मर कर अमर बनिये

March 1959

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(डॉ. उदयभानुजी)

सब नदियाँ समुद्र में जाकर मिलती हैं। समुद्र को जिंदा रखने के लिए अपनी हस्ती मिटा देती हैं। सिपाही अपने राजा को जीवित रखने के लिए, बीज वृक्ष को पैदा करने के लिए अपने अस्तित्व को खोता है। क्यों खोता है? इसका उत्तर हमारे पास नहीं है। हम तो केवल इतना जानते हैं कि इस संसार में यह बात देखी जाती हैं कि एक को जीवित रखने के लिए दूसरे को मिटना या मिटाना पड़ता है।

यदि स्वार्थ के वशीभूत नदियाँ अपना पानी समुद्र को देना बंद कर दें, यदि सिपाही प्राणों का मोह करके राजा के लिए लड़ना छोड़ दें, यदि बीज गलने के डर से अपने को खेत से अलग रखने लगें, तो यह संसार बदल जायेगा। समुद्र सूख जायगा और सब देश जल में डूब जाएंगे, राजा बलहीन हो जायेगा गुंडों का राज्य होगा; खेती न होगी और सब लोग हाय अन्न! हाय अन्न!! कह कर मर जाएँगे। मानो प्रलय हो जायेगा।

अपनी हस्ती को मिटाकर दूसरों को जीवित रखने की भावना हम इस संसार में देखते हैं। जहाँ जीवन है, वहाँ हम यह पाठ भी पढ़ते हैं। जहाँ यह सिद्धाँत काम में नहीं आता वहाँ देखने को मिलती है, मौत! जिस समाज में अपने को मिटाकर उसको जीवित रखने वाले व्यक्ति होते है, वह समाज जीवित रहता है, ओर ऐसे व्यक्तियों के अभाव में समाज मर जाता है, नष्ट हो जाता है।

भारतवर्ष की संस्कृति सब से अच्छी है, और सब से पुरानी है। आप चाहे मानें या न मानें, किन्तु मैं मानता हूँ। मैं इसको मत नहीं, सिद्धाँत मानता हूँ। अच्छी इसलिए मानता हूँ कि इसमें सब व्यक्तियों को निर्भीक बनने और बनाने का आदेश है, प्रचार करने की प्रेरणा है, पशुबल से नहीं, प्रेम से। सब से पुरानी इसलिये मानता हूँ, कि भारत ने अपनी दीक्षा सब लोगों को दी है। जब दूसरे देश अविद्या के अंधकार में पड़े हुए सो रहे थे, उस समय इस तपोभूमि भारत के ऋषि अपनी भौतिक और आध्यात्मिक शक्ति को पूर्ण रूप से विकसित कर चुके थे। किन्तु मुझे उस में सब से अच्छी बात कौन सी नजर आती है? आप कहेंगे- अहिंसा, दान, तप या भजन-पूजन। किन्तु मैं इन को नहीं मानता मेरी अपनी सम्मति में भारत में सब से अच्छी चीज है संसार को उन्नत करने के लिए अपने को मिटा देने की भावना। भारत के ऋषि चाहते थे कि संसार में आर्यत्व फैले। केवल हम ही श्रेष्ठ बने। इस जगत् में अविद्या, गरीबी, पाखंड न रहे। सारा संसार अपनी भौतिक और आत्मिक उन्नति करे। यह हमारी महत्वाकाँक्षा थी और उसे पूरी करने के लिए हम अपने को मिटा देना चाहते थे।

आज सारा संसार दुःखी है। लोग कहा करते थे कि भारत वर्ष में भिन्न भिन्न धर्म है, अनेक जातियाँ है, छुआछूत है। इसलिए लड़ाई होती है। पर आज उस यूरोप को देखो जो अपने विज्ञान पर फूला नहीं समाता था। जहाँ धर्म नाम की चीज ईसा के चन्द मन्दिरों में पड़ी सड़ रही है। शाँति नाम की कोई वस्तु वहाँ नहीं रह गई है। सब लोग भारत से आशा किये बैठे हैं। यह भारत का अध्यात्मवाद ही है, जो उन अशाँत-आत्माओं को प्रशाँत करेगा। पर यह केवल व्याख्यानों के जरिये से न होगा। यह होगा उन लोगों के द्वारा जो मर कर अमर बनना चाहेंगे।

*समाप्त*


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