सत्य को प्रमाणों की आवश्यकता नहीं।

February 1959

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(स्वामी रामतीर्थ)

यदि सूर्य बम्बई के आम के वृक्षों से कहने लगे कि मैंने अपना जो प्रकाश और उष्णता हिमालय के गन्धतरु और देवदार के वृक्षों को दी है वह मैं तुम्हें नहीं दूँगा और तुम्हें चाहिये कि जो शक्ति और कृपा मैंने उन पहाड़ी वृक्षों पर प्रकट की है उसी से तुम भी फूलते-फलते और बढ़ते रहो, तब तो वे आम के वृक्ष थोड़े ही काल में अन्तर ध्यान हो जायेंगे। वाटिका में उगे हुये सेब के फलों पर पड़े हुये सूर्य-प्रकाश से तालाबों के कमल जीवित नहीं रह सकते। बुद्ध, ईसा अथवा मुहम्मद को आत्मा का जो साक्षात्कार हुआ उससे शेक्सपियर, न्यूटन अथवा स्पेन्सर को शान्ति नहीं मिल सकती थी, इसलिये हमको अपने प्रश्न यथासम्भव स्वयं ही हल करने चाहिये और पुरातन काल के माननीय विद्वानों तथा दार्शनिकों की दृष्टि से देखते रहने की अपेक्षा स्वयं अपनी आँखों से देखना चाहिये।

प्रत्येक स्मृति में यह शब्द मिलते हैं कि “पूर्व काल के ऋषियों का ऐसा मत था, परन्तु उसके विषय में आज तुम्हारा क्या विचार है?” प्रत्येक संस्था एक सिक्का है जिस पर हम अपनी ही मुहर, छाप लगाते हैं? कुछ काल में वह सिक्का घिस जाता है, उसके अंक मिट जाते हैं और वह पहिचाना नहीं जाता। तब उसे पुनः टकसाल में ले जाकर नये सिरे से बनाना आवश्यक होता है। प्रकृति को इस बात में आनन्द आता है कि वह अपने कंकड़ों को (अर्थात् साँसारिक पदार्थों को) बनाती है, बिगाड़ती है और फिर नया आकार देती है। अपरिवर्तनशील परिवर्तन का नियम ही जीवन की मुख्य आवश्यकता है (अर्थात् हेर-फेर ही जीवन की आवश्यक कुँजी है और इस हेर-फेर के नियम में कभी हेर-फेर नहीं होता अर्थात् यह एक अपरिवर्तनशील प्राकृतिक नियम है।)

ऐसे मनुष्य की अवस्था सबसे अधिक करुणा-जनक समझी जानी चाहिये जिसका भविष्यकाल उसके पीछे हो और जिसका भूतकाल सर्वदा उसके सम्मुख रहता हो। महानुभाव शंकराचार्य ने निःसंदेह एक बहुत बड़े प्रकाश (अनुभव) को प्राप्त किया, पर उन्होंने उसे डलिया के नीचे ढाँककर रख दिया। जब उन्हें स्वानुभव से ‘सत्य’ का दर्शन हुआ था तो क्या आवश्यकता थी, कि उन्होंने पुराने प्रमाणों को तोड़-मरोड़ कर उनके द्वारा अपने सत्य-सिद्धान्तों की पुष्टि का प्रयत्न किया? क्या स्वानुभव से बढ़कर विश्वसनीय और कोई प्रमाण हो सकता है? इसका एक हानिकारक परिणाम यह हुआ कि उनके पश्चात् जो अन्य महापुरुष आये (रामानुज, माधव इत्यादि) उन्होंने भी उन्हीं प्राचीन ग्रंथों के शब्दों से अपने मत के अनुकूल अर्थ जबर्दस्ती निकाले। इन सब महापुरुषों का प्रयत्न सदिच्छापूर्ण था, तो भी उससे सत्य की गति प्रबल होने के बदले उलटी शिथिल हो गई। स्पष्ट शब्दों में इसका अर्थ यह है कि भारत के वर्तमान दुःखों का कारण हमारा सृष्टिकर्म विरुद्ध अथवा प्रकृति विरुद्ध) आचरण ही है। हमने जीवित आत्मा को मृत-युग की बातों का दास बना दिया और इसी से हमारी ऐसी बुरी हालत हुई। श्रुति-माता की ऐसी दुर्दशा हुई कि एक पुत्र उसको अपनी बतला कर उसके केशों को अपनी तरफ खींचता है, दूसरा दूसरी तरफ खींचता है, तीसरा उसकी चोटी पकड़कर तीसरी ही ओर खींच रहा है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति या सम्प्रदाय श्रुति के नाम से अपने मनोनुकूल मत का प्रचार करना चाहता है और इस सबका परिणाम यह होता है कि ‘सत्यता’ भ्रष्ट होती है। हे प्राचीन भारत के ऋषियों और आचार्यों! क्या तुम्हारे वंशज इस अधोगति को पहुँच गये हैं कि वे अपनी वर्तमान आवश्यकताओं और आजकल की परिस्थितियों से उत्पन्न प्रश्नों का स्वयं अपनी बुद्धि से निर्णय करने में भी असमर्थ हैं, और उसके लिये उन ग्रंथों का सहारा लेना चाहते हैं जिनकी भाषा को वे भली प्रकार समझ भी नहीं सकते और इस लिये उनके मनमाने तथा परस्पर विरोधी अर्थ निकाल कर आपस में सिर फोड़ते रहते हैं।

प्रियवरो! नियम और संस्थाएं मनुष्य के लिये हैं। मनुष्य नियमों और संस्थाओं के लिये नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भाष्य (टीका और व्याख्या) के जरिये भूत और भविष्य का मिलान होता है। यह विचार निःसन्देह बड़ा उत्तम है और बड़ी उत्तम रीति से वर्णन किया गया है। परन्तु पुरानी गुदड़ी में हम बहुत अधिक थिगड़ी और पैबंद लगा चुके हैं। सत्य को पैबन्दों की जरूरत नहीं है। सम्पूर्ण पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करे, परन्तु सूर्य को पृथ्वी की परिक्रमा करने की आवश्यकता नहीं है। भूत और भविष्य का मेल जोल बनाये रखने के अभिप्राय से तत्त्वज्ञान (दर्शन-शास्त्र) के आधुनिक आविष्कारों को किसी भी धर्म या मजहब के प्राचीन ग्रंथों के साथ लटकाने की क्या आवश्यकता है? ईश्वर प्रणीत धर्म ग्रंथों को स्वतः बोलना चाहिये। जिसे हम सदा परम पिता के नाम से याद करते हैं उस ईश्वर में क्या इतनी सभ्यता और सज्जनता भी नहीं कि अपने आदेशों को हमें स्पष्ट शब्दों में समझाने की कृपा करे। वह कभी यह नहीं चाहेगा कि उसकी बातों को समझने के लिये लोग सहस्रों वर्ष तक भ्रम में गोते खाते रहें, और जब तक कोई स्वयं-मान्य शिष्य (एपाँसिल या टीकाकार) आकर उनका अर्थ न बतावे तब तक समझे ही नहीं। और यह टीकाकार बहुधा ऐसे होते हैं जो पक्षपात रहित होने का दावा करते हैं, पर व्यवहार में दाँव-पेंच से भरे हुये वकील होते हैं। पर क्या किसी प्रमाण से सत्य स्थापित हो सकता है? क्या सूर्य को दिखाने के लिये दीपक की आवश्यकता है? क्या गणित शास्त्र के किसी सिद्धान्त की इससे अधिक पुष्टि हो जाती है कि प्राचीन पैगम्बर या ऋषि-मुनि उसकी साक्षी दें? रसायन शास्त्र के तत्वों का अनुभव हमको प्रत्यक्ष प्रयोगों से होता है। इनका विश्वास मात्र मस्तिष्क में भर देना तो मानो बुद्धि का संहार कर देना है। प्राचीन काल के किसी इतिहास या विशेष वृत्तांत को और त्रिकाल-बाधित सत्य को एक बराबर समझना बड़ी भूल है। किसी विशेष वृत्तांत को हम किसी दूसरे के कहने से अर्थात् ग्रंथ प्रमाण से मान सकते हैं, परन्तु सत्य तो स्वतः अनुभव से मालूम होना चाहिये। क्या वेदान्त के सिद्धान्त को वाद विवाद और प्रमाणों से सिद्ध करने की आवश्यकता है? वेदान्त को योग्य रूप में वर्णन करना ही अखण्डनीय प्रमाण है। सौंदर्य को आकर्षित बनाने के लिये किसी बाहरी सिफारिश (गुण-प्रशंसा) की आवश्यकता नहीं है। (नहिं कस्तूरिका मोदः शपथेन प्रकाश्यते।)

प्रिय भाषण करके, अज्ञान रूपी निद्रा को बनाये रखने के लिये लोरियाँ गाकर, और जन समूह अथवा अज्ञानी मनुष्यों की लल्लो पत्तो करके अगणित अनुयाइयों की मंडली जमा कर लेना कोई कठिन काम नहीं है। परन्तु सत्य ही चिरस्थाई है और शेष जितने चराचर पदार्थ हैं वे मिथ्या हैं। जो मनुष्य केवल दृश्यों को ही देखकर सत्य का संहार करता है उसे धिक्कार है। सत्य को स्वयं अपनी इच्छा से विकसित होने दो। सत्य रूपी सूर्य को यह भलीभाँति विदित है कि उसका उदय किस प्रकार होना चाहिये। घोर निद्रा में सोये हुये लोगों को जगाने के लिये सत्य को घनघोर गर्जना करने दो। मैं सत्य हूँ, मैं देह (रूप) की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये आत्मघात करने को कभी भी तैयार नहीं हूँ।


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