अपने “शत्रुओं” की तरफ से सावधान रहें।

February 1959

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(डॉ. चमनलाल)

प्रकृति का नियम है कि निर्बलों को शक्तिवान दबाया करते हैं। चूहे, कबूतर आदि को बिल्ली, बकरी, भेड़ आदि को शेर दबोच कर खा जाते हैं। दरिद्रों पर धनवान, मातहतों पर ऑफीसर, बालकों पर युवक, अशक्तों पर शक्तिवान अपना सिक्का जमाया ही करते हैं। शक्तिशाली देश निर्बल देशों को परास्त करके उन्हें अपना गुलाम बनाया करते हैं। प्रकृति स्वयं सर्दी व गर्मी के प्रभाव से निर्बलों को दण्ड दिया करती है। निर्बल शरीर के व्यक्तियों को रोग घेरे रहते हैं। मानसिक दुर्बलता के कारण मनुष्य दुःख और चिन्ताओं के चंगुल में फंसे रहते हैं। विचारों में दृढ़ता न होने से किसी काम में सफलता नहीं मिलती। बुद्धि ने अभाव में जीवन क्रम डाँवाडोल रहता है। साँसारिक समस्याओं में उलझा रह कर मनुष्य अपने भाग्य को रोता रहता है, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय के निर्णय करने की शक्ति नहीं रहती। सार यह कि सुखी जीवन व्यतीत करने के लिये शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक व सामाजिक सभी प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता है। शक्ति ही जीवन और निर्बलता ही मृत्यु है।

सेना का प्रत्येक देश में प्रबन्ध इसीलिए रहता है ताकि दूसरों देशों के आक्रमण करने पर उनका मुकाबला किया जा सके और अपने देश की रक्षा की जा सके। इस शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा रूपी छोटे से देश के लिए भी इन बलों की परम आवश्यकता है ताकि आक्रमणकारी शत्रुओं से रक्षा की जा सके। काम रूपी शत्रु अपने अस्त्र-शस्त्र लिए इसी ताक में रहता है। बाजार में जाते हुए स्त्रियों की तड़क भड़क, बनावटी सौंदर्य और फैशन मन में तूफान खड़े किये बिना नहीं रहता। दीवारों पर चिपके हुए फिल्मों के गन्दे पर्चे हमें काल कोठरी में जाकर शूद्रता का परवाना लेने के लिए प्रेरित करते हैं। वहाँ के अश्लील गाने और अर्ध नग्न नाच, वेशभूषा व कामोत्तेजक वार्तालाप वासनाओं को उद्दीप्त किये बिना नहीं रहते। पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगे हुए उपन्यास व पत्र पत्रिकाओं में निकलने वाले लेख इस ओर प्रेरित देने में कुछ कम काम नहीं कर रहे हैं। मित्रों की बातचीत का विषय भी ऐसा ही होकर हमें इस मार्ग में बढ़ाने में सहायक होता है। मन में दूषित विचार उत्पन्न करने वाले यह गन्दे तरीके हमें कुमार्ग में घसीटने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसके दुष्परिणाम इतने भयंकर हैं कि वह हमारे शरीर, मन, बुद्धि आदि सभी को ले डूबते हैं। इसमें हमें हमेशा होशियार रहना चाहिए और अपनी रक्षा के लिए निरन्तर मानसिक युद्ध करते रहना चाहिए।

क्रोध भी हमेशा अपने हाथ में विष का खाना लिए हुए हमें नशेबाज बनाने की चिन्ता में रहता है। अहं की जाग्रति होने पर ही इसकी उत्पत्ति होती है। सहनशीलता बेचारी इसके डरावने आकार को देखकर रफू चक्कर हो जाती है। विवेक भी आगे बढ़ने का साहस नहीं करता। विष का प्याला पीकर हम पागल से हो जाते हैं। बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। आगा पीछे नहीं देखते। इससे हमारी मानसिक व शारीरिक शक्तियों का अपव्यय होता है। इससे हमें खबरदार रहना पड़ेगा, इससे भी संघर्ष करना पड़ेगा।

लोभ रूपी राक्षस दोनों हाथों में हथियार लिए हुए जीवन के प्रत्येक चौराहे पर खड़ा रहता है। यह कुछ ऐसी मैस्मरेजम जानता है कि प्रायः सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। यह अपनी अद्भुत आकर्षण शक्ति द्वारा हजारों लाखों को अपने चंगुल में फँसाकर पथ भ्रष्ट कर देता है। व्यापार, नौकरी आदि सभी क्षेत्रों में इसका फैलाव है। इसकी जड़ों को काटना असम्भव सा दीखता है। फिर भी इसके आक्रमण से बचने के लिए अपने मानसिक बल को बढ़ाकर इससे युद्ध करने को तैयार हो जाना चाहिए। मोह रूपी अज्ञानता हमें निरन्तर दुख देती रहती है। अहंकार रूपी सूक्ष्म शत्रु के हमारे मन में प्रवेश करने से हम अपने आप को भूल जाते हैं, कुछ से कुछ कर बैठते हैं। यही हमें दूसरों से घृणा और नीचता का व्यवहार करने पर बाध्य करता है। थोड़े समय के लिए सम्राट बनाकर हमारे देश की बागडोर अपने हाथ में ले लेता है और अपनी मनमानी करवा लेता है। दूसरों की बढ़ती हुई उन्नति देखकर हमारे मन में ईर्ष्या की अग्नि की ज्वाला धधकने लगती है। अग्नि का गुण जलाना है, वह जलाये बिना नहीं रहती। हमें दीन हीन और दुखी करने के लिए निराशा भी बराबर अपना काम चालू रखती है। परिणामस्वरूप चेहरे पर उदासी और रूखापन दीखने लगता है। गृहस्थ जीवन में चिन्ताओं और समस्याओं की कमी नहीं रहती। अज्ञान, अशक्ति और अभाव भी दुखों की डाली लेकर खड़े रहते हैं। तामसिक व राजसिक आहार भी हमें पतन की ओर ले जाने में कोई कसर उठा नहीं रखते। इसके जाल में मछलियाँ ऐसे फँसती हैं जैसे प्रकाश पर परवाने टूट पड़ते हैं। कुबुद्धि अपना साम्राज्य बढ़ाने में निरन्तर प्रयत्नशील रहती है।

इस प्रकार मनुष्य का यह शरीर, मन, आत्मा रूपी देश निरन्तर बड़े-बड़े शत्रुओं से घिरा रहता है। इनमें से प्रत्येक ऐसा है जो यदि हम पर काबू पा जाय तो हमारे जीवन को नष्ट-भ्रष्ट और दुःखी बना सकता है। पर यदि ये संगठित रूप से हमारे ऊपर हमला करें तब तो हमारा कहीं ठिकाना ही नहीं लग सकता। तब तो हमको इस लोक में क्या परलोक तक में उनके बुरे परिणाम भोगने पड़ेंगे। तब तो शायद हमको मनुष्य योनि से भी गिर कर फिर कीड़े-मकोड़ों की योनि में पहुँच जाना पड़ेगा। इसलिये अगर हम अपना कल्याण चाहते हैं तो हमको हमेशा अपने इन सबसे बड़े शत्रुओं से सावधान रहकर उनके हमले से बचने का ध्यान रखना चाहिये और अपना समय ऐसे कामों में लगाना चाहिये जिससे हमारी बुद्धि “धर्म” की ओर ही अग्रसर होती रहे।


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