वर्तमान दूषित सामाजिक व्यवस्था ही दुख का मूल है।

February 1959

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(श्री सत्यभक्त)

भारतीय वैदिक साहित्य का एक वचन है “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।” अर्थात् सब लोग सुखी रहें और नीरोग-स्वस्थ रहें।” वर्तमान समय के साधारण शिक्षित व्यक्ति इस कथन को एक कल्पना या शुभाभिलाषा से अधिक कुछ नहीं मानते, उनकी समझ में तो दुःख और क्लेश जीवन की ऐसी साधारण बातें हैं, जो बजाय सुख और आनन्द के बहुत अधिक परिमाण में पाई जाती हैं। जिन अभागों का अधिकाँश जीवन नोंन, तेल, लकड़ी की चिन्ता में ही बीतता है और जिनके लिये, खाना, पहिनना और सोने से बढ़कर संसार में कोई अन्य पुरुषार्थ दिखलाई नहीं देता वे यदि ऐसे विचार रखें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

पर वास्तविक तथ्य उपर्युक्त धारणा से बहुत कुछ भिन्न है। हम स्पष्ट शब्दों में कह सकते हैं कि अगर आज मनुष्य दुखी है, भर पेट भोजन और साबित कपड़ों के लिए भी तरसता है, यदि उसे हाड़तोड़ मेहनत करने पर भी साधारण आराम से रहने लायक सब वस्तुएँ प्राप्त नहीं होती तो यह उसी का दोष है। यह ठीक है कि इस बात में किसी एक खास आदमी का दोष नहीं है वरन् यह सारे समाज का दोष है, और चूँकि हम भी उस समाज के एक सदस्य हैं इसलिए हम भी दोषमुक्त नहीं कहे जा सकते।

समाज-संगठन का एक बहुत सीधा सादा और प्रथम सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक मनुष्य को जीवित रहने का पूर्ण अधिकार है, यदि वह समाज का उपयोगी सदस्य बना रहना चाहता है और उसके लिये अपनी शक्ति और परिस्थिति के अनुसार कार्य करने को प्रस्तुत है। इसमें यह प्रश्न उठाना अनुचित है कि कोई बलवान व्यक्ति अधिक काम करता है और कमजोर ने कम काम किया है, अथवा किसी चतुर व्यक्ति ने किसी मन्द बुद्धि वाले से दुगुना-चौगुना काम कर दिखाया है। अब भी बड़े-बड़े परिवारों में हर योग्यता और विभिन्न प्रकार की बढ़िया-घटिया शक्ति वाले व्यक्ति रहते हैं, पर भोजन कराते समय यह नहीं देखा जाता कि ज्यादा कमाने वाले को ज्यादा भोजन सामग्री दी जाय और कम कमाने वाले को कम। इसी प्रकार यदि हम दस-बीस व्यक्तियों के बजाय अपनी बस्ती के दो-चार हजार मनुष्यों को अपना परिवार मान लें और यह अनुभव करें कि उनमें से किसी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता तो यह स्पष्ट हो जायगा कि उन सबको भोजन, वस्त्र, तथा अन्य भौतिक पदार्थों पर समान अधिकार देना सब प्रकार से उचित ही है। यह ख्याल करना कि मेहतर, चमार, लकड़ी, घास करने वाले, मिट्टी खोदने वाले आदि का काम वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, क्लर्क आदि की अपेक्षा घटिया है इसलिए उनको कम या घटिया दर्जे की सामग्री दी जाय, एक निकृष्ट स्वार्थ भावना का परिचायक है, जो स्वार्थी या अन्यायी व्यक्तियों द्वारा उत्पन्न कर दी गई है। हम थोड़ी देर के लिये मनुष्य मात्र की आध्यात्मिक एकता के प्रश्न को छोड़ भी दें तो क्या हमको यह दिखलाई नहीं देता कि मेहतर, चमार आदि का कार्य एक दृष्टि से वकील डॉक्टर आदि के बड़े समझे जाने वाले कार्यों से कहीं कठिन है और यदि सब मनुष्य शिक्षित, योग्य बन जायें तो उन कामों के बिना समाज का जीवन-निर्वाह बड़ा दुखदायी हो जाय। यह हमारी महान कृतघ्नता है कि यदि हम इन गन्दगी दूर करने के काम करने वालों का अहसान मानने के बजाय, उनको नीच समझें और उनके काम का मेहनताना थोड़े से पैसों में चुकाना चाहें। जिस समय समाज न्याय पथ पर चलने लगेगा और प्रत्येक मानव शरीरधारी को उसका जन्मसिद्ध अधिकार दिया जायेगा, उस समय इस गन्दे अथवा नीच समझे जाने वाले पेशों की काया पलट ही कर देनी पड़ेगी। उस समय इनके करने वाले व्यक्तियों को किसी न किसी रूप में ऐसी विशेष सुविधाएं देनी पड़ेंगी जिनके आकर्षण से कुछ लोग उनको करने को राजी हो सकें। उदाहरण के लिए जहाँ अन्य लोगों को आठ घण्टे श्रम करना आवश्यक हो वहाँ ऐसे काम करने वालों का समय छह घण्टे का ही रखा जाय। अथवा उनके लिए गाड़ी, मशीन आदि की ऐसी व्यवस्था की जाय जिससे वे इन कार्यों को थोड़ी ही मेहनत से दूर रहकर पूरा कर सकें।

हम सामाजिक न्याय के प्रश्न पर विचार करते हुये अपने विषय से कुछ दूर चले आये। सबके लिए पर्याप्त सुख मिलने में सबसे बड़ी बाधा लोगों के ख्याल में यही है कि संसार में इतनी सामग्री ही नहीं कि सब लोगों को आवश्यकतानुसार उचित परिमाण में दी जा सके। यह एक बड़ा विवादग्रस्त विषय है और समाजवाद तथा पूँजीवाद के खंडन-मंडन में जो सैकड़ों ग्रन्थ लिखे गये हैं उनमें मुख्यतः इसी पर बहस की गई है। क्योंकि थोड़े से कट्टर पूँजीवादियों को छोड़कर साधारण मनुष्यों में ऐसे कम ही निकलेंगे जो सामग्री के पर्याप्त होने पर भी उसे समस्त जनता को देने का विरोध करें। इसलिये हम इस लेख में पाठकों को यही बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि वर्तमान समय में स्वार्थी लोगों के एक दल ने ही जान-बूझ कर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर रखी है कि जिससे जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग जीवन निर्वाह की आवश्यक सामग्री में वंचित रहता है और करोड़ों को तो वास्तव में आधा पेट खाकर घोर अभाव की दशा में जीवन बिताना पड़ता है। यदि ये सामाजिक व्यवस्था में बाधा स्वरूप थोड़े से लोग, जिनकी तादाद समस्त जनसंख्या में एक प्रति सैकड़ा भी नहीं है, हस्तक्षेप करने से रोक दिये जायें तो निःसन्देह प्रत्येक व्यक्ति को भर पेट खाना, कपड़ा और अन्य साधारण वस्तुएँ प्राप्त हो सकती हैं और इसके लिये उनको कभी चिन्तित होने का अवसर नहीं आ सकता।

इस सम्बन्ध में विवेचन करने पर पहली बात तो यह दिखलाई पड़ती है कि वर्तमान समाज के मुखिया और संचालक बनने वालों ने उसका संगठन ऐसा दूषित कर रखा है कि देश के करोड़ों व्यक्ति व्यर्थ के कामों में लगा दिये जाते हैं और जीवन निर्वाह के लिये उपयोगी कार्य करने वाले थोड़े ही बचते हैं। उदाहरण के लिये अगर संसार की लगभग सवा दो अरब की आबादी में से कार्य न कर सकने योग्य बच्चे और बूढ़ों को निकाल कर कार्यक्षम लोगों की संख्या डेढ़ अरब मान ली जाय तो इसमें आधे के लगभग ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो जन-जीवन की दृष्टि से कोई उपयोगी काम नहीं करते वरन् उलटा उसका विनाश करते हैं। बड़े-बड़े पूँजीपतियों के परिवार वाले और उनकी छोटी बड़ी समस्त सेवाओं के लिए सदैव तैयार रहने वाले असंख्य दास दासियों की बात तो प्रत्यक्ष ही है, पर इनके सिवाय अगर कुछ भी गहराई में उतर कर विचार किया जाय तो अनेकों कार्य ऐसे मिलेंगे जिनका जन-जीवन के लिये कोई उपयोग नहीं है पर जिनमें करोड़ों व्यक्ति लगे हुये हैं। इनमें सबसे पहला नाम तो हम सब तरह की सेना का गिना सकते हैं जिसकी संख्या इस ‘शाँति काल’ में भी, सब देशों का हिसाब लगाया जाय तो, दस पाँच करोड़ तो निकलेगी ही। इसी तरह पुलिस के सिपाहियों और गुप्तचर विभाग वालों की संख्या भी संसार भर में कई करोड़ से कम नहीं है। इन दोनों महकमों की आवश्यकता केवल उन्हीं लोगों की है जिन्होंने जबर्दस्ती या चालाकी से लोगों को लूटकर एक बड़ी रकम अपने पास जमा कर रखी है और जो उसे हर एक तरह के छल−बल से बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिए चिंतित रहते हैं। यदि ये दूसरों का स्वत्व अपहरण करने वाले बीच में से हटा दिये जायें और सब लोग परिश्रम करके अपने पसीने की रोटी खाने को राजी हों तो आप ही विचारिये कि इन राइफलों, मशीनगनों, बमवर्षक जहाजों और एटम तथा हाइड्रोजन बमों की मुझे और आपका क्या आवश्यकता है? और इनसे हमारा क्या लाभ है? इन सब का निर्माण तो वे ही लोग कराते हैं जो अपनी वर्तमान सम्पत्ति से सन्तोष न करके दूसरे देशों पर हमला करके उनको गुलाम बनाना चाहते हैं या देश विदेश में अपना व्यापार फैलाकर करोड़ों-अरबों रुपया बटोरने की हविस रखते हैं।

इस प्रकार आप देखें तो मालूम होगा कि इन ‘बड़े डाकुओं’ और ‘लुटेरों’ के कारण अनावश्यक कार्यों में लगे हुये लोगों की सूची बहुत लम्बी है। ऊपर हमने सेना का नाम लिया है, पर सेना के लिये हथियार और अन्य सामग्री तैयार करने वाले कारीगरों और मजदूरों की संख्या भी संभवतः सिपाहियों के बराबर ही होगी। अमरीका आदि की जो रिपोर्ट आती हैं उनसे मालूम होता है कि वहाँ जितने व्यक्ति कारखानों में काम कर रहे हैं उनमें लगभग आधे सेना सम्बंधी कारबारों में संलग्न हैं। फिर आगे चलिये तो संसार की आवागमन सम्बन्धी व्यवस्था में-जैसे रेल, मोटर, लारी, पानी के जहाज, हवाई-जहाज आदि के बनाने और चलाने तथा मरम्मत, सुरक्षा आदि में कितने करोड़ व्यक्ति लगे होंगे? इन सबका दसवाँ भाग तो संभवतः जन साधारण के काम में आता होगा, अन्यथा शेष में भाग बड़े लोगों की शान शौकत, सैर तमाशे और उद्योगपतियों के रुपया कमाने के व्यापार से सम्बन्ध रखता है। इसे भी बिल्कुल सत्य समझ लीजिये कि इस व्यापार का शायद दस प्रतिशत जनता की आवश्यकता के लिये किया जाता हो, नहीं तो उसका एकमात्र उद्देश्य नफा कमाने के लिये इधर के माल को उधर ले जाना, फिर तीसरी और चौथी जगह पहुँचाते रहना ही होता है। इसमें कितने कुली, मजदूर, पैक करने वाले, रेलों पर चढ़ाने-उतारने वाले, गोदामों में रखने और चौकीदारी करने वाले आदि व्यक्ति लगते होंगे उन सबका हिसाब लगाने से दिमाग चकरा जाता है। इतना ही नहीं ये बड़े-बड़े मजबूत और आलीशान महल, चोरों से न टूट सकने वाली फौलादी तिजोरियां, करोड़ों ताले, खजानों पर रात दिन पहरा देने वाले चौकीदार आदि भी इन्हीं ‘बड़े लोगों’ के शरीर और सम्पत्ति की रक्षा के लिये होते हैं और इनमें भी जन-शक्ति का कम अपव्यय नहीं होता।

उपयोगी जनशक्ति के निरर्थक कामों में लगे रहने का यह एक पहलू हुआ। दूसरा बहुत बड़ा पहलू यह भी है कि ये व्यापारी और उद्योगपति अपने ऊँचे नफा को कायम रखने के लिये करोड़ों कार्य करने को प्रस्तुत मजदूरों और पढ़े लिखे लोगों को भी बेकारी की दशा में रखते हैं। क्या आप अखबारों में नहीं पढ़ते कि कितने ही कपड़े के कारखाने इसलिये बन्द पड़े हैं कि उनके गोदामों में कपड़े का बहुत स्टॉक जमा हो गया है। इस उद्देश्य से कितने ही अन्य कारखाने सप्ताह में केवल दो या तीन ही दिन चलाये जाते हैं। यदि यह पूछा जाय कि यह स्टॉक क्यों जमा हो गया तो इसका सच्चा उत्तर यही मिलेगा कि जिस भाव में कारखाने वाले उस कपड़े को बेचना चाहते हैं उतने में खरीदने के लिये लोगों के पास रुपया नहीं है। अन्यथा आप अपने ही घर में या अड़ोस-पड़ोस के लोगों के यहाँ पता लगा लीजिये कि उनको वास्तव में कपड़े की कैसी सख्त जरूरत है और कितने मर्द तथा औरतें आपके सामने ही चिथड़ों से बदन ढके निकलते रहते हैं। यदि इन लोगों को कारखानों का मोटा कपड़ा, मारकीन आदि भी मिल जाय तो क्या वे उसे लेने के लिये खुशी से तैयार न होंगे? यह एक बड़ा अनोखा तमाशा है कि एक ओर कपड़ा तैयार करने वाले मजदूर बैठे हुये हैं और आज्ञा मिलते ही कपड़ा बनाने को राजी हैं-राजी ही नहीं दिल से उत्सुक हैं, लालायित हैं। दूसरी ओर साधारण जनता भी कपड़े की कमी से दुखी है और चाहती है कि अगर मुनासिब दामों में कपड़ा मिल सके तो आज ही काम चलाने लायक दस बीज गज तो प्रत्येक ही खरीद ले। पर इन दोनों के बीच में कुछ दलाल, कारखानों के मालिक आदि ऐसे बाधा स्वरूप व्यक्ति बैठे हैं जो न खुद खा सकें और न दूसरों को खानें दें। इस प्रकार वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में स्वार्थ और अहंकार के कारण कुछ व्यक्ति ही समाज के साथ शत्रुता कर रहे हैं और सर्वसाधारण को वैज्ञानिक साधनों द्वारा प्राप्त होने वाली वृद्धि का लाभ उठने से रोक रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो वर्तमान समय में पैदावार इतनी अधिक बढ़ गई है और सहज में बढ़ाई जा सकती है कि आरम्भ में बतलाये गये वैदिक सूक्त के अनुसार आज कल की बढ़ी हुई समस्त जन-संख्या भी सचमुच जीवन-निर्वाह की सब प्रकार की आवश्यक सामग्री प्राप्त कर सकती है और सुख का जीवन व्यतीत कर सकती है।

अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि आजकल दिखलाई पड़ने वाली इस विपरीत और अस्वाभाविक अवस्था को किस प्रकार बदला जाय, जिससे लोग अपने न्यायानुकूल अधिकारों का उपयोग कर सकें? इसका एकमात्र उपाय सामूहिक चेतना ही है। जैसा हम सब अच्छी तरह जानते हैं, आजकल वैज्ञानिक अस्त्र शस्त्रों की ताकत इतनी बढ़ गई है कि शासन पर सत्तारूढ़ बड़े आदमियों का गुट चाहे तो दो चार दिन में करोड़ों आदमियों का सफाया कर सकता है और उनके एक हजार वेतनभोगी सिपाही एक करोड़ व्यक्तियों को काबू में रख सकते हैं। इसलिये अब लाठी डंडे या साधारण हथियारों से लड़ भिड़कर अपने अधिकारों का पा सकना तो संभावना के बाहर की बात है। पर यदि जनता को वास्तविक स्थिति समझाई जाय और वह अन्यायपूर्ण नियमों को न मानने का दृढ़ निश्चय करले तो जिस प्रकार महात्मा गाँधी के सत्याग्रह के सामने बहुत अधिक शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा था, उसी प्रकार आजकल के पूँजीवादी भी झुक सकते हैं। आजकल इसी प्रकार के आन्दोलनों से कितने ही देशों में कुछ अंशों में सफलता मिल चुकी है और रूस तथा चीन जैसे साम्यवादी देशों की बात छोड़ दीजिये, इंग्लैण्ड और अमरीका जैसे पूँजीवादी देशों में भी ऐसी व्यवस्था की जा चुकी है कि सब व्यक्तियों को जीवन निर्वाह के लायक काम दिया जाय और फिर भी जो बेकारी या अशक्तता के कारण काम करने में असमर्थ हों उनके निर्वाह का खर्च सरकार अपने पास से दे। पाठकों को शायद यह जानकर आश्चर्य होगा कि वहाँ पर ये सरकारी खैरात पर रहने वाले लोग भी हमारे यहाँ के अधिकाँश ‘भले आदमियों’ की अपेक्षा ज्यादा आराम से रहते हैं और अधिक अच्छा खाना और कपड़ा पा जाते हैं। अगर उनको खराब चीजें दी जाती हैं तो वे उसके खिलाफ उसी प्रकार आँदोलन करते हैं जैसे कि वेतनभोगी कर्मचारी। पर हमारे यहाँ, जहाँ कि आत्मज्ञानी ऋषियों ने सर्वप्रथम ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का जयनाद किया था और उस युग की परिस्थिति के अनुसार उस पर आचरण करके भी दिखलाया था, आजकल करोड़ों व्यक्तियों को कुत्ते बिल्ली से भी बुरी हालत में रहना पड़ता है और ऐसी घटनाएं भी पाई जाती हैं कि लोग भूख तथा अन्य अभावों से व्याकुल होकर आत्महत्या कर लेते हैं। यह अवस्था निस्संदेह किसी भी जाति या समाज के लिये कलंकपूर्ण है। ऐसी दशा में जब हम आध्यात्मिक ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं-ऋषि सन्तान होने का दावा करते हैं तो हँसी भी आती है और रोना भी। इसलिये हमारा सब से पहला कर्तव्य यही है कि अपने समाज में सामूहिक चेतना उत्पन्न करके सर्व साधारण को संगठित रूप से अन्याय का विरोध करने को तैयार करें। इस बात को अच्छी तरह याद कर लीजिये कि कम से कम वर्तमान समय में तो ‘धर्म-साधन’ भी संगठन द्वारा ही हो सकता है। अन्यथा जब तक आपका कोई भी पड़ोसी रोटी के टुकड़ों के लिये लाचार होकर भले बुरे सब तरह के काम करने को तैयार है तो आपको ‘अध्यात्म’ और ‘धर्म’ का नाम लेने का कोई अधिकार नहीं और न उसका कोई मूल्य समझा जा सकता है। उस समय हमारी वही स्थिति होगी जिसका वर्णन करते हुये “प्रिंस क्रोपाटकिन” ने कहा है-

“जवानी की उम्र में ही हमारे विचार संकुचित हो जाते हैं और प्रौढ़ अवस्था में पिछले विचारों और तरीकों की गुलामी दिमागों में भर जाती है। इस कारण हमारे अन्दर विचार करने का साहस भी नहीं रहता। जब कोई नया विचार हमारे सामने आता है तो हम उस पर अपनी सम्मति प्रकट करने का साहस नहीं कर पाते। जिन कई सौ वर्ष पुरानी पुस्तकों पर धूल जमी हुई है, उन्हीं को हम बार-बार उठाते हैं और यह ढूंढ़ते हैं कि पुराने विद्वानों का इस विषय में क्या मत था!”

क्या हम आशा करें कि सद् बुद्धि को प्रेरणा देने वाली वेदमाता गायत्री के उपासक वास्तविक-प्रज्ञा का परिचय देते हुये देश को सामूहिक चेतना की ओर अग्रसर करेंगे?


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