शक्ति और धर्म के सामञ्जस्य से विश्व शाँति

February 1959

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(स्वामी सहजानन्द जी)

संसार में इस समय अशान्ति की जैसी बाढ़ आई है वैसी मानव जाति के इतिहास में कभी दिखलाई नहीं दी थी। पहले भी बड़े-बड़े घोर संग्राम हुये हैं, पर उनका क्षेत्र सदैव एक देश या दो चार देशों तक सीमित रहा था। पर आजकल आवागमन के साधनों की वृद्धि से युद्ध का रूप ऐसा सर्वव्यापक और संहारक हो गया है कि यदि हम कहें कि संसार के ऊपर एक महानाश की काली घटा छाई है जो किसी भी क्षण प्रलय दृश्य उपस्थित कर सकती है, तो इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। कुछ सुहृदय जन इस महानाश के निवारण के लिये सतत प्रयत्नशील हैं, और उनके उदयोग से यह बीच बीच में टल भी जाता है, पर इसकी जड़ बराबर जमी हुई है और इसकी संभावना दिन पर दिन पहले की अपेक्षा भयंकर रूप धारण करती जाती है। यह दुरावस्था कैसे उत्पन्न हुई और इसके निराकरण के लिये जो प्रयत्न किये जाते हैं वे क्यों सफल नहीं हो पाते इसके सम्बन्ध में एक भारतीय विद्वान संन्यासी के विचार हमें बहुत उपयुक्त और मनन योग्य जान पड़े। उन्होंने बड़े स्पष्ट रूप में यह बतलाया है कि वर्तमान दुर्गति का कारण राजनीति से धर्म का, आध्यात्मिकता का बहिष्कार कर देना ही है। उनका कथन है कि-

जिस पदार्थ, धर्म, गुण या विशेषता के सम्बन्ध से संसार के कोई भी पदार्थ वाञ्छनीय या माननीय हों अथवा उनके अस्तित्व को आवश्यक समझा जाय, उसे ही शक्ति कह सकते हैं। इसी के नाम-योग्यता, सामर्थ्य, ‘पॉवर ताकत, आदि भी हो सकते हैं। जो पदार्थ शक्ति या योग्यता से शून्य है, जिसमें कोई विशेषता या चमत्कार नहीं, उसके रहने की जरूरत ही क्या? सृष्टि की रचना करने वाला, फिर वह चाहे कोई या कुछ भी क्यों न हो, व्यर्थ पदार्थों की रचना कर नहीं सकता। इसी लिये यह देखा जाता है कि ज्यों ही कोई वस्तु अशक्त या बेकार हुई कि वह रहने ही नहीं पाती। संसार में जो जीवन-स्पर्धा या जीवन होड़ (स्ट्रगिल फॉर एकजिसटेंस) चल रही है उसका भी रहस्य यही है, और ‘जीवा जीवस्य जीवनम्, ऐसा जो पुराने लोग कह गये हैं, उसका भी यही अभिप्राय है। प्रकृति या सृष्टिकर्ता को कभी भी यह इष्ट नहीं कि दूषित, गलित, या अशक्त पदार्थ जमा होकर उसकी कृति को चौपट करें। इसलिये सतत वह इस प्रयत्न में रहती है कि ऐसा पदार्थ जल्दी से जल्दी खत्म हो जाय, उसका रूपांतर होकर फिर से उपयोगी पदार्थ बन जाय। हम नित्य देखते हैं कि ज्यों ही कोई प्राणी मरा कि सड़ गलकर खाद बना, पशु-पक्षियों का खाद्य बनकर उनका पोषणकर्ता हुआ इस प्रकार उसकी व्यर्थता नष्ट होकर वह उपयोगी बन गया।

साराँश यह कि शक्ति सम्पादन की प्रक्रिया और प्रवृत्ति ईश्वर प्रदत्त है, प्राकृतिक है, स्वाभाविक है, अकृत्रिम है, जिससे प्रत्येक पदार्थ स्वयमेव उस ओर खिंच जाते हैं। अन्यथा वे रह ही नहीं सकते। यह भी नहीं कि वह शक्ति कहीं बाहर से लायी जायी है। शक्ति ऐसी वस्तु नहीं कि बाहर से आवे। वह तो हर पदार्थ में जन्म से ही रहती है, यद्यपि अनेक समय वह अगोचर रहती है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि शक्ति का मादा प्रत्येक वस्तु में स्वयं सिद्ध है और जिसमें वह मादा न रहे वह पदार्थ मृत या विनष्ट हो जाता है। फलतः शक्ति सम्पादन और कुछ नहीं है सिवा अन्तर्निहित प्रसुप्त शक्ति के उद्बोधन के, जिसे विकास कहते हैं। यही कारण है कि ‘श्वेताश्वेतरोपनिषद्’ के षष्ठाध्याय में उसे स्वाभाविकी कहा गया है-

परास्य शक्तिविविधैव श्रूयते।

स्वाभावकी ज्ञानबल क्रिया च ॥(6-8)

शक्ति के अनेक-असंख्य रूप होते हैं। दृष्टान्त के लिये उत्पादन शक्ति और संहार शक्ति को ले सकते हैं। ये दोनों एक हो नहीं सकतीं। उसी प्रकार पाशुविक और आध्यात्मिक आदि शक्तियों की बात है। ये परस्पर विरोधिनी होने के कारण अलग-अलग हैं। पर ये सब एक ही शक्ति के विभिन्न रूप या भेद हैं। उसकी उत्पादकता या संहारकर्ता हमारी मनोवृत्ति पर ही अवलम्बित है। हम चाहे उसी से संहार कर दें या किसी वस्तु का उत्पादन करें। एक ही विद्युत शक्ति से पदार्थ बनाये भी जाते हैं और उनका नाश भी किया जाता है। ट्राम या रेल में लगी बिजली से गाड़ी दौड़ती है और उसमें रोशनी होती है, जिससे लोगों को आने जाने, पढ़ने, देखने में आराम मिलता है। लेकिन दुर्घटना होते समय उसी से गाड़ी जल जाती है, वायुयान नष्ट हो जाते हैं और लोग मर जाते हैं। इसी से नीतिकारों ने कहा है-

विद्या विवादाय धनं मदाय,

शक्ति परेषाँ परपीड़ नाय।

खलस्य साधोविपरीत मेत-

ञ्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥

“विद्या से विवाद भी उत्पन्न होता है और ज्ञान प्रदान का कार्य भी कर सकते हैं, धन से अभिमान की वृद्धि भी होती है और दान भी दिया जा सकता है, शक्ति से दूसरों को पीड़ा दे सकते हैं और उनकी रक्षा भी की जा सकती है।” इससे यह स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि साधु और असाधु के आश्रय भेद में एक ही शक्ति का कैसा विलक्षण रूप हो जाता है। इसीलिये ‘श्वेताश्वेतर’ के वाक्य में शक्ति को विविधा कहा है, जिसका अर्थ है “अनेक प्रकार की।” यही कारण हमारे धर्म शास्त्रकारों ने अर्थशास्त्र या राजनीति को धर्म नीति से हर्बल कहा है। ‘याज्ञवलक्य’ का वचन है-

“अर्थ शास्त्रत्तु बलबर्द्धम शास्त्रमिति स्थितिः”

इस का तात्पर्य यही है कि बलवान और शक्तिशाली होने पर लोग मदान्ध होकर शक्ति का दुरुपयोग कर सकते हैं, जिससे उत्पीड़न बढ़ जायगा। इसलिये राजकीय या पाशविक शक्ति और भौतिक बल के सम्पादन के साथ-साथ उन्होंने उसमें आध्यात्मिकता का पुट देना आवश्यक बताया। वर्तमान समय में पाश्चात्य देश आध्यात्मिकता से विमुख होकर केवल अधिक से अधिक शक्ति-संचय का लक्ष्य अंगीकार करने से किस प्रकार विश्व को विनाश के मुख में ढकेल रहे हैं, वह उपर्युक्त कथन की सचाई का प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमारे उन शास्त्रकारों ने अपने अनुभव और दूरदर्शिता से ऐसे अनर्थ की संभावना पहले ही करली थी। क्योंकि आध्यात्मिकता की लगाम के बिना चरम भौतिकता (मैटेरियलिञ्म) अन्धी होती है और उसका अंतिम परिणाम संहार के सिवाय दूसरा हो ही नहीं सकता।

यह प्रश्न भी किया जा सकता है कि यदि वाञ्छनीयता या माननीयता ही शक्ति की परिभाषा है, जिससे किसी पदार्थ की आवश्यकता ही उसकी शक्ति का परिचायक हो, तो आसुरी शक्ति वाले पदार्थों या लोगों की आवश्यकता कभी भी न होने से उनको तो संसार में एक क्षण भी न रहना चाहिये। लेकिन हुआ है ठीक इसके विपरीत। आसुरी साम्राज्य तो सदा से रहा है- पहले भी था और आज भी है। यह मान कर भी कि आसुरी शक्ति का काम केवल संहार करना ही है लोग उसी ओर बेतहाशा दौड़ लगाते देखे जाते हैं। संसार में बिरले ही माई के लाल अध्यात्मवाद या धर्म पिपासा वाले मिलते हैं। यदि प्रकृति या सृष्टि कर्ता को ऐसा पसन्द नहीं है कि अनावश्यक, प्रत्युत अनर्थकारी पदार्थों का अस्तित्व रहे, तो फिर आसुरी शक्ति का संहार क्यों नहीं स्वयमेव हो जाता? ऐसे शंका का होना निस्सन्देह स्वाभाविक है। पर इसका उत्तर यह है कि गुण दोष का निर्णय अपेक्षा से, मात्रा की न्यूनाधिकता से होता है। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ का सिद्धान्त शास्त्रों में मौजूद है। इसका अर्थ यही है, कि कोई चीज कितनी ही सुन्दर या भली क्यों न हो, ज्यों−ही मात्रा से अधिक हुई कि बुरी हुई। नमक या मीठा किसी चीज का स्वाद बनाने के लिये मिलाया जाता है, खटाई और मिर्च का प्रयोग भी इसीलिये करते हैं। परन्तु जब इन चीजों की मात्रा ज्यादा हो जाती है तो उनकी प्रशंसा करने के बजाय मुँह से यही निकलता है कि ‘जहर हो गया’ ‘खराब हो गया’। भोजन जीवन-शक्ति का दाता और पोषक माना गया है। पर वही जब मात्रा में अधिक हो जाता है तो बीमारियों का कारण और नाशक हो जाता है। इसी प्रकार जब शक्ति एक नियमित मर्यादा का उल्लंघन कर गई तो उसे शक्ति कहना अनुचित होगा। यह सत्य भलाई-बुराई, गुण और दोष ये दोनों बातें प्रत्येक पदार्थ या व्यक्ति में होती है, इसलिये उसे शक्ति की परिभाषा में शामिल नहीं कर सकते। सृष्टि के नियम अर्थात् निर्माण या रचना के विपरीत होने के कारण वह नष्ट कर देने योग्य होती है और वास्तव में उसका नाश पारस्परिक संघर्ष या दैवी शक्ति से हो जाया करता है। यही अवतारों का रहस्य है।

यही कारण है कि हमारे शास्त्रकारों ने “सर्वेंभि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः”की घोषणा की थी। यदि पूर्वकाल की आसुरी शक्तियों के विवरणों पर दृष्टि डाली जाय तो यही सिद्ध होता है कि उसके कर्ताओं का धर्म के साथ छत्तीस का सम्बन्ध था। उन्होंने धर्म को पाँव तले रौंद कर धता बताया था। इसी प्रकार वर्तमान समय के महासमरों और उनकी तैयारियों की ओर दृष्टि की जाय तो यहाँ भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि आध्यात्मिकता और धर्म से विहीन सभ्यता ही इसका कारण है और जब तक इसका अन्त होकर सभी देशों, राष्ट्रों और उनके संचालकों के दृष्टिकोण में धर्ममूलक परिवर्तन नहीं होता तब तक बाहरी शाँति की बातों से इस का संहार-कार्य कभी न रुक सकेगा।


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