महानता को प्राप्त कीजिए!

February 1959

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(श्री. यादराम शर्मा ‘राजेश’, ए.ए)

मानव-जीवन का चरम लक्ष्य किसी न किसी रूप में महानता को प्राप्त करना है। महानता का अर्थ है कि आप किसी न किसी क्षेत्र में अपनी वृत्तियों को इतना विकसित करलें कि साधारण लोगों के लिए अनुकरणीय बन जायें और आपके मार्ग का अनुकरण करने से लोगों का कल्याण होने की सम्भावना हो। सच्ची महानता को प्राप्त करने के लिए त्याग, उदारता, सहानुभूति, हृदय की निर्मलता और चरित्र की शुद्धता आदि गुणों की आवश्यकता है। ये गुण जहाँ अपने सच्चे अर्थों में उत्पन्न हो जायेंगे, वहाँ संसार की सब विभूतियाँ अपने आप आकर एकत्र हो जायेंगी। अनुभव के दो शब्द सहस्रों ग्रंथों के अर्जित ज्ञान से अधिक मूल्यवान हैं तभी तो महात्मा कबीर ने पूरे आत्म-विश्वास के साथ कहा है :- “पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। एकै आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।”

शुद्ध आचरण द्वारा उपस्थित किये गये एक उत्तम उदाहरण का जितना प्रभाव होता है उतना सहस्रों विद्वानों, वक्ताओं के सुन्दर भाषणों का नहीं होता। जिसका हृदय उत्तम गुणों के सौंदर्य से विभूषित हो गया है, उसकी बाह्य आकृति और वेशभूषा कितनी ही विकृत और साधारण हो, जन-समुदाय उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहेगा। इसलिए सच्ची महानता को प्राप्त करने के लिये किसी बड़ी विद्वत्ता, वक्तृत्वकला अथवा विशेष वेशभूषा की आवश्यकता नहीं है। ये सब बाह्याडम्बर मात्र हैं और इनका प्रभाव केवल क्षणिक और अस्थाई होता है।

महानता को प्राप्त करने के मार्ग पर चलने के दो तरीके हैं। पहला तरीका है- एकाएक तीव्रता के साथ सर्वस्व त्यागकर अपने जीवन को लोक-कल्याण और परमार्थ के लिये अर्पित कर देना। कभी-कभी इसमें आशातीत सफलता प्राप्त होती है। आज से ढाई हजार साल पहले कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ ने महात्मा बुद्ध बनने के लिये यही तरीका अपनाया था। और भी अनेक लोग समय पर इस तरीके द्वारा महानता की चरम सीमा पर पहुँचते रहे हैं। किन्तु इसमें कभी-कभी जल्दबाजी का खतरा भी रहता है। जल्दी में निर्णय करने वालों का जोश जब ठंडा हो जाता है तो उसकी बड़ी भयंकर प्रतिक्रिया के कारण कभी-कभी बड़े क्रान्तिकारियों को पुलिस की मुखबिरी करते, महान देश भक्तों को देश-द्रोह करते और वैरागियों को घर बार बसाते अथवा कुमार्ग-गामी होते देखा गया है। इसलिये महानता के मार्ग पर आगे बढ़ने का दूसरा और अधिक व्यावहारिक तरीका यह है कि धीरे-धीरे छोटे छोटे कार्यों द्वारा पहले बड़े कार्यों और त्याग का प्रशिक्षण लिया जाये। धर्म-शास्त्रों में अपनी आय का एक निश्चित भाग सात्विक कार्यों के लिए दान कर देने का विधान इसीलिये किया गया है ताकि लोगों में अनासक्ति-भाव पैदा हो। वैदिक मंत्रों में बराबर ‘इदन्नमम’ की आवृत्ति हमारी प्रवृत्ति को त्याग की ओर अग्रसर करने के लिये ही की गई है। अतः यदि आपमें एक दम सब कुछ त्याग कर उस उदार भावना को अंत तक निभाये जाने का आत्म-बल नहीं है तो आप धीरे धीरे अपनी त्याग-वृत्तियों को विकसित करके महानता की चरम सीमा तक पहुँच सकते हैं। पहले आय और श्रम का थोड़ा भाग सार्वजनिक कार्यों में लगादो और फिर अभ्यास करते-करते एक दिन अपने सम्पूर्ण व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर अपने संपूर्ण साधनों को विश्वात्मा की सेवा के लिए समर्पित कर दीजिये।

आपको किसी भी आयु में यह अनुभव नहीं करना चाहिये कि अब आपके लिये महानता को प्राप्त करने का अवसर जाता रहा है। यह ठीक है कि जितना शीघ्र इस पवित्र मार्ग की ओर अग्रसर हुआ जा सके उतना अच्छा है किन्तु कभी आरम्भ न करने से कभी भी आरंभ कर देना अच्छा है। हमारे पूर्वजों ने जीवन के चार भाग किये थे और वे जीवन के उत्तरार्ध के दो भागों को क्रमशः समाज-सेवा और परमार्थ-साधन का साधन बनाया करते थे। भारतीय परम्परा इस बात की साक्षी है कि पारिवारिक मोह-माया से मुक्त होकर शरीर को सार्वजनिक कार्यों और समाज सेवा का साधन बनाना महानता को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है। प्रत्येक युग में हमारे देश में उन्हीं महानुभावों को समादर का पात्र समझा गया है जो व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊँचा उठकर अपने शरीर का उपयोग अपने समाज अथवा मानव-जाति के कल्याण के लिये करते आये हैं।

आपका प्रारम्भिक जीवन कितना ही साधारण अथवा नगण्य रहा हो, निरन्तर अभ्यास के द्वारा आप महानता की उस चरम सीमा तक पहुँच सकते हैं जिसकी इस समय आप कल्पना भी नहीं कर सकते। सच्ची लगन और अध्यवसाय के बल पर लोगों ने संसार में असंभव को संभव कर दिखाया है। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद ने अपने जीवन के चालीस वर्ष एक व्यापारी के रूप में भ्रमण करने में ही बिताये थे। आदि कवि बाल्मिकि के जीवन का अधिकाँश भाग बहेरिये के रूप में बीता था। संस्कृत के सर्वोत्तम नाटककार कवि-कुल गुरु कालिदास अपनी जवानी तक वज्र-मूर्ख ही रहे थे।

प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजी आरंभ में हमारी आपकी तरह एक साधारण गृहस्थ ही थे और कहा जाता है कि संत-शिरोमणि महात्मा सूरदासजी तो अपनी जवानी के दिनों में साधारण से भी नीचे गिरे हुए थे। मकानों की रंगाई-पुताई करते हुये हिटलर ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन वह जर्मनी का भाग्य-विधाता बन जायेगा। लुहार के रूप में जीवन आरंभ करने वाला मुसोलिनी यह नहीं जानता था कि एक दिन समस्त इटली की बागडोर उसके ही हाथों में आने वाली है। इसलिये आप भी यह मत सोचिये कि आपने अपना जीवन किस रूप में आरंभ किया था। आप-आप अपनी छोटी से छोटी स्थिति से प्रयत्न आरंभ कीजिये और आप देखेंगे कि धीरे-धीरे बढ़ते हुये आप कहीं से कहीं पहुँच गये हैं।

आज के युग में इस बात को समझने के लिये गाँधी जी का उदाहरण उपयोगी होगा। गाँधी जी की आत्म-कथा का अध्ययन करने पर पता लगता है कि आरंभ में वे अत्यन्त साधारण आदमी थे। मनुष्य में पाई जानी वाली सभी निर्बलतायें और मनोविकारों की प्रबलता उनमें औसत से अधिक मात्रा में थी। प्रतिभा और बुद्धि की दृष्टि से भी वे कोई अद्वितीय व्यक्ति नहीं थे। परिवार की सहायता के बल पर उन्होंने विलायत जाकर बैरिस्टरी पास की लेकिन वे कोई सफल वकील भी न बन सके। उन्होंने स्वयं लिखा है कि जब वे जहाज में बैठकर पहले पहल विलायत को गये तो अपने जहाज के कमरे से बाहर नहीं निकलते थे क्योंकि उन्हें अँगरेजी में बातें करने का अभ्यास नहीं था और कोई अँगरेज उनसे बातें करता तो वे ठीक-ठीक समझ नहीं पाते थे। बैरिस्टर होने पर भी जब वे अपने पहले मुकदमे, की पैरवी करने खड़े हुये तो उनके पैर काँपने लगे, सिर चक्कर खाने लगा और उन्हें ऐसा मालूम हुआ जैसे सारी अदालत घूम रही है। उनकी जबान बन्द हो गई और वे अपने मुवक्किल की फीस लौटाकर अदालत से उठकर चले गये। जब इतना शर्मीला और दब्बू आदमी भी अपनी इच्छा-शक्ति-मनोबल और दृढ़ चरित्र के बल पर अपने युग का महानतम पुरुष और करोड़ों व्यक्तियों का एक-छत्र हृदय-सम्राट बन सकता है तो फिर कोई कारण नहीं है कि प्रयत्न करने पर आप भी महानता को प्राप्त न कर सकें।

अंग्रेजी की एक सूक्ति का अर्थ है कि “कुछ लोग जन्म से ही महान पैदा होते हैं, कुछ लोगों के ऊपर महानता थोपी जाती है और अधिक लोग उसे सतत परिश्रम करके प्राप्त करते हैं।” प्रयत्नों द्वारा प्राप्त की गई महानता ही सच्ची महानता है क्योंकि ऊपर से लादी गई अथवा मुफ्त में पाई गई वस्तु का उतना महत्व नहीं होता। ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि महानता को प्राप्त करना उतना कठिन नहीं है जितना कि वह समझा जाता है। महानता किसी विशेष व्यक्ति की धरोहर या जागीर नहीं है। प्रयत्न करने पर अत्यंत साधारण व्यक्ति भी महानता को प्राप्त कर सकता है। आप भी महानता को प्राप्त कीजिये।


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