मानव-जीवन और संघर्ष

February 1959

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(श्री. योगिराज अरविन्द)

जड़, प्राकृतिक या अन्य शक्तियों के संघर्ष के द्वारा ही इस जगत की प्रत्येक वस्तु जन्म लेती दिखाई पड़ती है। शक्तियों, प्रवृत्तियों, सिद्धान्तों और प्राणियों के परस्पर संघर्ष से ही यह जगत आगे बढ़ता जान पड़ता है। यह सदा नये पदार्थ उत्पन्न करता है और पुराने को नष्ट करता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। यह किधर जा रहा है? इसका किसी को ठीक पता नहीं। कोई कहता है कि यह अपना पूर्ण नाश करने की ओर जा रहा है, कोई कहते हैं कि यह व्यर्थ के चक्कर काट रहा है जिनका कोई अन्त नहीं, और कुछ आशावादी कहते हैं कि ये चक्कर प्रगतिशील हैं और हर चक्कर के साथ जगत अधिकाधिक उन्नति को प्राप्त होता है। रास्ते में चाहे जो कष्ट और गड़बड़ देख पड़े, पर वह जा रहा है किसी दिव्य अभीष्ट के अधिकाधिक निकट ही।

जगत में संहार बिना कोई निर्माण कार्य नहीं होता, परस्पर विरोधी शक्तियों का संतुलन किये बिना कोई सामञ्जस्य नहीं होता। केवल इतना ही नहीं, बल्कि जब तक हम निरन्तर अपने आपको ही न खाते रहें और दूसरों के जीवन को न निगलते रहें, तब तक हमारे इस जीवन का अस्तित्व भी संभव नहीं होता। हमारा शारीरिक जीवन भी ऐसा ही है, यह शरीर भी फौजों से घिरे एक नगर के समान है। आक्रमणकारी सेनाएं इस पर आक्रमण करती हैं और संरक्षणकारी सेनाएँ इसका बचाव करती हैं। इन सेनाओं का काम एक दूसरे को खा जाना है-और यही हमारे सारे जीवन का एकमात्र नमूना है। सृष्टि के आरम्भ से ही मानो यह आदेश चला है कि “तू तब तक विजयी नहीं हो सकता जब तक अन्य प्राणियों से और अपनी परिस्थितियों से युद्ध न करेगा। बिना शुद्ध किये, बिना संघर्ष किये और बिना दूसरों को अपने अन्दर हजम किये तू जी भी नहीं सकता। इस जगत का जो पहला नियम मैंने बनाया वह संहार के द्वारा ही सृष्टि रचना और संरक्षण का नियम है।

अति प्राचीन समय में भारतीय उपनिषदों ने इस बात को बहुत स्पष्ट रूप में देखा और बिल्कुल साफ तथा अचूक शब्दों में इसका वर्णन किया कि ‘भूख’ जो मृत्यु है वही इस जगत का स्रष्टा और स्वामी है। जड़ तत्व को उन्होंने अन्न कहा है, क्योंकि वह खाया जाता है और फिर वह प्राणियों को खा जाता है। “भक्षक, भक्षण करके भक्ष्य बनता है,” यही इस जड़ प्राकृतिक जगत का मूल-सूत्र है। इसी तत्व को इस युग के वैज्ञानिक डार्विन ने फिर से अविष्कृत करके कहा कि “जीवन-संग्राम विकसनशील सृष्टि का विधान है।” इस प्रकार आधुनिक साइंस ने उन्हीं तथ्यों को केवल नवीन शब्दों में ढालकर प्रकट किया है जो उपनिषदों में वर्णित रूपकों में बहुत अधिक जोरदार, व्यापक और ठीक-ठीक अर्थ देने वाले सूत्रों में व्यक्त किये जा चुके हैं।

यह तो स्वतः सिद्ध ही है कि मनुष्य का जो वास्तविक जीवन है-फिर चाहे वह बौद्धिक हो सामाजिक, राजनीतिक हो या नैतिक, उसमें हम बिना संघर्ष के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। अर्थात् जो कुछ इस समय मौजूद है और जो कुछ भविष्य में होने वाला है, इन दोनों के बीच जब तक युद्ध न हो लेगा तब तक हमारी गति रुकी रहेगी। मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में युद्ध इस प्रकार अनिवार्य है।

शान्ति का सच्चा मार्ग-नैतिकता

(महात्मा श्री शम्भूदयाल जी)

आधुनिक वैज्ञानिक समझते हैं कि दुनिया का पार किसी ने नहीं पाया। पर हम उनको बतलाना चाहते हैं कि संसार का पार भारत के ज्ञानियों ने पाया हुआ है। आज के विद्वान कहलाने वाले तो सभ्यता की कसौटी मोटरों, विमानों, पोशाकों, तरह-तरह के बनावटी फैशनों को ही बतलाते हैं। फिर यह बात भला उनकी समझ में किस प्रकार आयेगी कि “जिस सभ्यता की तलाश होनी चाहिये वह अपने खुद के भीतर ही है।”

देवता, ऋषि, मुनि, स्कालट्र या वैज्ञानिक कुछ हद तक माननीय हैं, पर जब तक निष्काम कर्म योग में संसिद्धि न हो, जब तक ये सब कुँए के मेढ़क ही हैं। पूरी मिसिल को जाने बिना फैसला करने से तो अपने को और दुनिया को भ्रम में ही पटकेंगे। समझदार तो जीवात्मा से प्रेम करते हैं। क्योंकि संसार का बीज और फल आत्मा है। फल की प्राप्ति ही शाँति है। दुनिया के स्वाद में पड़ना तो विकारों को इकट्ठा करना है। जितने ज्यादा विकार हों उतना ही हम दुखी होंगे। इसका उदाहरण इस समय प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ रहा है। संसार में सबसे अधिक धनाढ्य देश ही सबसे ज्यादा भूख-भूख चिल्ला रहे हैं।

इन लोगों को कैसे बतलाया जाय कि “तन-मन-बुद्धि की दुरुस्ती ही शाँति का साधन है।” भारत के वेद, उपनिषद्, पुराण, इतिहास, खंडहरों से निकले समान बता रहे हैं कि न जाने कितनी दफे विज्ञान ने हिरण्यकश्यपु, रावण, दुर्योधन आदि के जमाने में तूफान मचाया था। पर दैवी स्वभाव के अनुसार धर्म संस्थाय-नार्थ पुरुष उतरे थे। इस जमाने में भी लँगोटी वाला गाँधी एक अवतार ही था जो एक तार का चर्खा और एक ‘फार’ का हल पकड़ने को बता गया है। उसने ग्राम-राज्य की ओर इशारा किया यह कभी नहीं कहा कि महल, ‘फैन’, लाइट, रेडियो और फैक्ट्रियों से गावों को न्पूयकि बना दो। वे तो यही चाहते थे कि ‘पालिश’ और ‘पालिसी’ को छोड़कर प्राकृतिक रहन-सहन से नैतिकता की वृद्धि करो। यही वास्तविक शाँति और आत्मोद्धार का मार्ग है।

आत्मोद्धार के विपरीत कार्य वे ही हैं जिनमें अन्तःकरण और हाजमे की उपेक्षा की जाती है। जैसे बढ़िया-बढ़िया भोजनों का ढेर, फैशन, सिनेमा, बड़ाई की फिक्र आदि। प्राचीन समय में जब भारतवर्ष उन्नति पर था तो यहाँ गुरु (नेत) की पदवी ज्ञानियों (विवेकियों) के पास थीं जो त्यागी, निष्काम न्यायी और बहुत थोड़े से में जीवन-निर्वाह करने वाले होते थे। उन दिनों राजा लोग विवेकियों की सलाह लिये बिना कुछ नहीं करते थे। गँवार तो वेदों का भी ऐसा ही अर्थ निकालेगा जैसे अस्पताल में घुसकर कोई मूर्ख आँख की दवा पेट में और पेट की आँख में डाल कर रोता है। उसी प्रकार शाँति के लिये तो निष्कामता की पौध लगानी चाहिये। काफी लोगों से तो चाहे जितनी परिषदें और पार्लीमेंटें बनाली जायँ, जब कामना रूपी बिल्ली ‘म्याऊँ’ करेगी तो सद् विचार रूपी सब चूहे अपने बिलों में घुस जायेंगे।

मुद्दत तक गुलामी में रहने से जो लोग इन बनावटी कामों में बुड्ढे हो चुके हैं उनको तो लचकाया नहीं जा सकता। नई पौध के लिये नैतिक पढ़ाई शुरू होनी चाहिये। ऐसे विद्यार्थी ही 33 करोड़ देवता बनेंगे। ‘कामना’ ही तो सब पाप कराती है। जब खान-पान नियमित होगा तब लोग न तो ज्यादा बीमार होंगे, न लड़ाई-झगड़े होंगे और अस्पताल, पुलिस, कारखानों, दफ्तरों की भरमार भी बहुत कम हो जायगी। जब त्यागी की इज्जत होगी तो सब त्यागी बनने की कोशिश करेंगे। रोटी कपड़ा समता से मिलेगा। सदाचारियों का मान होने से दुराचार अपने आप घटेगा। नैतिक शिक्षा शुरू कर देने से रिश्वत, चोरी, डाकाजनी, व्यभिचार, देशद्रोही, जात पाँत का विद्वेष खत्म हो जायेंगे। कामना बढ़ाना और शाँति चाहना तो असंगत बातें हैं।


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