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February 1959

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महापुरुषों के उपदेश

आत्म-समर्पण ही मुक्ति का सच्चा मार्ग है। पर जब तक हमारे भीतर अहंकार का कुछ भी अंश शेष रहेगा आत्म-समर्पण सम्भव नहीं हो सकता। बहुत से लोग विचार करते हैं कि हमारा गर्व तो सात्विक है, उसमें कोई हर्ज नहीं। यद्यपि सात्विक अहंकार, राजसिक अथवा तामसिक अहंकार की अपेक्षा श्रेष्ठ दिखाई पड़ता है, पर वास्तव में तो वह अहंकार ही है। सात्विक अहंकार बने रहने से एक दिन राजसिक अथवा तामसिक अहंकार भी उत्पन्न हो सकता है। जहाँ पर सात्विक अहंकार है वहाँ समझ लेना चाहिये कि राजसिक और तामसिक अहंकार भी उसके भीतर सोया हुआ है और वह कभी भी प्रकट होकर विपत्ति उत्पन्न कर सकता है।

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हमारा लक्ष्य एक “आध्यात्मिक मानवता” का ‘देव-जाति’ का उत्पन्न करना है। पर जब तक सब लोग समस्त अहंकार को त्यागकर पूर्ण रूप से विज्ञानमय क्षेत्र में नहीं पहुँच जायेंगे तब तक वह लक्ष्य कभी सम्भव नहीं हो सकता। यह अवस्था भूतकाल में कभी नहीं थी, पर अब उत्पन्न होती जाती है। पर इससे यह मत समझ लेना कि यही विकास का अन्त है। यह जगत अनन्त हैं और इसके विकास की सम्भावना भी अनन्त है। उसमें से कुछ बातें इस युग में पूरी होती दिखलाई पड़ेंगी और अनेक बातें भावी युगों में आयेंगी। “अनन्त” को कोई समाप्त नहीं कर सकता।

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आत्म-समर्पण करना होगा भगवान के पास-मनुष्य के पास नहीं। भगवान ही अनन्त है, मनुष्य तो उसको पाने का एक “बड़ा उपाय” या “साधन” है। साधन को लक्ष्य समझ लेने की भूल कभी नहीं करनी चाहिये।


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