योग द्वारा आत्मसाक्षात्कार

March 1959

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(श्री गिरिजा सहाय जी)

योग-विद्या भारतवर्ष का एक अति प्राचीन ज्ञान है। योग शास्त्रों और पुराणों में तो इसके आद्य प्रणेता ब्रह्मा अथवा शंकर को बतलाया गया है। पर इतिहास और अन्य प्रमाणों द्वारा भी यह विदित होता है कि योगाभ्यास की कुछ क्रियाओं का प्रचार वैदिक काल के अंतर्गत ही हो गया था। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मा का आत्मलीन होना है। क्योंकि संसार में जो भौतिक पदार्थ पाये जाते हैं वे सब आत्मा की दृष्टि से विजातीय हैं और इस कारण उन दोनों का उपयुक्त ढंग से मेल नहीं हो सकता। योग के द्वारा ही हम सृष्टि और ईश्वरीय लीला के तत्वों का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्तकर सकते हैं और उसके द्वारा चित्त को एकाग्र कर उर्ध्वगति को प्राप्त कर सकते हैं। यही अवस्था संसार में सर्वोपरि है और जीव का अंतिम उद्देश्य भी यही है। जिस व्यक्ति ने योगाभ्यास द्वारा आत्म-साक्षात्कार कर लिया है तो फिर उसे साँसारिक ईति मिति का कोई भय नहीं रहता और न वह कभी पतन के गर्त में गिर सकता है।

योगाभ्यास सर्वप्रधान सिद्धान्त चित्त अथवा मन की पूर्ण एकाग्रता है। यही कारण है कि ‘योगदर्शन’ में सबसे पहले सूत्र में यही बतलाया गया है कि “चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है।” योग विद्या के सर्वप्रधान व्याख्याता महर्षि पातञ्जलि ने न तो विभूतियों को, न सिद्धियों को, न चमत्कारों को योग का प्रधान अंग बतलाया, वरन् चित्तवृत्तियों को सब तरफ से खींचकर किसी भी विषय पर एकाग्र कर सकने की शक्ति को ही समस्त आध्यात्मिक उन्नति का मूलमंत्र मानकर उसी को सिद्ध करने का उपदेश लोगों को दिया। अन्य शास्त्रों ने भी ऐसी सम्मति प्रकट की है। “कठोपनिषद्” ने कहा है-

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।

नशान्तमानसोवापि प्रज्ञाने नैनमाप्नुयात्॥

अर्थात् “जो व्यक्ति पाप से छूट नहीं पाया है, जो इन्द्रियों के वशीभूत है, और जो असमाहित अर्थात् चंचल चित्तवाला है, वह कभी आत्मसाक्षात्कार नहीं पा सकता।”

एक अन्य स्थान में इसी विषय का वर्णन यों किया गया है-

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।

बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहु परमाँ गतिम्॥

ताँ योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम्।

अप्रमतस्तदा भजति योगोहि प्रभवाष्ययौ॥

अर्थात्- “जब मनुष्य की पाँचों इन्द्रियाँ मन के वश में रहती हैं और बुद्धि की चंचलता मिट जाती है, तो इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि की उसी स्थिर अवस्था को आत्मज्ञान प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग मानते हैं और ऐसी ही इन्द्रियों की स्थिरता को वे योग के नाम से पुकारते हैं।”

पर चित्त का स्थिर करना सहज कार्य नहीं है। साधारण मनुष्यों की क्या बात, बड़े-बड़े सन्त, महात्मा, विद्वान, बुद्धिमान भी समय-समय पर मनोवेग की शक्ति के सामने परास्त हो जाते हैं और अकर्म समझते हुये भी कितने ही कार्यों को कर डालते हैं। पौराणिक कथानकों से विदित होता है कि विश्वामित्र, पाराशर जैसे सर्वोच्च श्रेणी के ऋषि भी प्रलोभनों के सामने मन और बुद्धि को स्थिर न रख सके और पतन के गर्त में गिर गये। रावण जैसा विद्वान और विश्वविजेता भी एक नारी के कारण मतिभ्रष्ट हो गया और अपने साम्राज्य के नाश का कारण बन बैठा। इसीलिये योगाभ्यास में इस बात पर बहुत अधिक जोर दिया गया है कि उसका साधन करते समय मन में किसी प्रकार का प्रमोद अथवा भोग लिप्सा उत्पन्न न हो जाय। इस सम्बन्ध में योगाचार्यों का मत है कि चित्तवृत्ति का प्रवाह दो कारणों से होता है- एक वासना अर्थात् भावनामय संस्कार और दूसरा शरीर के भीतर के प्राणों का प्रवाह। प्राण के स्पन्दन से मन में भी स्पन्दन उत्पन्न होता है, इसलिये योगियों ने प्राण की गति को नियमित और वशीभूत करने की विभिन्न विधियाँ निकाली हैं। हठ योग, राजयोग, ध्यानयोग, जप योग, लय योग, भक्ति योग आदि योग की शाखाओं का आविष्कार इसी कारण हुआ है। इन साधन विधियों में बहुत अन्तर दिखलाई पड़ता है, पर प्राण प्रवाह पर नियंत्रण प्राप्त करने का उद्देश्य सब में पाया जाता है। यह बात योग शास्त्र में ही नहीं बतलाई गयी है भगवान मनु ने भी अपनी स्मृति में लिखा है-

दव्ह्मन्ते व्मायमाननाँ धातूनाँ हि यथा भला।

तथान्द्रियाणा दत्ह्मन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥

अर्थात्-”जिस प्रकार धातुओं के मैल आग में तपाकर जला दिए जाते हैं उसी प्रकार इन्द्रियों के सब प्रकार के विकार प्राणवायु के निग्रह द्वारा नष्ट किये जाते हैं।”

प्राण-निरोध का एक अन्य उद्देश्य हमारे शरीर यंत्र पर नियंत्रण प्राप्त करना भी होता है। यद्यपि उच्चकोटि के योगी शरीर को आत्मा से पृथक समझकर उसके सुख दुख को कोई महत्व नहीं देते, पर साधारण श्रेणी के साधकों के शरीर में यदि कोई विशेष दुख या कष्ट हो तो उनका ध्यान अवश्य उस और चला जाता है और चित्त की एकाग्रता में बाधा पड़ जाती है। प्राण-वायु पर नियन्त्रण प्राप्त कर लेने पर प्राण को इच्छानुसार देह के किसी भाग में संचालित किया जा सकता है और उसके द्वारा किसी भी विकार को दूर करना संभव होता है। इस प्रकार अपने शरीर को क्लेश रहित बनाकर योगीजन चित्त को एकाग्र करने में समर्थ होते हैं।

शारीरिक क्लेशों से भी बढ़कर चित्त की चंचलता का कारण साँसारिक वासनायें हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार सभी मनुष्यों के मन में पाये जाते हैं और इनके कारण साधन करते समय भी चित्त वृत्ति में चंचलता उत्पन्न हो जाती हैं। मनुष्य आत्मा का ध्यान करना चाहता है, पर उसका मन बार बार साँसारिक विषयों की ओर खिंच जाता है। इसीलिये योग शास्त्र में सर्वप्रथम यम नियम का विधान किया गया है। अर्थात् जो मनुष्य योगाभ्यास द्वारा आत्म साक्षात्कार का अभिलाषी है उसे सबसे पहले विभिन्न क्रियाओं और अभ्यासों द्वारा अपने शरीर तथा मन की शुद्धि कर लेनी चाहिये। योगी के लिये ब्रह्मचर्य, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह का अभ्यास करना अनिवार्य बतलाया गया है। जब मनुष्य इन व्रतों को ग्रहण कर लेता है तो स्वभावतः उसका ध्यान साँसारिक विषयों की तरफ से हट कर आध्यात्मिक विषयों की ओर आकर्षित होने लगता है। फिर प्राण पर नियन्त्रण हो जाने से मन की लगाम हाथ में आ जाती है और साँसारिक बातों में इधर-उधर भटकते मन को सहज ही वहाँ से खींचकर आत्म-चिन्तन में लगाया जा सकता है। इसी विचार से “योग-वशिष्ठ” में कहा गया है-

दुःसहा राम संसारविषवेग विषूचिका।

योग गारुड मन्त्रेण पावने नोय शाभ्यति॥

अर्थात्-”जिस प्रकार गारुड़ मन्त्र का ज्ञाता विष को दूर कर देता है उसी प्रकार साँसारिक विषयों के विष का शमन योगाभ्यास द्वारा ही किया जा सकता है।”

इसमें सन्देह नहीं कि योग द्वारा तरह-तरह की अलौकिक शक्तियाँ, विभूतियाँ तथा सिद्धियाँ भी प्राप्त हो सकती हैं और होती हैं, पर उनकी ओर ध्यान देना या उनका विशेष महत्व समझना भूल है। जो व्यक्ति योग द्वारा कोई चमत्कारिणी शक्ति प्राप्त करके साँसारिक स्वार्थों को सिद्ध करना चाहते हैं वे वास्तव में बड़े मूर्ख और अधम श्रेणी के व्यक्ति हैं। योग विद्या का एकमात्र उद्देश्य चित्त को मानसिक विषयों से हटाकर आत्मोन्नति में लगाना है जिससे मनुष्य को सच्चे सुख और शाँति की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत जो योग से प्राप्त होने वाली शक्ति को साँसारिक विषयों में लिप्त होने का साधन बनाना चाहते हैं उनको मूर्ख और अधर्म न कहा जाये तो और क्या कहा जाय? ऐसे व्यक्ति योगी कहलाने के बजाय योग-भ्रष्ट कहलाते हैं और उनको किसी प्रकार का लाभ होने के बजाय उलटे नरकगामी बनना पड़ता है। इसलिये हमको भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि योग का वास्तविक उद्देश्य आत्म साक्षात्कार ही है, जिससे मनुष्य स्वार्थ को त्यागकर परमार्थ का जीवन व्यतीत करने में समर्थ हो सकता है।


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