(श्री शंभूसिंह जी)
किसी भी जाति के त्यौहार और उत्सव वहाँ के इतिहास और परम्परा के परिचायक होते हैं। उनसे उस जाति के ओज, शौर्य और अन्य गुणों का भी अनुमान लगाया जा सकता है। पर आजकल हमारे अधिकाँश देशवासी त्यौहारों के मूल-तत्व को भूलकर उनको प्रायः उल्टे-सीधे ढंग से मनाने लग गये हैं, जिससे लाभ के स्थान पर प्रायः हानि ही होती जान पड़ती है।
समाज में विशेष रूप से चार श्रेणियों के व्यक्ति दिखलाई पड़ा करते हैं। पहले प्रकार के व्यक्ति वे हैं जो अपने स्वार्थ का ध्यान बहुत कम रखते हैं और अपनी शक्ति तथा साधनों का उपयोग संसार के हित के लिये करते हैं। दूसरी श्रेणी के मनुष्यों में शक्ति की अधिकता होती है और वे उस बल का प्रयोग सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों के दमन में करते हैं। तीसरे व्यक्ति वे होते हैं जो ज्ञान और शारीरिक शक्ति का अभाव होते हुये भी आर्थिक दृष्टि से सफल होते हैं। वे कृषि,पशु पालन और व्यापार द्वारा उचित ढंग से धन कमाकर समाज के अनेक अभावों को दूर करने में सहायक बनते हैं। चौथी श्रेणी उन मनुष्यों की होती है जो ज्ञान, बल और धन से रहित होते हुये शारीरिक श्रम से समाज की अत्यन्त उपयोगी सेवा करते हैं। इन चारों प्रकार के मनुष्यों को हम भारतीय समाज के प्राचीन संगठन के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम से पुकार सकते हैं।
ये चारों श्रेणियों के व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज सेवा करते हुये एक दूसरे को सहयोग व सहायता प्रदान करते रहते थे। अपने कर्तव्यों के स्मरणार्थ प्रत्येक श्रेणी का एक-एक त्यौहार भी नियत किया गया था। इनमें से श्रावणी ब्राह्मणों का त्यौहार है जिस पर वे किसी पवित्र जलाशय के तट पर अपने धार्मिक कर्तव्यों का स्मरण करते हुये नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि उस वर्ष द्विजत्व के कर्तव्य के पालन व सद्ज्ञान के प्रचार में दत्तचित्त रहेंगे। दशहरा क्षत्रियों का त्यौहार माना गया था। इस दिन पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बल-पौरुष का अभ्यास कर हथियारों को साफ करके काम के लायक बनाते थे। दिवाली वैश्यों का त्यौहार माना गया था, जिसमें वे अपने आर्थिक कारबार का सिंहावलोकन करके आगामी वर्ष के लिये बजट और योजना पर विचार करते थे। चौथा होली का त्यौहार है जिसमें श्रमजीवी वर्ग की ओर से सेवा और समानता के आदर्श की घोषणा की जाती थी।
वर्तमान समय में यद्यपि सभी त्यौहारों में अनेक दोष घुस गये हैं और उनका आदर्श स्वरूप अधिकांश में लोप हो गया है, परन्तु होली का रूप सबसे अधिक बिगड़ा है। वैसे इस त्यौहार के मनाने की जो प्राचीन परिपाटी प्रतीक रूप में अब भी प्रचलित है उससे स्पष्ट प्रकट होता है कि यह एक विशुद्ध सामूहिक यज्ञ है। इस सम्बन्ध में निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-
(1) एक मास पूर्व शमी की लकड़ी गाढ़कर फाल्गुन सुदी 15 को लकड़ी, कंडे इकट्ठे करके जलाना यज्ञ का ही रूप है।
(2) जलाने से पूर्व आचार्य पंडित द्वारा उसका पूजन होना और गाँव के मुखिया द्वारा पूजन करवाना यह यज्ञ के यजमान बनाये जाने का चिन्ह है।
(3) होली में नारियल के लच्छे लपेट कर डालना यज्ञ की पूर्णाहुति में नारियल चढ़ाने का चिन्ह है।
(4) इसके पूजन में मिठाई गुड़ आदि चढ़ाकर बच्चों में बाँटना यज्ञ में प्रसाद वितरण का लक्षण है।
(5) इसकी लपटों में, अग्नि में हविष्यान्न की बालों को पकाकर खाना भी यज्ञ का ही एक लक्षण है।
(6) होली ही एक ऐसा त्यौहार है जो ऋतु-राज बसंत में आता है। इसी समय सर्दी का अन्त और ग्रीष्म का आगमन होता है। इस समय ऋतु-परिवर्तन से चेचक के रोग का प्रकोप होता है। इस संक्रामक रोग से बचने के लिये पुराने समय में टेसू के फूलों का रंग बनाकर एक दूसरे पर डालने की प्रथा चलाई गई थी और यज्ञ की सामग्री में भी इन्हीं फूलों की अधिकता रखी गई थी जिससे वायु में उपस्थित रोग के कीटाणु नष्ट हो जायें। पर आज उस टेसू के लाभदायक रंग के स्थान पर हानिकारक विदेशी रंगों का प्रयोग किया जाता है और लोग उनके चटकीलेपन को पसन्द भी करते हैं। अब यह प्रथा बहुत विकृत हो गई है और लड़के तथा नवयुवक बुरे-बुरे रंग सर्वथा अनजान और भिन्न समाज वालों पर भी डाल देते हैं जिससे अनेक बार खून-खराबा की नौबत तक आ जाती है और रंग की होली के बजाय खून की होली दिखलाई पड़ने लगती है। यह मूर्खता की पराकाष्ठा है, और ऐसे लोग त्यौहार मनाने की बजाय देश तथा धर्म की हत्या करते हैं।
(7)होली को पूर्वजों ने एक सामूहिक सफाई के त्यौहार के रूप में भी माना था। जैसे दिवाली पर प्रत्येक व्यक्ति निजी घर की लिपाई, पुताई और स्वच्छता करता है, उसी प्रकार होली पर समस्त ग्राम या कस्बे की सफाई का सामूहिक कार्यक्रम रखा जाता था। बसंत ऋतु में जब पेड़ों के पत्ते झड़-झड़ कर चारों ओर फैल जाते हैं, बहुत कुछ कूड़ा कबाड़ भी स्वभावतः इकट्ठा होता है, उस सबकी सफाई होली में कर दी जाती थी। पर अब लोग उस उद्देश्य को भूलकर दूसरों पर कीचड़ और धूल फैंकने को त्यौहार का अंग समझ बैठे हैं। इससे उल्टा लोगों का स्वास्थ्य खराब होता है अनेक बार आँख आदि में चोट भी लग जाती है।
(8) प्राचीन समय में होली प्रेमभाव को बढ़ाने वाला त्यौहार था। अगर वर्ष भर में आपस में कोई झगड़े या मनमुटाव की बात हो गई हो तो इस दिन उसे भुलाकर सब लोग प्रेम से गले मिल लेते थे और पुरानी गलतियों के लिये एक दूसरे को क्षमा करके फिर से मित्र सहयोगी बन जाते थे। अब भी इस दिन एक दूसरे के यहाँ मिलने को जाते हैं, पर प्रायः नशा करके और गाली बककर झगड़ा पैदा कर लेते हैं, जो होली के उद्देश्य के सर्वथा प्रतिकूल है।
वास्तव में होली का त्यौहार हमारे समाज में सबसे अधिक सामूहिकता का परिचायक है और यदि इसे समझदारी के साथ मनाया जाय तो यह हमारे लिये अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार होली के पौराणिक उपाख्यान में बतलाया गया है कि सच्चे भक्त प्रहलाद ने असत्य और अन्याय का प्रतिरोध करके सत्य की रक्षा की थी और उसी की स्मृति में होली के त्यौहार की स्थापना की गई थी, उसी प्रकार हम भी यदि इस वास्तविक उद्देश्य का ध्यान रखकर होली का त्यौहार मनायें तो इस अवसर पर वर्तमान समय में होने वाली अनेक हानियों से बचकर इस त्यौहार को लोक-कल्याण का एक प्रमुख साधन बना सकते हैं।
सामूहिक-यज्ञ विधिः- इस वर्ष होली का त्यौहार फाल्गुन सुदी 15(ता॰ 24 मार्च 1956) को मनाया जायगा। इसके लिये पहले से जो शमी वृक्ष (छोंकरा या खेजड़ी) की लकड़ी गाढ़ने की प्रथा है उसे एक अच्छा लम्बा, चौड़ा और गहरा हवन कुण्ड खोदकर उसके बीच में खड़ा किया जाये। इसके बाद नित्य प्रति या सुविधानुसार सब लोग मिलकर गाँव के बाहर जावें और वहाँ से हवन की समिधाएँ (पलास, आम, पीपल, बड़, गूलर, खैर आदि की लकड़ी) तथा अरने उपले (कंडे) इकट्ठे करें और उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर जमा करते रहें। यदि सब साथ न जा सकें तो अपनी सुविधानुसार थोड़े-थोड़े लोग भिन्न-भिन्न समय भी जा सकते हैं। पर होली से पूर्व एक महीने के भीतर चार बार सबको अवश्य सम्मिलित होकर सामूहिक रूप से समिधाएँ इकट्ठी करने को जाना चाहिये।
(1) सामूहिक रूप से जाने वालों की वेशभूषा एक सी हो और वह यथासंभव बसंती रंग (हलके पीले रंग) की हो। उनके हाथों में कलावा बाँधकर तिलक लगा दिया जाय और साथ में शंख, घंटा, घड़ियाल और कीर्तन के साधन हों।
(2) सबके पास समिधाओं के संग्रह करने के साधन जैसे कुल्हाड़ी, गैंती, हँसिया, टोकरी आदि में से कोई एक वस्तु हो।
(3) गाँव के बाहर जाकर सब गायत्री मंत्र का जप करते हुये हवन के उपयुक्त औषधियों और समिधाओं का संग्रह आरम्भ कर दें। क्या-क्या वस्तु संग्रह करना है यह सब लोगों को पहले ही समझा दिया जाय।
(4) जंगल को जाते समय शंख, घंटा, घड़ियाल बजाते और कीर्तन करते हुये जाना चाहिये। बीच बीच में गायत्री परिवार के नारे और राम, कृष्ण भक्त प्रहलाद आदि के नामों का जय घोष करना चाहिये।
(5) निश्चित समय तक संग्रह करने के पश्चात् शंख बजाकर सब को एकत्रित कर लिया जाये और उन्हें अपने-अपने एकत्रित सामान को व्यवस्थित ढंग से ले चलने को कहकर कीर्तन और जय ध्वनि करते हुये अपने निश्चित स्थान पर आना चाहिये। वहाँ शाँति पाठ करके सबको विदा करना चाहिये। यह सामूहिक कार्य अगर किसी कारणवश अधिक न हो सके तो महीने में एक बार तो अवश्य हो।
(6) गाँव में घर-घर जाकर होलिका-यज्ञ के लिये हविष्यान्न, औषधियाँ, मेवा, गोला, घृत, शक्कर आदि सामग्री में से कोई एक वस्तु लाने की प्रार्थना करनी चाहिये।
(7) होली की निश्चित तिथि व समय पर यज्ञ स्थल पर पहुँचकर कुँड व होली का पूजन आचार्य (पंडित) द्वारा विधिवत् कराना चाहिये।
(8) हवन होने के पश्चात् अपने साथ लाये नारियल, गोला, सुपाड़ी आदि से पूर्णाहुति करनी चाहिए तथा कीर्तन करते हुए 4 परिक्रमा लगानी चाहिए।
(9) इस हवन की उठती हुई ज्वालाओं में अपने-अपने खेत से लाए हुए पके अन्न की बालों को सेंकना चाहिए और सब को प्रसाद रूप में वितरण करके खाना चाहिए। जो अकेला खाता है सो पाप खाता है। अगर व्यक्तियों की संख्या अधिक हो तो एक साथ बहुत सी मिलाकर सेक लें और उनको सबको वितरण कर दें। इस भुने अन्न को खाने से दाँतों को लाभ होता है।
(10) इसके पश्चात् होलिका की भस्म को मस्तक पर लगाकर सत्यव्रत प्रहलाद की तरह ईश्वर की उपासना में दृढ़ रहने का व्रत लेना चाहिए। दूसरे दिन चैत्र मास आरम्भ हो जाता है और होलिका दाह की कल्पना करके प्रतिपदा को स्नान का त्यौहार मानते हैं। इसके लिए केसू (या टेसू) के फूल रात को ही भिगोकर रंग तैयार कर लेना चाहिये। सबको अपने साथ यही रंग लेकर एक स्थान पर इकट्ठा हो प्रेमपूर्वक होली का रंग खेलना चाहिये। मस्तक पर गुलाल, या चन्दन, रोली आदि लगा देना चाहिये। केसू के फूलों का रंग स्वास्थ्य के लिये लाभजनक होता है, इसलिये जहाँ पैदा न होते हों वहाँ के व्यापारियों को बाहर से मँगवाकर देना चाहिये।
रात्रि में प्रवचन :- दोपहर तक रंग आदि खेलने से निवृत्त होकर स्वच्छ पानी से स्नान करके नवीन वस्त्र धारणकर मित्रों से भेंट करना चाहिये। सायंकाल के पश्चात् किसी सार्वजनिक स्थान में सभा की जाय। उसमें किसी माननीय व्यक्ति को सभापति बनाकर होली के महत्व, उसमें उत्पन्न हो गई कुरीतियों तथा आगामी सुधारों के सम्बन्ध में प्रवचन किये जायें। होलिका का उपाख्यान सुनाकर उससे प्राप्त होने वाली शिक्षाओं को समझाया जाय तथा हो सके तो जनता के मनोरंजनार्थ भक्त प्रहलाद का नाटक भी दिखलाया जाये। इस अवसर पर जहाँ जैसी सुविधा हो सुरुचिपूर्ण गायन, भजन, कीर्तन, कवि सम्मेलन आदि का आयोजन भी किया जा सकता है।
भैया दूज :- तीसरे दिन भाई बहिन का त्यौहार होता है जिसमें बहिन अच्छे भोजन बना भाई को खिलाती है और वह उसे कुछ भेंट देता है। यह भी बड़े महत्व का त्यौहार है। वास्तव में ग्राम में उत्पन्न सभी बालक बालिकायें परस्पर भाई-बहिन ही होते हैं। वर्तमान समय में मूर्खता तथा संकीर्णता के कारण यह भावना लुप्त होती जाती है। अब हमको प्रयत्न करके उसे पुनः जागृत करना है। सभी महिलायें हमारी माताएं और बहिनें हैं इसी भावना का प्रतीक यह भैयादूज का त्यौहार है। इसलिये गाँव के सभी बालक बालिकाओं को एक स्थान पर इकट्ठा करके बालिकाओं द्वारा बालकों के तिलक कराना और कलावा बँधवाना चाहिये, तथा बालकों द्वारा उनको कुछ बताशे या अन्य मिठाई प्रसाद के रूप में दिलवाना चाहिये। यह कार्यक्रम प्रति वर्ष होते रहने से आजकल के युवकों की अश्लील भावनाएँ शुद्ध होने लगेंगी तथा हमारे समाज पुनः माता पुत्र और भाई-बहिन की शुद्ध भावना का अधिकतम रूप में प्रचार होने लगेगा।
इस प्रकार होलिकोत्सव मनाने से हम में सामूहिकता की भावना की वृद्धि होगी और वर्तमान समय में इसने जो वीभत्स रूप ग्रहण कर लिया है जिससे अधिकाँश भले लोग इससे नाक भौं सिकोड़ने लगे हैं, उसका भी संशोधन हो जायेगा। इस अवसर पर विधि पूर्वक यज्ञ करने से इस मौसम की बीमारियों से रक्षा होगी, स्वास्थ्य तथा सद्भावना की वृद्धि होगी और फसल में पौष्टिक तत्व बढ़ेंगे। परस्पर के रागद्वेष और मनोमालिन्य के भाव मिटकर परस्पर सहयोग और स्नेह का व्यवहार होने लगेगा। हिन्दू समाज में फैला जात-पात और ऊँच-नीच का भूत शाँत होकर एकता की वृद्धि होगी। इस प्रकार होली का त्यौहार अश्लीलता और कुत्सितता का भंडार होने के स्थान पर हमारे जातीय संगठन को सुदृढ़ बनाने वाला तथा नर नारियों में सद्भावों का विकास करने वाला बन सकेगा।