प्राचीन भारत में वैज्ञानिक उन्नति

February 1959

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(श्री शिवप्रकाश, बी. काम.)

वर्तमान काल को अनेक व्यक्ति “विज्ञान-युग“ के नाम से पुकारते हैं। उनका मत है कि इससे पहले जमाने में संसार में अन्ध विश्वास का ही साम्राज्य था और लोग किसी धर्मगुरु या पंडित पुजारी के कथन मात्र से ही चाहे जैसी सम्भव, असम्भव बात पर विश्वास कर लेते थे। पर यह मत बहुत सोच-विचार कर निश्चित किया हुआ नहीं है। संसार में अंधविश्वासी और ज्ञानी व्यक्ति सदा से रहे हैं और अब भी वैसी ही हालत मौजूद है। इतना माना जा सकता है कि अब शिक्षा का सार्वजनिक रूप से विशेष प्रचार हो गया है और पढ़े-लिखे लोगों की संख्या बढ़ जाने से ज्ञान-विचार की चर्चा अधिक सुनाई देने लगी है। पर यदि तात्विक रूप से खोज की जाय तो मालूम होगा कि विज्ञान कोई नई चीज नहीं है और आज से कई हजार वर्ष पहले भी लोगों ने विज्ञान की प्रत्येक शाखा में काफी प्रगति की थी और अनेक चमत्कारी आविष्कार भी किये थे।

पर एक बात अवश्य है कि यह प्राचीन वैज्ञानिक उन्नति जिस समय मुख्य रूप से एशिया अथवा पूर्वी देशों में हुई थी, उस काल में यूरोप, अमरीका के आजकल वैज्ञानिक कहलाने वाले देश घोर अंधकार की अवस्था में पड़े हुये थे। इतिहास लिखने वालों ने स्पष्ट रूप से बतलाया है कि अब से दो-तीन हजार वर्ष पहले ही भारत, चीन, मिश्र आदि देशों में कितनी अधिक वैज्ञानिक खोजें हो चुकी थीं और किस प्रकार ये ही देश संसार में प्रधान माने जाते थे। पर इतना अन्तर जरूर था कि उस समय की वैज्ञानिक प्रगति करने वालों में धर्म और अध्यात्म का भाव भी था जिससे उन्होंने उसी प्रकार के और उतने ही आविष्कार किये थे जो मनुष्य मात्र के लिये उपयोगी और कल्याणकारी हों। इसके विपरीत आज कल के भौतिकवादी वैज्ञानिक आत्मा और धर्म से प्रायः नाता तोड़ चुके हैं और उनके आविष्कारों का स्वरूप मुख्यतः व्यापार में “नफा कमाने वाला” अथवा “स्वार्थ सिद्धि” का हो गया है। इसी का परिणाम है कि अब स्वार्थ की ओर बढ़ते-बढ़ते वे पारस्परिक सर्वनाश के आविष्कार करने लग गये हैं और इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण दे रहे हैं कि ‘स्वार्थ अन्धा होता है।’

अब से डेढ़-दो सौ वर्ष पूर्व जब कि पश्चिम में विज्ञान की उन्नति विशेष रूप से आरम्भ हुई थी, तो उसकी चकाचौंध से अनेक लोग इस भ्रम में पड़ गये थे कि यह कोई अभूतपूर्व चीज है, और पहले समस्त संसार जंगली ही था। इसी भ्रमपूर्ण धारणा के वशीभूत होकर अनेक पश्चिमी लेखक भारत, चीन आदि पूर्वीय देशों को “अर्ध-सभ्य” या दकियानूसी कहने लग गये थे। यही वह युग था जब कि कुछ लेखकों ने वेदों को ‘गड़रियों की गीत’ कहकर अपनी “बुद्धिमत्ता” का परिचय दिया था। पर उसी समय अन्य न्याय बुद्धि वाले विद्वानों ने इन देशों के साहित्य की खोज की और इस बात को भली भाँति सिद्ध कर दिया कि भारत आदि देशों के प्राचीन निवासी सब तरह से सुसंस्कृत तथा ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काफी प्रगतिशील थे। इनमें से एक लेखक ने अपनी पुस्तक में जो फ्राँसीसी भाषा में प्रकाशित हुई थी विज्ञान की प्रत्येक शाखा में भारतवर्ष की प्राचीन प्रगति का पूरा विवरण दिया है। उसका साराँश मात्र यहाँ दिया जाता है-

दर्शन - प्राचीन हिन्दुओं ने आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के दर्शनों में पूर्ण प्रगति की थी। इनमें पहले की शिक्षा वेदान्त-शास्त्र में दी गई है जिसके मूल रचयिता व्यास थे और दूसरी शाखा का परिचय “साँख्य” में मिलता है जिसके आदि प्रचारक कपिल माने जाते हैं।

गणित ज्योतिष- प्राचीन भारतवासी विद्वानों ने ही सर्वप्रथम पंचाँग की रचना की, राशिचक्र का आविष्कार किया, पृथ्वी की धुरी का स्थान निश्चित किया, ग्रहों की गति का पता लगाया और सूर्य चन्द्रमा के ग्रहणों का अध्ययन करके पहले से ही उनका समय बतलाने लगे।

गणित- उन लोगों ने दशमलव प्रणाली, बीज गणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति का आविष्कार किया और नाप जोख के ऐसे पैमाने बनाये जो योरोप में अब से दो-ढाई सौ वर्ष पहले ही बनाये गये हैं। प्राचीन ब्राह्मणों ने ही यज्ञकुँडों और यज्ञ-मंडपों का निर्माण करने के लिये त्रिभुज के क्षेत्रफल और वृत्त तथा उसके व्यासार्ध सम्बन्धी नियम मालूम किये।

भौतिक विज्ञान- इस विषय में उन लोगों ने सृष्टि रचना के इस सबसे बड़े सिद्धान्त का पता लगाया कि समस्त विश्व एक ही तत्व से रचा गया और उसके नियमों का अध्ययन और अनुभव द्वारा पता लगाया जा सकता है। उन्होंने इस प्रसिद्ध नियम का पता लगाया कि यदि किसी पदार्थ को पानी में डुबाया जायगा तो उतने ही वजन का पानी उसमें से बाहर निकल जायगा। यूनान के मशहूर गृह निर्माण विशारद आर्किमिडीज ने यह ज्ञान भारतवर्ष से ही प्राप्त किया था। सूर्य सिद्धाँत में जो गणना की गई है उससे यह पूर्णतया स्पष्ट जान पड़ता है कि ये लोग भाप की शक्ति से भी परिचित थे।

रसायन विज्ञान- भारतीय विद्वानों को पानी की बनावट का पता था। वे लोग गन्धक, शोरा, नमक आदि का तेजाब बनाना जानते थे। तांबा, लोहा, सीसा, टीन, जस्ता आदि धातुओं को विभिन्न रूपों में बदलकर भिन्न-2 रासायनिक पदार्थ जैसे तूतिया, सफेदा आदि बनाना जानते थे। पारे के सम्बन्ध में उनको जितनी अधिक जानकारी प्राप्त की थी उतनी आजकल के वैज्ञानिकों को भी नहीं है। वे तरह-तरह की बारूदें बनाना भी जानते थे।

औषधिशास्त्र- इस सम्बन्ध में भारतीय चिकित्सकों का ज्ञान वास्तव में आश्चर्यजनक था। यहाँ चरक और सुश्रुत ने चिकित्सा के वे सिद्धान्त बहुत पहले निश्चित कर दिये थे जिनका ज्ञान बाद में यूनानियों ने प्राप्त किया। सुश्रुत में रोगों को रोकने वाली, कीटाणु नाशक औषधियों का वर्णन विशेष रूप से किया है और शल्य-चिकित्सा (चीर फाड़) का वर्णन भी बहुत विस्तार से पाया जाता है। वे लोग पथरी और मोतियाबिन्द का आपरेशन किया करते थे। अरब के चिकित्सकों ने इस शास्त्र का ज्ञान विशेषतः भारतीय वैद्यों से ही प्राप्त किया था, जिसका उन्होंने अपने ग्रंथों में उल्लेख भी किया है। इन्हीं अरब चिकित्सकों के ग्रंथों से योरोप में औषधिशास्त्र का ज्ञान फैला है।

व्याकरण- उन्होंने संसार भर में सर्वश्रेष्ठ भाषा संस्कृत की रचना की जिससे समस्त पूर्वीय और योरोपियन देशों को भाषा सम्बन्धी प्रयोगों की जानकारी प्राप्त हुई।

काव्य- उन्होंने कविता की विभिन्न प्रणालियों में रचनायें की और सब में पूर्ण सफलता प्राप्त करके दिखलाई। शकुन्तला, उत्तर राम चरित्र, सारंग आदि सैकड़ों ऐसे नाटक वहाँ रचे गये हैं जिनका मुकाबला किसी योरोपियन भाषा के नाटक नहीं कर सकते। उनके काव्य और महाकाव्य भी अद्वितीय हैं। इसके लिये पाठक केवल “मेघ दूत” को पढ़कर ही उनकी श्रेष्ठता का अनुमान कर सकते हैं। संस्कृत साहित्य की कहानियों की नकल संसार की सब भाषाओं में की गई है।

संगीत- इस विषय में इतना ही कहना पर्याप्त है कि गान-विद्या के मूल सात स्वरों का आविष्कार भारतीयों ने ही किया था। उन्होंने बहुसंख्यक राग रागनियों की रचना भी की है।

गृह निर्माण- इस विद्या में उन्होंने इतनी अधिक कला प्रदर्शित की है कि हम उससे अधिक की कल्पना भी नहीं कर सकते। हर तरह के बड़े से बड़े गुम्बज, ऊँचे-ऊँचे शिखर, मीनारें, पर्वताकार विशाल मंदिर, हजारों मन की बड़ी-बड़ी शिलाओं से बने किले, कोट, दुर्ग वहाँ पर सदा से बनते रहे हैं, जिनकी निर्माण करने की चतुराई देखकर आधुनिक इंजीनियर भी दंग रह जाते हैं।

प्राचीन हिन्दू-सभ्यता ने जो उच्च स्थिति प्राप्त की थी यह उसी का एक छोटा सा विवरण है। वर्तमान युग के सभ्यता के ठेकेदार बनने वाले भी रचनात्मक दृष्टि से इससे बढ़कर कृतित्व नहीं दिखला सकते। यह बात दूसरी है कि अपने मुँह से अपनी बड़ाई करते रहें और संकीर्ण मनोभावों के कारण इस प्राचीन जाति की संस्कृति को उचित सम्मान देने में आनाकानी करें। पर सौभाग्यवश अब फिर यह जाति सचेत हो गई है और अपने प्राचीन गौरव का अनुभव करने लगी है, इसलिये यह फिर संसार में अपना उचित स्थान प्राप्त कर लेगी इसमें सन्देह नहीं।


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