(श्री शिव प्रकाश)
भारतीय संस्कृति के द्रष्टा, उद्गाता, निर्माता और प्रवर्त्तक भारतीय “ऋषि” रहे हैं, जिन्होंने समाधि के दिव्यतम शिखरों पर स्थित होकर तत्व उपलब्ध किया, देखा, अनुभूति ली और भौतिक जगत की परिस्थिति, स्थान-काल और पात्र यानी मनुष्य की योग्यता, विकास एवं विभिन्न विषयक धारणा-शक्ति के अनुसार इसे स्वरूप प्रदान किया। इसीलिये भारतीय संस्कृति का मूल सदा से आध्यात्म या परमात्मा रहा है। चूँकि भारतीय संस्कृति का मूल भगवान हैं और जिन्होंने इसे देखा-उपलब्ध किया, वे ही दृष्टा-ऋषि हैं, जो परातत्त्व को प्राप्त कर स्वयं भगवान या उनके सदृश गुण-प्रभाव वाले बन गये हैं। उनकी अनुभूति जब विचार, भावना में अवतरित होकर वाणी का स्वरूप धारण करती है तो उसी वाणी को हम वेद-(ज्ञान) शब्द से बोध करते हैं।
ऋषि जब सच्चिदानन्द के उच्च स्तरों से नीचे आकर दुःख, रोग, वासना-पंकिल पापेच्छा-स्वार्थ युक्त कामनाओं से भरी इस सृष्टि को देखते हैं तो अनायास- स्वभावतः ही उन की अन्तरात्मा अभीप्सा करने लगती है कि इस सृष्टि में भी सभी सुखी, आरोग्य, शुभ दृष्टि वाले एवं आनन्द मय बनें। उनकी यही अभीप्सा संसार में फलवती-चरितार्थ हो इसके लिये उन्होंने भिन्न-भिन्न, सद्गुणों का चयन, दुर्गुणों का परित्याग , संयम, नियम, जप, तप, उपासना, दान, उपकार, सत्कर्मों के विधान रचे। पर ये बाह्य कर्म विधानों के रूप- एक ही लक्ष्य स्थान पर जाने वाले विविध पंथों की भाँति कभी एक नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त व्यक्ति यों और समुदायों की मनोवृत्ति तथा रुचि में देश, काल और पात्र के कारण जो भेद रहता है उसके अनुसार भी विभिन्न प्रकार के मार्गों की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिये भिन्न-भिन्न ऋषियों द्वारा एक ही काल-देश एवं पात्र के लिये भिन्न-भिन्न विधान रचे गये। परिस्थिति की परिवर्तित स्थिति के अनुसार उन विधानों के स्वरूपों की विविधता बढ़ती ही गयी, पर लक्ष्य की एकता के कारण इन विविध विधानों को एक दूसरे के विरोध में कभी खड़ा नहीं किया गया। जब कभी मन-बुद्धि की सीमितता, अज्ञानता और खण्डित-अपूर्ण दृष्टि के कारण व्यापक-विस्तृत विरोध हुआ तो उसी समय किसी ऋषि के प्रगटीकरण द्वारा उसे प्रेम, ज्ञान, अनुभूति और सामञ्जस्य से दूर किया गया-समाधान पूर्वक अज्ञान के अन्धकार का नाश हुआ।
भारतीयों की इसी आस्था, श्रद्धा, विरबास एवं निष्ठा के कारण ही भारतीय संस्कृति अनेकों बाह्य रूप परिवर्तनों के बीच बहती हुई भी अपनी अखण्डता- अजस्रता-निरन्तरता संरक्षित रखे रही साथ ही सदा समय-समय पर आवश्यक परिमार्जन होते रहने के कारण कोई कालिमा-कलंक और काई इसमें नहीं लगने पाई और न आज भी उस में कोई धूलिकण और धूमिलता का लवलेश वहाँ टिकने पाय है-भले ही यह कहा जा सकता है कि आज उसके लक्ष्य के अनुसार आचरण करने वालों की संख्या में भारी कभी आ गयी है, पर व्यक्ति रूप से ही नहीं-सामाजिक रूप से भी उसका स्वरूप अव्याहत और अक्षुण्ण रहा है। इसीलिये इस संस्कृति और धर्म को सनातन कहा जाता है।
भारत की आध्यात्मिकता में ही भारतीय संस्कृति का निवास है यही भारतीयता है, इसीलिये ही भारतीय संस्कृति एकमात्र आध्यात्मिक, अति मानसिक- अतिबौद्धिक संस्कृति है। जिस प्रकार परमात्मा सृष्टि के सभी प्राणियों के कल्याण का विधान करता हुआ सृष्टि, रक्षा और संहार करता है-उसी भाँति भारतीय संस्कृति भी सदा सद्गुणों की सृष्टि, उनका संरक्षण एवं कल्याण विरोधी दुष्ट तत्वों के विनाश की व्यवस्था करती है। वस्तुतः यह मानवीय, विश्वव्यापी एवं सर्वलोक हितकारिणी संस्कृति है। जो इसका अपनी अज्ञानता के कारण विरोध करता है, उसका भी कल्याण करने की ही यह संस्कृति सोचती और मार्ग बताती है।
अभी तक मनुष्य ही इस सृष्टि का सर्व-श्रेष्ठ या सर्वाधिक विकसित प्राणी है। इससे इतर सभी प्राणियों की अपेक्षा मनस्तत्व (मन-बुद्धि) का उन्नत विकास इसी में आकर हुआ है। पर मन-बुद्धि का स्वभाव ही है सभी वस्तुओं का विश्लेषण करना सभी को अलग अलग करके देखना, एक दूसरे के विरोध में खड़ा करना, समष्टि रूप से भी अनुकूल और प्रतिकूल की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ बनाना आदि-आदि। यदि इसके द्वारा कहीं संगठन-एकता-मिलन कराये भी जाते हैं तो उसका आन्तर भेद ज्यों-का-त्यों अविचल रखा जाता हैं तो इस का एक श्रेष्ठतर नाम रखा गया है “आत्म स्वातन्त्र्य”। यह वैयक्तिक स्वतन्त्रता का संरक्षण एवं पोषण करते हुए आत्म स्वार्थ (अपने आपके सुख स्वार्थ) में आकर परिणत हो जाता है। यदि यह उदार भाव से अपना विस्तार भी करता है तो कभी अनन्तता- असीम विस्तार की और - जो अध्यात्म दृष्टि की गति है, पग नहीं बढ़ाता, क्योंकि ऐसा करने से उस की भेदवादी वृत्ति नष्ट होती है। भेदवादी दृष्टि को खेना-उसे नष्ट होने जाने दे ने में वह अज्ञानता से अपना ही अस्तित्व विनाश होता हुआ देखता है। अपना अस्तित्व नष्ट होने देना कौन पसन्द करता है? अतः इसी भय के कारण वह विस्तार में जाते हुए कहीं अटक कर अपनी सीमा बना लेता है और इस सीमा से बाहर के व्यक्तियों, समूहों और दलों को यदि अपना विरोधी नहीं तो पराया बना लेता हैं और यही कारण है कि (आत्म चेतना हीन) बुद्धिवादी संस्कृति, चाहे वह सुख, वैभव, ऐश्वर्य, सौंदर्य कला एवं विज्ञान में कितनी ही उन्नति क्यों न प्राप्त कर ले, आध्यात्मिक (भारतीय) संस्कृति की विरोधिनी होती है।
बुद्धिवादी संस्कृति और दर्शन वैयक्तिक सत्ता के विलय (अहं तत्व के विनाश) को सदा भय की दृष्टि से देखते हैं। लगता है कि इसके बिना तो जीवन, जीवन ही नहीं रह सकता। पर भारतीय संस्कृति ने इसी के द्वारा जो खोज पाया है- उपलब्ध किया है, वही इसे अमर बनाता है। व्यक्ति सत्ता को विकसित कर समष्टि रूप होना, मन-बुद्धि के व्यापार को शान्त कर अखण्ड में प्रवेश पाना, भारतीय संस्कृति का भावात्मक आदर्श है। बुद्धि जिसकी कल्पना करने में असमर्थ है, फिर उसकी प्राप्ति करने-कराने की तो बात ही नहीं-इस आदर्श को कोरी भावुकता, कह कर उपेक्षा या मजाक कर सकती है-और इसे असम्भव कह कर मानव जीवन को इसके लिये खपाना व्यर्थ बना सकती है, फिर भी भारतीय संस्कृति उसे भेद कर अपनी दिव्यता समय-समय पर उद्भासित करती रही है।