकिष्ट जो तम है वह हमारे पास न आवे।” शास्त्र में रात्रि को नित्य-प्रलय और दिन को नित्य-सृष्टि कहा गया है। एक से अनेक की और कारण से कार्य की और जाना ही सृष्टि है और इसके विपरीत अनेक से एक और कार्य से कारण की ओर जाना प्रलय है। दिन में हमारा मन, प्राण और इन्द्रियाँ हमारे भीतर से बाहर निकल बाहरी प्रपंच सी ओर दौड़ती हैं, और रात्रि में फिर बाहर से भीतर की ओर वापस आकर शिव की ओर प्रवृत्त होती है। इसी से दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय की द्योतक है । समस्त भूतों का अस्तित्व मिटाकर परमात्मा से आत्म समाधान की साधना ही शिव की साधना है। इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ होता है वह रात्रि जो आत्मानन्द प्रदान करने वाली है और जिसका शिव से विशेष सम्बन्ध है। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में यह विशेषता सर्वाधिक पाई जाती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार उस दिन चन्द्रमा सूर्य के निकट होता है। इस कारण उसी समय जीवरूपी चन्द्रमा का परमात्मा रूपी सूर्य के साथ भी योग होता है। अतएव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को की गई साधना से जीवात्मा का शीघ्र विकास होता है।

शिवजी के रूप की एक दूसरी व्याख्या है। वह यह कि जहाँ अन्य समस्त देवता वैभव और अधिकार के अभिलाषी बतलाये गये हैं, वहाँ शिवजी ही एक मात्र ऐसे देवता हैं, जो संपत्ति और वैभव के बजाय त्याग और अकिंचनता को वरण करते हैं। अन्य देवता जहाँ सुन्दर रेशमी वस्त्रों से अलंकृत किये जाते हैं वहाँ शिवजी सदा नंगे, भस्म लपेटे दीनजन के रूप में रहते हैं। इसी त्याग और अपरिग्रह के कारण वे देवताओं में महादेव कहलाते है। इस प्रकार शिवजी का आदर्श हमको शिक्षा देता है कि यदि परमात्मा ने हमको योग्यता और शक्ति दी है तो हम उसका उपयोग शान शौकत दिखलाने के बजाय परोपकार और सेवा के लिए करें। शिवजी का उदाहरण यह भी प्रकट करता है कि जिसे जितनी अधिक शक्ति मिली है उसका उत्तरदायित्व भी उतना ही अधिक होता है। जिस प्रकार समुद्र मंथन के समय हलाहल विष निकलने पर उसे पीने का साहस शिवजी के सिवाय और कोई न कर सका उसी प्रकार हमें भी यदि परमात्मा ने विशेष धन, बल, विद्या आदि प्रदान किये हैं तो उनका उपयोग दीन दुखी और कष्ट ग्रसित लोगों के उपकारार्थ ही करना चाहिए।

एक विदेशी विद्वान ने लिखा है कि ऋग्वेद व अथर्ववेद में शिव के रुद्र रूप को, मंगलमय बतलाया है। समस्त वैदिक साहित्य में उन्हें अग्नि का रूप माना गया है। अग्नि और शिव के नामों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। सारे महाभूतों में अग्नि ही एक ऐसा तत्व है जो भय को सहन नहीं कर सकता । अग्नि का गुण संहार न समझ कर रचना मानना अधिक युक्ति युक्त है। अग्नि के इन दोनों स्वरूपों से मनुष्य की वास्तविकता की भी परीक्षा हो जाती है। यहाँ पर हम यह भी कह देना आवश्यक समझते हैं कि अग्नि का सम्बन्ध गायत्री से भी है और इस महामंत्र में अग्नि की सारी शुभ शक्तियाँ पुँजीभूत हैं।

“गायत्री-मंजरी” में “शिव-पार्वती संवाद” आता है, जिसमें भगवती पूछती है कि “ हे देव! आप किस योग की उपासना करते हैं जिससे आपको परम सिद्धि प्राप्त हुई है?” शिव इस संसार में आदि-योगी थे, योग के सभी भेदों को मालूम कर चुके थे। उन्होंने उत्तर दिया-”गायत्री ही वेदमाता है और पृथ्वी की सबसे पहली और सबसे बड़ी शक्ति है। वह संसार की माता है। गायत्री भूलोक की कामधेनु है। इससे सब कुछ प्राप्त होता है। ज्ञानियों ने योग की सभी क्रियाओं के लिए गायत्री को ही आधार माना है।”

इस प्रकार विदित होता है कि भगवान शंकर हमें गायत्री-योग द्वारा आत्मोत्थान की ओर अग्रसर होने का आदेश देते हैं। पर पिछले कुछ समय से लोग इस तथ्य को भूल गये हैं और उन्होंने भंग पीना तथा बढ़िया पकवान बनाकर खा लेना ही शिवरात्रि के व्रत का साराँश समझ लिया है। मनोरंजन के लिये स्वाँग, तमाशे, गाने के साधन रह गये हैं। अर्थ लोलुप तथा स्वार्थी लोगों ने इन्हीं बाह्य क्रियाओं को सत्य बताकर वैसे ही श्लोक गढ़कर रख दिये जिससे सीधे सादे लोग भ्रम में पड़ गये ।

गायत्री-परिवार का कर्तव्य है कि वह इस महान पर्व को शुद्ध शास्त्रोक्त रीति से मनाकर लोगों को स्व कल्याण का मार्ग दर्शावे। इसके लिए फाल्गुन कृष्ण 13 की रात्रि को ही प्रत्येक शाखा के सदस्यों को अपने ज्ञान-मन्दिर अथवा किसी निकटवर्ती शिवालय पर इकट्ठे होकर शिवजी का कीर्तन करना चाहिए । चौदस को प्रातः 4 बजे से 7 बजे तक गायत्री का जप करें। 7 से 10 तक हवन करना चाहिए । रात्रि में सार्वजनिक सभा की जाय जिसमें धर्मप्रेमियों को बुलाकर शिवरात्रि के महत्व पर प्रवचन किया जाय और लोगों को दुर्व्यसनों के त्याग करने की प्रेरणा दी जाय । यही शिवरात्रि का वास्तविक लाभ है।


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