साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए हमारा संगठन

February 1959

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(श्री. शंभूसिंह)

भारतवर्ष का संसार में सदा ही एक विशिष्ट स्थान रहा है। यहाँ के निवासियों ने अपने उच्च आदर्शवाद, नीतिनिष्ठा, सदाचार, संयम, आस्तिकता, सेवा और परोपकार आदि गुणों के द्वारा मानव जाति की भारी सेवा की है।

पिछले डेढ़ दो-हजार वर्षों के अन्धकार के युग में हमने अनेक निधियों के खोने के साथ-2 अपनी इस आदर्श परम्परा को तथा धर्म और संस्कृति को भी बहुत हद तक खो दिया, भुला दिया। अब हमारा राष्ट्र बाह्य दृष्टि से स्वतंत्र हो चुका है परन्तु इस स्वतन्त्र राष्ट्र के अधिकाँश नागरिक आज भी विषयों एवं वासनाओं के गुलाम बनकर अपने देव दुर्लभ मानव शरीर को व्यर्थ नष्टकर रहे हैं। इस प्रकार के आलसी, भाग्य को कोसते रहने वाले तथा फैशन के शिकार नर-नारियों से देश की समृद्धि एवं संपन्नता की योजनायें सफल भी हो जावें तो नैतिक एवं साँस्कृतिक दृष्टि से हम निर्धन ही बने रहेंगे।

इस भौतिक उन्नति की दौड़ में, जहाँ प्रत्येक नर-नारी धनवान बनने की इच्छा से दिन रात व्यस्त है, यह निताँत आवश्यक हो गया है कि उन्हें समय व धन का सदुपयोग सिखाया जाये जिससे वे सादा जीवन उच्च-विचार वाले बनकर सच्चे अर्थों में ऋषियों एवं महात्माओं की सन्तान कहलाने के अधिकारी बन सकें।

आज इस महत्वपूर्ण आवश्यकता, अर्थात् उत्तम व्यक्ति निर्माण की पूर्ति के लिए गायत्री-तपो-भूमि के तत्वावधान में गायत्री-परिवार के परिजन पिछले कई वर्षों से प्रयत्न कर रहे हैं। प्रसन्नता की बात है कि भगवान की कृपा से अपना यह प्रयास सफल होता जा रहा है। अनेकों सेवा-भावी युवक युवतियाँ कन्धों से कन्धा मिलाकर युग-निर्माण संकल्प की पूर्ति के लिये चलने लगे हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण सहस्र कुँडी यज्ञ की पूर्णाहुति थी, जिसमें लाखों बहिन-भाइयों ने वर्ष भर से जप, तप संयम-पूर्वक जीवन व्यतीत कर संगठित होने का प्रमाण मथुरा आकर दिया है।

हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि सच्चे आन्दोलन बातूनी लोगों से नहीं चलते, इसके लिये असली व्यक्ति चाहिये। सच्चे ब्राह्मणों की माँग कभी अधूरी नहीं रहती है। प्राचीनकाल में तो ब्राह्मण का वेश बना लेने से ही लोग सच्चे धर्म प्रेम वाले, कर्ण, हरिश्चन्द्र, आदि का सर्वस्व त्याग लोकहित के लिये करवा लेते थे, परन्तु इस बीते गये जमाने में, जबकि घर के सदस्य भी एक दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखकर अविश्वास करते हैं, तब भी आचार्य जी की “व्यक्ति की माँग“ अधूरी न रह सकी। जनता जनार्दन के सेवक सच्चे त्यागी और वस्तु का सदुपयोग करने वाली ऋषि आत्मा को लोग पहिचान लेते ही हैं। हमारी भारतीय माताओं ने राष्ट्रीय आँदोलनों में कुर्बान होने के लिये अपने पति, पुत्रों को गाँधी जी के हाथ सौंपा था। वही भारतीय वीरांगनाएं अब आचार्य जी को वे नर रत्न सौंप रही हैं जिनकी हड्डियों का वे वज्र बनाकर फैली हुई असुरता का संहार कर पुनः भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करेंगे।

सहस्रकुंडी यज्ञ में 4 व्यक्तियों को धर्म सेवा में आत्म दान देते हुये देखकर सैकड़ों वीरों की आत्मा पर चढ़ी काई धुल गई और उनके आत्मदान के पत्र आ रहे हैं। पूज्य आचार्य जी उनको अपना पुत्र स्वीकार कर उन्हें अभी पारिवारिक उत्तरदायित्व को निभाते हुए अपने उदर पोषण और गृह व्यवस्था से बचे समय और धन को इन सद् विचारों के फैलाने में लगाने की आज्ञा देकर उन्हीं के क्षेत्रों में जागृति करवा रहे हैं जिससे उनकी शक्ति का विकास हो तथा अधिकतम व्यक्तियों को इस प्रकार की भौतिक वस्तुओं की कुर्बानी से, आत्मबल की पूँजी संग्रह करने की प्रेरणा मिले।

अब धार्मिक क्राँति की रणभेरी बज चुकी है। अब भारत की सोई आत्माएं गायत्री माता व यज्ञ पिता की पवित्र लोरियाँ सुनकर अंगड़ाई लेने लगी हैं। इसी के परिवार स्वरूप भारत के कोने-कोने से ‘स्वाहा! स्वाहा!! की ध्वनि आ रही है तथा धार्मिक क्राँति के वीर सेनानी अब अपने तुच्छ भोगों, को मखमली गद्दों को और मिष्ठानों को त्यागकर इस पवित्र क्राँति के सैनिक बनने का प्रार्थना पत्र भेज रहे हैं। इस प्रकार के वीरों का पवित्र उद्देश्य वाला संगठन अवश्य ही नवयुग निर्माण करके रहेगा तथा आचार्य जी की “हमें व्यक्ति चाहिए” वाली माँग को साकार करके रहेंगे जिन्हें वे लेकर साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना में लगायेंगे।

इस समय हमारा देश एक बहुत बड़े संघर्ष के युग में होकर गुजर रहा है। एक तरफ स्वार्थी व्यक्तियों की लालसा जोर पकड़ रही है जिससे सर्वत्र भ्रष्टाचार बढ़ रहा है और दूसरी ओर जन-समुदाय की चेतना जागृत हो गई है जिससे वे अपने न्याय पूर्ण अधिकारों की माँग करने लग गये हैं। ऐसे समय में त्यागी और निःस्वार्थी व्यक्ति ही जनता को मार्गदर्शन करा सकेंगे इसमें संदेह नहीं।


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