(कुँवर नरेन्द्रसिंह)
पुनर्जन्म का सिद्धान्त हिन्दू-धर्म अथवा भारतीय संस्कृति की एक सबसे बड़ी खोज है। मरने के बाद हमारा क्या होता है, यह एक बड़ा ही टेढ़ा प्रश्न है। श्रद्धा के आधार पर तो आप इसका जैसा चाहें स्वरूप मान सकते हैं, पर जब इस संबंध में किसी तार्किक या प्रत्यक्ष-प्रमाण माँगने वाले से काम पड़ता है तो मृत्यु के बाद के जीवन के सम्बन्ध में कोई निश्चित बात कह सकना बड़ा कठिन होता है। यही कारण है कि संसार के किसी धर्म में इसका भली प्रकार विवेचन नहीं किया गया है और मरने के बाद किसी स्वर्ग या दिव्य-लोक की आकर्षक सी कल्पना करके चुप हो गये हैं। केवल भारतीय दार्शनिकों ने ही अपनी प्रखर बुद्धि, योगशक्ति और तर्क प्रणाली से यह सिद्ध किया है कि आत्मा कभी मरता या जिन्दा नहीं होता। वह एक अविनाशी तत्व है जो दैवी नियमानुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होता रहता है।
अब संसार के अन्य देशों के स्वतन्त्र मतवाले विद्वान और वैज्ञानिक भी खोज करते-करते इसी तथ्य के निकट पहुँच रहे हैं। विज्ञान के तत्वों की विवेचना करते हुये उन्होंने मालूम किया है कि स्थूल पदार्थों की भाँति शक्ति भी अक्षय है, उसका नाश नहीं होता, रूपांतर मात्र हो जाता है। कोयला, भाप, तेल, बिजली आदि की जो शक्ति छोटी-बड़ी मशीनों को चलाती है वह अपना काम करने के बाद नष्ट नहीं हो जाती वरन् किसी दूसरे रूप में बनी रहती है। जल कभी बर्फ के रूप में पत्थर की तरह कठोर हो जाता है, कभी भाप बनकर हवा की तरह अदृश्य हो जाता है और कभी अत्यधिक ताप से विभिन्न गैसों के रूप में परिवर्तित हो सकता है, जिनसे फिर सहज में जल नहीं बन सकता। पर इस परिवर्तन से वह नष्ट नहीं होता, न उसके परिमाण में जरा सा भी अन्तर पड़ता है।
इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वस्तुओं का जो स्वरूप हमको दिखलाई पड़ता है वह वास्तविक नहीं है। हम लोग किसी भी जीव की उत्पत्ति को जन्म और उसके लय हो जाने को मरण या नाश समझते हैं, वह एक भ्रम है। दरअसल हमारी शक्ति का नाश तो जन्म काल से ही होने लगता है। पर हम उसे अनुभव नहीं करते और जैसे-जैसे आयु बढ़ती है हम उसको जीवन की वृद्धि कहते हैं। पर वास्तव में हमारी जीवन-अवधि दिन पर दिन कम होती जाती है अर्थात् हमारे जीवन का क्षय होता जाता है। जब यह क्षय चरम सीमा पर पहुँच जाता है और एकदम उसका रूपांतर होता जान पड़ता है तब हम उसे ‘मृत्यु’ कह देते हैं।
वैज्ञानिकों ने जाँच करके साबित किया है कि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर भी उसके नाखून और बाल कई दिन तक बढ़ते रहते हैं। इससे विदित होता है कि हमारी मृत्यु भी वास्तविक नहीं है। जिसे लोग नाश समझते हैं वह सिवाय एक बड़े परिवर्तन के और कुछ नहीं है।
जिस प्रकार संसार में दिखलाई पड़ने वाले समस्त ठोस, द्रव (जलीय) और वायु रूप पदार्थों का निर्माण अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओं से हुआ है, वही बात शक्ति के सम्बन्ध में भी है। आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्तानुसार प्रत्येक अणु को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। इनमें एकमात्र कोष या ‘सैल’ कहलाता है और दूसरा शक्ति या “फोर्स” इनमें से जब किसी अणु का कोष जीर्ण होकर नष्ट हो जाता है तो उसकी शक्ति दूसरे कोष में प्रविष्ट हो जाती है। इन नवीन कोष को पुराना अणु प्राकृतिक नियमानुसार अपनी जीवित अवस्था में ही तैयार किया करता है। यही उत्पत्ति और रूपांतर का नियम हमारे शरीर और जीवात्मा में भी पाया जाता है। जब किसी शरीर में विजातीय द्रव्य बढ़कर वह जीर्ण शीर्ण हो जाता है तो हमारा जीवात्मा या जीवनी शक्ति (फोर्स आफ लाइफ) उस देह के जीवाणु से अलग होकर दूसरे नवीन जीवाणु में प्रविष्ट हो जाती है। इस बात को हम यों भी कह सकते हैं कि हमारे शरीर में ही नित्य प्रति अणुओं के बनने और बिगड़ने के रूप में असंख्यों जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म होते रहते हैं। अंत में एक दिन ऐसा आता है कि हमारा समस्त शरीर ही एक साथ वैसे ही रूपांतर को प्राप्त हो जाता है। प्रथम प्रकार का परिवर्तन अर्थात् हमारे शरीर के अणुओं का प्रतिदिन बनना बिगड़ना ऐसे सूक्ष्म रूप में होता है कि साधारण मनुष्य उसे आँखों से देखकर अनुभव नहीं कर सकता। पर दूसरे प्रकार का परिवर्तन अर्थात् समस्त शरीर का जन्म-मरण इतना बड़ा होता है कि उसे हम सहज में देख और समझ सकते हैं।
इस प्रकार विचार करने से विदित होता है कि हिन्दू-शास्त्रों में बतलाया हुआ पुनर्जन्म का सिद्धान्त कल्पित अथवा अवैज्ञानिक नहीं है। यह माना जा सकता है कि चूँकि साधारण श्रेणी के व्यक्ति इस सूक्ष्म विषय को भली प्रकार नहीं समझ सकते, यह देखकर पौराणिक ढंग के लेखकों ने उसको कहानी किस्से का सा रूप दे दिया है, जिससे बुद्धिवादी लोग उसे अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे हैं। पर इसका मूल सिद्धान्त अकाट्य है जिसका प्रमाण भारतवर्ष में ही नहीं अन्य देशों तथा जातियों में भी समय-समय पर मिलता रहता है। इस प्रकार के उदाहरणों से संसार के अनगिनत ग्रंथ भरे पड़े हैं। अतएव हम दृढ़तापूर्वक यह कह सकते हैं कि आत्म-शक्ति या जीवात्मा भी अन्य शक्तियों की तरह अविनाशी है और वह समय-समय पर एक कोष (देह) से दूसरे कोष में स्थान परिवर्तन करता रहता है।