(स्वामी शिवानन्द जी सरस्वती)
ब्रह्म की सक्रिय अवस्था का नाम ही शक्ति है। जिस प्रकार उष्णता अग्नि से अभिन्न है, उसी प्रकार शक्ति भी ब्रह्म से अभिन्न है। माया, महामाया, मूल प्रकृति, अविद्या, विद्या, महेश्वरी, आदिशक्ति, आदि- माया , पराशक्ति , परमेश्वरी, जगदीश्वरी इत्यादि ‘शक्ति’ के ही पर्यायवाची हैं। नवदुर्गा, काली, अष्टलक्ष्मी, नव शक्ति , देवी आदि एक ‘पराशक्ति ‘ की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली, शक्ति के तीन प्रधान व्यक्त स्वरूप हैं।
जिसे अंगरेजी में ‘नेचर’ कहते हैं वह व्याकृत अथवा व्यक्त ‘प्रकृति’ है। मूल प्रकृति अव्याकृत अथवा अव्यक्त है। यही इस भेद रूप जगत का बीज है। मूल प्रकृति अथवा ‘अव्यक्त ‘ में जड़ तथा चेतन अभिन्न रूप से रहते हैं। अव्यक्त के अन्दर चेतन शक्ति अव्याकृत रूप से ही रहती है। सत, रज, तम के द्वारा शक्ति अपना कार्य करती है। इस स्थूल जगत की सृष्टि के लिये आकाश, वायु, तेज, अप (जल) और पृथ्वी ये पाँच तत्व अथवा पंच महाभूत उसके साधन हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार मिलकर जड़ अथवा अपरा प्रकृति कहलाते हैं। यह निम्न श्रेणी की है, अपवित्र है, खराबी पैदा करती है और स्वयं संसार के लिये बन्धन रूप है। परा-प्रकृति विशुद्ध है। वह स्वयं आत्मा रूप है, क्षेत्रज्ञ है। वही जीवन को धारण करने वाली है। यह समस्त जगत के भीतर प्रवेश करके उसे धारण किये हुये है। इसे चैतन्य प्रकृति भी कहते हैं।
शक्ति ही सब कुछ है। शक्ति के बिना हम न सोच सकते हैं, न बोल सकते हैं, न हिल डुल सकते हैं, न देख सकते हैं न सोच समझ सकते हैं। शक्ति के बिना हम न तो खड़े हो सकते हैं और न चल फिर सकते हैं, फल, नाज, शाक, भाजी, दाल, चीनी आदि सब शक्ति से ही उत्पन्न होते हैं। इन्द्रिय और प्राण भी शक्ति के ही परिणाम हैं। विद्युत शक्ति, आकर्षण शक्ति तथा चिन्तन शक्ति आदि सभी शक्ति के व्यक्त रूप हैं।
समस्त विश्व के अन्दर रहने वाली निर्विकार सत्ता का नाम शिव है। उनकी शक्ति के अनन्त रूप हैं, जिनमें प्रधान हैं चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रियाशक्ति। तत्व छत्तीस माने गये हैं। जब शक्ति चिद् रूप में अपना कार्य करती है तो उस समय निर्विशेष ब्रह्म विशुद्ध अनुभवमय हो जाता है और इसी को शिव तत्व कहते हैं। आनन्द शक्ति के व्यापार से जैसे ही जीवन का संचार होता है वैसे ही ब्रह्म की दूसरी अवस्था हो जाती है जिसे शक्ति तत्व कहते हैं। अपने अभिप्राय को व्यक्त करने की इच्छा से ही तीसरी अवस्था की प्राप्ति होती है। इसके अनन्तर ब्रह्म की ज्ञानावस्था होती है, यह है ईश्वर तत्व जिसमें जगत को उत्पन्न करने की इच्छा और शक्ति रहती है। इसके आगे की अवस्था में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद उत्पन्न हो जाता है। यहाँ से क्रिया का आरम्भ हो जाता है। यही शुद्धि विद्या की अवस्था है। इस प्रकार ये पाँच अलौकिक तत्त्व ‘शिव’ की पंचधा शक्ति के अभिव्यक्त रूप हैं।
शक्ति के उपासक इस जगत को 36 तत्त्वों का बना मानते हैं। जिस प्रकार साँख्य इसे केवल 25 तत्वों से बना स्वीकार करता हैं। साँख्य के पुरुष के ऊपर शक्ति पंच कंचुक अर्थात् पाँच आवरण मानते हैं, जिनके नाम हैं-नियति, काल, राग, विद्या और कला। कला के ऊपर माया, शुद्ध विद्या, ईश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव हैं। इस प्रकार ये पच्चीस तत्वों के अतिरिक्त ग्यारह तत्त्व और स्वीकार करते हैं।
शक्ति की दो अवस्थाएँ होती हैं-शुद्ध साम्यावस्था और वैषम्यावस्था। पहली अवस्था वह है जिसमें तीनों गुण सत्व, रज, तम साम्यावस्था में स्थित रहते हैं। यह अवस्था प्रलय काल में होती है। उस समय असंख्य जीव अपने संस्कारों तथा अधिष्ठाता के साथ अव्यक्त अवस्था में रहते हैं। अधिष्ठाता का अर्थ है कर्म की अदृश्य शक्ति अथवा फल दायिनी शक्ति जो कर्म के भीतर छिपी रहती है।
प्रलय की अवधि समाप्त होने पर साम्यावस्थित शक्ति में स्पन्द अथवा स्फूर्ति होती है और वह इसलिये कि तिरोहित जीवों को अपने अपने कर्मों का फल भोगने की इच्छा होती है। यही वैषम्यावस्था है। अब ब्रह्म सृष्टि को उत्पन्न करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। उनके संकल्प-मात्र से सृष्टि उत्पन्न हो जाती है। साम्यावस्था में रजोगुण शुद्ध और शाँत रहता है। विकास अथवा सृष्टि के समय वह अशुद्ध एवं क्षुब्ध हो जाता है। सृष्टि के समय जब आदि शक्ति के अन्दर क्षोभ होता है तो तीनों गुण, सत्त्व, रज, तम व्यक्त हो जाते हैं। सत्व गुण प्रधान चैतन्य का नाम विष्णु है, जो ब्रह्म की संरक्षिका शक्ति है। रजोगुण प्रधान चैतन्य ब्रह्मा है जो ब्रह्म की उत्पादिका शक्ति है। तमोगुण प्रधान चैतन्य शिव है, जो ब्रह्म की पुनर्निर्माण करने वाली अथवा संहारिका शक्ति है।
जो व्यक्ति शक्ति के इस स्वरूप को समझकर साधन करता है उसे इसके द्वारा शक्ति अथवा ईश्वर प्राप्ति हो सकती है। साधना और अभ्यास पर्यायवाची शब्द है। सिद्धि का अर्थ है शक्ति अथवा पूर्णता की प्राप्ति। साधना का क्रम तब तक चलते रहना चाहिये जब तक साधक सिद्ध न हो जाय। साधक की योग्यता, स्वभाव, रुचि, ज्ञान तथा विकास के भेद-से साधना में भेद होता है। अधिकारी पुरुष की प्रकृति के अनुसार ही साधना में अन्तर पड़ता है। इस प्रकार साधना के चार भेद माने गये हैं। सर्वोपरी भाव ब्रह्म-भाव है जिसमें साधक भावना करता है कि सब कुछ ब्रह्म ही है और जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न है। इसे अद्वैत भाव कहते हैं। इसके उपरान्त ऊँची श्रेणी के योगियों और भक्तों का ध्यान भाव आता है, जिसमें भक्त अथवा योगी अपने शरीर के भिन्न-भिन्न चक्रों में अपने इष्टदेव का ध्यान करता है। इससे नीचे का भाव है जिसमें केवल जप, प्रार्थना और स्तुति आदि से सम्बन्ध रहता है। चौथी अथवा सब से निम्न श्रेणी का भाव वह है जिसमें केवल बाह्य पूजा से ही सम्बन्ध है।
शक्ति अथवा शक्ति का उपासक अपने प्रत्येक मनुष्योचित कर्म को यज्ञ और पूजा का एक पवित्र कार्य बना देता है। खाते पीते, उठते बैठते अथवा अन्य किसी भी शारीरिक क्रिया को करते समय वह कहता ही नहीं अपितु मानता और विश्वास करता है कि उसके द्वारा और उसके अन्दर ‘शक्ति’ ही सब कुछ करा रही है। वह अपने जीवन और उसकी प्रत्येक क्रिया को इस रूप में देखता है, मानो प्रकृति में जो ईश्वर की क्रिया हो रही है उसी का यह भी एक अंग है-’शक्ति’ ही मनुष्य के रूप में व्यक्त होकर यहाँ अपना कार्य कर रही है। इस प्रकार की भावना से प्रेरित होकर कर्म करने से अकर्म की ओर प्रवृत्ति ही नहीं होती और यदि पहले से कोई बुरा अभ्यास होता है तो वह स्वयं जाता रहता है। जो इस प्रकार बनने का प्रयत्न करते हैं, इन्द्रियों को वश में करते हैं, सच्चे हृदय से माता के नाम की रट लगाते हैं, उन पर आदि शक्ति की अवश्य ही कृपा होती है।