(प्रो. मोहनलाल वर्मा, एम. ए. एल. एल. बी)
जीवन में प्रगति के हेतु कुशलता की अपेक्षा दृढ़ता अधिक वाञ्छनीय है। यद्यपि चरित्र की श्रेष्ठता किसी ऐसे कारण पर अवलम्बित नहीं समझी जानी चाहिये, तथापि यह परम सत्य है। उचित कार्य करना उसकी मीमाँसा की अपेक्षा उत्तम है, और चाहे हम श्रेष्ठतर बनना चाहें या अधिक सम्पन्न और सुखी होना चाहें, हर दशा में हमारा कार्यक्रम एक ही प्रकार का होना चाहिये। स्वर्ण कार्य ही स्वर्ण-युग निर्माण का एक मात्र साधन है।
जीवन की उपयोगिता केवल नैतिक मूल्यांकन द्वारा ही निर्धारित की जा सकती है। एक बार निश्चय कर लीजिये कि जब आप की अन्तरात्मा किसी कार्य को उचित बतलावे, तो अनिश्चित और अकर्मण्य नहीं रह जायेंगे, बल्कि उस पर अग्रसर होंगे, और समझ लीजिये कि एक मानव को दैवी वरदान की जितनी आशा हो सकती है, उसकी कुँजी उसे प्राप्त हो गई है।
अपने कर्तव्य से बच निकलकर या उसकी अवहेलना करके आप अपने सुख की वृद्धि नहीं कर सकते। बुद्धिमान और सज्जन भीरुता जनित भयों ने नहीं डरते, और जिस और उनका कर्तव्य संकेत करता है विश्वासपूर्वक बढ़ते चले जाते हैं। कर्तव्य के आह्वान, पर परमात्मा में विश्वास रखते हुए वे हजारों खतरों का मुकाबला करते हैं और उन पर विजय पाते हैं।
सच्ची सफलता के लिये केवल एक वस्तु की आवश्यकता है। धन की नहीं, शक्ति की नहीं, कुशलता की नहीं, ख्याति की नहीं, स्वतंत्रता की नहीं, स्वास्थ्य की भी नहीं-अपितु एकमात्र चरित्र की- पूर्ण अनुशासित इच्छा शक्ति की- केवल वही हमारी सच्ची सहायता कर सकती है। और यदि हम इस अर्थ में सफल नहीं हो सके हैं, तो हमारा जीवन निष्फल रहा है।
हमारा जीवन वैसा ही बन जायेगा जैसा हम उसे बनाना चाहेंगे। यह सत्य है कि हम सब कवि, संगीतज्ञ; बड़े कलाकार या वैज्ञानिक नहीं बन सकते, क्योंकि सम्भव है इन क्षेत्रों में दक्ष होने की प्रतिभा हम में न हो। परन्तु हमें उन सद्गुणों का अर्जन अवश्य करना चाहिये, जो हमारी पहुँच में हैं। सद्भावना, गम्भीरता, श्रमशीलता, भोग विलास से घृणा, दानशीलता, स्पष्टवादिता, क्षुद्रता से निवृत्ति, विशाल हृदयता आदि बहुत से सद्गुण जिन्हें हम अपने चरित्र का अंग बना सकते हैं और जिन के विषय में यह बहाना नहीं चल सकता कि इनके लिये हम में स्वाभाविक-प्राकृतिक अयोग्यता है। फिर भी हम जान बूझकर अपने वाँछित स्तर से नीचे रहते हैं।
हमें ऐसा कार्य कदापि न करना चाहिये जिससे हमें लज्जा आये। केवल एक ही ऐसा सच्चा साक्षी है, जिसकी सम्मति हमारे लिये महत्वपूर्ण है और वह हमारी अन्तरात्मा है। एक विदेशी तत्वज्ञानी का मत है कि संतुष्ट अन्तरात्मा अनन्त आनन्द का स्रोत है।
अपने जीवन निर्माण के हेतु सदा ऊपर की और देखो, नीचे को नहीं। जो ऊपर उठना नहीं चाहता, वह नीचे की ओर खिसकता है जो आत्मा उड़ने की हिम्मत नहीं करती, रसातल में गिरती है। खेद का विषय है कि हम लापरवाही से कहते हैं कि प्रसिद्धि या सुयश केवल शब्द मात्र हैं। वस्तुतः इस शब्द में वह जादू है जिससे हमारी स्नायु बलिष्ठ होती हैं, और हमारे हृदय में उष्णता आती है। महान् आत्माओं के जीवन का अनुशीलन युवकों को जाग्रत करता है और वे हाथ उठाकर शपथ लेने को प्रेरित होते हैं कि वे उन्हीं के समान महान कार्य करके अमर ख्याति प्राप्त करेंगे।
परन्तु यह सब होते हुए भी, जीवन की वास्तविकता का ध्यान रखते हुए, साधारण प्रकार की महत्वाकाँक्षायें हमारे ध्यान देने योग्य नहीं हैं, एवं हमारे समय के कतिपय महान् व्यक्तियों के लिये शासन की ओर से दिया हुआ आदर और उपाधियाँ बिल्कुल लाभप्रद नहीं हुई, क्योंकि उनकी महानता उनके उच्च चरित्र और महान् कार्य के कारण थी, ख्याति या प्रशंसा के कारण नहीं।
साधारण महत्वाकाँक्षा का एक बड़ा दोष यह है कि उसकी तृप्ति नहीं होती । पहाड़ की एक चोटी पर चढ़कर अन्य चोटियाँ दृष्टिगोचर होने लगती हैं, और उन्हें पार करने की इच्छा बलवती हो जाती है। उदाहरण स्वरूप नैपोलियन, सिकन्दर आदि महान् विजेताओं की राज्य लोलुपता को तृप्त करना असम्भव था। अनुचित आकाँक्षा के शिकार होने के कारण वे न शान्ति ही पा सके और न कृतज्ञता ही का अनुभव कर सके। प्रगतिशील व्यक्ति का पथ अवरुद्ध हो जाने पर उसको आत्मग्लानि हो जाती है।
स्वार्थमय महत्वाकाँक्षा मृग तृष्णा के समान एक ज्योतिर्मय प्रवञ्चना है। यह एक मनोहर छलावा है, जो प्रतिभावान नवयुवक के हृदय की क्षुद्र खिड़की को खोल कर अन्दर प्रवेश करता है और संकुचित घर की दीवारें दूर होती जाती हैं, यहाँ तक कि वह एक राज प्रासाद बन जाता है। उसकी छत ऊँची उठकर आकाश तक पहुँच जाती है और अदृश उंगलियाँ उसको मूल्यवान चित्रों से सुसज्जित कर उसका नाम स्वर्णाक्षरों में हर जगह अंकित कर देती हैं।
यह सब कुछ प्राप्त हो जाता है, परन्तु प्रेम जो वाञ्छनीय है नहीं मिल पाता और इससे पूर्व कि हम इन पुरस्कारों की प्राप्ति अनुभव कर सकें, मृत्यु हमें चिता में ढकेल देती है।