पहले अपना सुधार कीजिये।

February 1959

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(राष्ट्रसन्त श्री तुकड़ोजी महाराज)

खुद समझ लेना ही दूसरों को समझाने का वास्तविक दावा करना हो सकता है। मगर अपना समझना अधूरा होने के कारण, ‘दूसरा’ यह शद्वहीडडडडडडड सामने नहीं आता, बल्कि अपने लिये ही दुनिया है ऐसा हम मान लेते हैं। सच्ची समझदारी तो वही है जो अपने में ही दुनिया को दिखा दे, हम और दुनिया कभी अलग ही न रहें। वास्तव में अपने में ही दुनिया समाती है, जैसे कि दुनिया में हम हैं। यह व्यवहार के तौर पर समझ में आना, उसका प्रात्यक्षिक रूप में अनुभव पा जाना, इसी को हम अनुभव सिद्ध मानते हैं, जिसकी मानवमात्र में कमी है और जिस कमी के कारण ही आज विश्व में अशान्ति फैल चुकी है। इस कमी को दूर करने का क्रम यही है कि ‘मैं मानवमात्र के लिये हूँ और मेरे लिये मानव समाज है। विश्व के लिये मुझे अपने व्यक्तित्व से ठीक बनना जरूरी है, इसे मैं सबसे पहले समझ लूँ।

पूर्णता की सीढ़ी व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठी यही हो सकती है। उसका पहला पाठ व्यष्टि यानी व्यक्ति की उन्नति से ही आरम्भ होता है। अभी हम उस ओर जाना चाहते हैं, समझना चाहते हैं और समझाना चाहते हैं। हमारे अन्दर जो समझाने की कमी है उसी के कारण हम पूरे नहीं बन सके और न किसी को पूरे बना सके।

हमारे साधन तो आज तक हजारों बने। यज्ञ बने, तप बने, जप बने, तीर्थ और धाम बने, धर्म और सम्प्रदाय बने, जाति और वर्ण बल्कि पक्ष और दल भी बने, मगर आजतक साध्य कभी सिद्ध नहीं हो सका। इसका कारण यही है कि प्रचारक का मार्ग साफ नहीं रहा, समझदारी का रास्ता अपने ही में मुड़ गया-आगे नहीं बढ़ा, और जब कभी सन्तों से खुल भी गया तो उनके सहकारियों साम्प्रदायिकता का जाल फैलाकर उसे बन्द कर दिया।

हम उसी को खोल देना चाहते हैं। हम यह प्रकाश देने की कोशिश करते हैं कि जप तप का रास्ता है संयम रखने का, यज्ञ का रास्ता है त्याग सीखने का, विश्व का रास्ता है मानवता की पूर्णता प्राप्त करने का और गुरु का रास्ता है व्यक्ति को विश्व में ठीक ढंग से चलाने का, जो कहीं किसी से टकराये नहीं। व्यक्ति को सीधा, चरित्रवान, त्याग-ब्रह्मचर्य सम्पन्न बनाकर करोड़ों के समूह से टकराने से बचाये बल्कि उसका मददगार बनाये, इसी रास्ते को हम विश्वशान्ति-प्रचार द्वारा झाड़बुहारकर ठीक करना चाहते हैं, जनजागृति द्वारा खोल देना चाहते हैं। हमारी विशालता-व्यापकता-में कोई कठिनाई नहीं रह सकती, अगर यह योजना ठीक तौर से फैलायी जा सके।

इसका साधन हमने यह निश्चित कर लिया है कि कुछ व्यक्ति ऐसे बनाये जायँ जो खुद की सेवा से खुद तैयार बनें और दूसरों को तैयार करने का निश्चय कर बाहर निकलें तथा चारों ओर फैलकर जनता को उसके खाली समय से लाभ उठाकर जागृत करें। जनता में प्रेम, भक्ति, कर्तव्यपालन तथा समाजशास्त्र का ज्ञान पैदा करें और जनता को तैयार करना ही अपना धन, मन व तन समझें। हर पच्चीस गाँवों में एक व्यक्ति भी ऐसा निश्चय करे तो पाँच लाख देहातों में यह जागृति की लहर फौरन पहुँच सकती है। जनता पर ही पलते रहें और जनता को ही जागृत कर उसे ‘पूर्ण’ बनाने का दावा करें, इस कार्य के लिये ही यह ‘विश्वशान्ति सेवा प्रचार और जन-जागृति’ की योजना बनायी गयी है।

हम चाहते हैं कि आज के मानव को विशाल बनाने की दृष्टि देने वाली पाठशालाएं खुलें, वर्ग बनें। उन्हें इसका प्रात्यक्षिक दिखाया जाय, सक्रिय-पाठ दिया जाय और चारों ओर ऐसे प्रचारकों को भेजते हुए एक नया वायुमण्डल निर्माण किया जाय। पिछड़ों को आगे लाना, संकट में सहयोग देना, मिल जुलकर रहना सीखना ये बातें सबसे पहले आवश्यक हैं। धोखा में न पड़ सकें ऐसी सावधानी का ज्ञान हृदय परिवर्तन द्वारा मानव को देना यही हमारा दृष्टिकोण है। इन सब बातों के जरिये आज हम एक नया आदमी बनाना चाहते हैं, जो किसी की जात−पांत, किसी के धर्म या देश आदि में बाधा न बनते हुए सीधे कर्त्तव्यपथ का पथिक बने। मनुष्य को मनुष्य से टकरा देने वाली जितनी भी बातें हैं उन सबको साफ करते रहना और मनुष्यता बढ़ाने वाली बातों का प्रचार करना-ऐसी बातों को प्रतिष्ठा और प्रोत्साहन देना यह कार्य नई दुनिया की बुनियाद है।

ये सब बातों समझदारी के साथ ही बढ़ती रहेंगी और साथ ही मानव समाज भी अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता जायगा। एक एक व्यक्ति द्वारा अनेक लोग समझदारी के रास्ते पर आगे बढ़ते जायेंगे और एक दिन ऐसा होगा कि जिस वक्त कोई भी अनजान नहीं दिखाई देगा। फिर दण्ड और शासन की ही क्या जरूरत? सत्ता क्यों? और सत्ता ही नहीं तो राजा कहाँ और राज्य कहाँ? जब पूरी आजादी है तब फिर मोक्ष का भी बन्धन क्यों? हम सब पूर्ण हैं, पूर्ण होंगे, पूर्ण ही बनकर रहेंगे। इसका अनुभवपूर्ण प्रचार ही ‘विश्वशान्ति सेवा प्रचार’ का कार्य होगा। एक-एक व्यक्ति से लेकर अखिल विश्व की जागृति ही ‘जनजागृति’ कहलायेगी।


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