दैवी दण्ड-विधान और हमारे आचरण

February 1959

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र, पी- एच. डी.)

इस विश्व का संचालन एक गुप्त शक्ति द्वारा हो रहा है। उत्थान और पतन नियति के एक सुनिश्चित क्रम और दैवी योजना के अनुसार होते हैं। कुछ काल के लिए इस दैवी व्यवस्था में देर हो सकती है, किन्तु अन्धेर नहीं।

देखा जाता है कि बड़े बड़े राज्य, बड़े संगठन, परिवार इत्यादि जब तक नीति और न्याय का पक्ष लेते हैं, सत्य और विवेक का पालन करते हैं, तब तक फलते फूलते रहते हैं। सत्य, न्याय और प्रेम में ऐसी अद्भुत दैवी शक्ति है, जिसके बल पर संस्थाएँ फलती फूलती हैं, अपना चरम विकास करती हैं, प्रजा समृद्धिशाली होती है, ज्ञान विज्ञान कला वाला होता है, नीति और न्याय की अवहेलना होती है, तो दैवी मार पड़ती है। ईश्वर की ओर से सजा मिलती है, जिससे संतुलन फिर पूर्ण हो जाता है। फिर धर्म, नीति, सत्य और विवेक का राज्य हो जाता है।

रावण एक विवेकी, विद्वान ब्राह्मण था। वर्षों तपस्या की, पर दर्प ने उसे पथ-भ्रष्ट कर दिया, इन्द्रियाँ लोलुपता ने उसकी नीति ज्ञान को भुला दिया, वासनाओं के तूफान से वह विचलित हो उठा। स्वार्थ और अंधकार ने उसे अंधा कर दिया। वह मनमानी करता गया यहाँ तक कि दैवी-विधान को हस्तक्षेप करना पड़ा और दैवी-मार के बाद फिर संतुलन स्थापित हो गया। समुद्र की तरह ऊपर संसार में तूफान रह सकता है, पर गहराई में वह अचल, अविचल और निश्चल दैवी नियम अपनी पूरी शक्ति से काम करता रहता है। परमात्मा की शक्ति और प्रेरणा से संसार में जो शुभ और हितकारी है, सत्य पर आधारित है, वही स्थायी है, वही होगा।

इसी प्रकार कंस पर दैवी मार पड़ी थी और असत्य पथगामी हिरण्यकश्यपु को पछताना पड़ा था। जिस परम सत्ता से सारा लोक, हमारा समाज चलता है, शरीर में सत्य और विवेक का राज्य होता है, उसी सर्वज्ञ पूर्ण, व्यवस्थित सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ परमात्मा की दैवी मार से जीवन की गतिविधि ठीक हो जाती है। सत्य, न्याय, प्रेम और विवेक अपना कार्य करने लगते हैं।

मनुष्य चाहे समाज की दृष्टि से बचकर चुपचाप कोई पाप कर डाले, जंगल में छिपकर किसी की हत्या कर डाले, रात के घनघोर अंधकार में पाप कर ले, लेकिन सर्वव्यापक परमात्मा की दिन−रात, भीतर बाहर सब ओर देखने वाली असंख्य दृष्टियों से नहीं बच सकता। घर-बार, जंगल, समुद्र, आकाश, व्यवहार, व्यापार सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर है। आपकी अलग कोई सत्ता नहीं है। “आप” स्वयं ही अपने अन्दर परमात्मा को बसाये हुए हैं।

मेरी ही उन्नति हो, दूसरे यों ही पड़े रहें, मुझे अर्थ लाभ हो, दूसरे गरीबी में पड़े सड़ते रहें-यह नीति त्रुटिपूर्ण है। हमें समाज, परिवारः राष्ट्र, सब की उन्नति के लिए सामूहिक रूप से सोचना समझना और मिलकर शुभ चिन्तन करना चाहिए। हम एक होकर एक पवित्र मत से शुभ कार्य को प्रारंभ करें।

हम जो बहुत बार एक मत नहीं हो पाते हैं, उसका कारण यह होता है कि हम दैव्य-मन में सोचना छोड़कर असुर मन से विचारने लगते हैं। आसुरी वृत्ति से अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर एक दूसरे पर अविश्वास करते हुए एक दूसरे को तिरस्कृत करते हुए हम चलेंगे, तो कभी कार्य में सिद्धि नहीं पा सकेंगे। आसुरी मन हमारे शुभ संकल्पों को नष्ट कर देता है। क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या आदि उत्तेजनात्मक प्रवृत्तियाँ दैवी मन को कमजोर करने वाली कुप्रवृत्तियाँ हैं।

हमारे अन्तःकरण में शुद्ध अन्तरात्मा हमें दैवी मार्ग दिखाता रहता है। निःस्वार्थ प्रेम और विवेक से युक्त दैवी मन हमारी बहुमूल्य दैवी सम्पदा है। उसे कदापि न त्यागना चाहिए।

सर्व हितकारी कार्यों में लगने से दैवी शक्ति हमारे साथ रहती है। सर्वव्यापक, सर्व समर्थ, सर्व-बलपूर्ण परमात्मा का साथ रहता है। अतः अपने इस दैवी संपर्क को कभी नहीं त्यागना चाहिए। अथर्ववेद में कहा गया है-

सं जानाम है मनसा संचिकित्वा मा युष्महि मनसा

दैव्येन।

मा घोषा उत्स्थुः बहुले विधिहते, मेषुः पप्तत् इन्द्रस्य

अहन्यागते॥

(अथर्व. 7-52-2)

अर्थात् “हम मन द्वारा मिलकर विचारें” और सोचना समझना मिलकर करें। दैव मन से कभी वियुक्त न होवें, बिछुड़ें नहीं। अंधकार आ जाने पर या विशाल द्यावा पृथ्वी के टूटने पर भी हमारे अन्दर हाहाकार के शब्द न उठें और दिन आ जाने पर, अनुकूल स्थिति पा जाने पर ईश्वरीय मार हम पर न पड़े।”

उक्त शब्दों में हमें जीवन के लिए एक बड़ी उपयोगी बात बताई गई है। भयंकर कठिनाई पड़ने पर भी हमें अपना शुद्ध-बुद्ध दैव्य मन नहीं त्यागना चाहिए। क्षुद्र असफलताएँ समयानुसार स्वयं नष्ट हो जाती हैं। कहा गया है कि यदि महा-दारुण प्रलय की रात्रि भी आ जावे और यह विशाल पृथ्वी नष्ट भी होने लगे, फिर भी हमें दैव्य मन से विचलित नहीं होना चाहिए। ईश्वरीय न्याय देर सबेर अवश्य होगा, यह सदा ध्यान रखना चाहिए। संभव है जल्दी आपको अपने लक्ष्य की सिद्धि प्राप्त न हो, किन्तु अटल निष्ठा से सत्पथ पर लगे रहना चाहिए।

रात्रि के बाद दिन आता है। काले काले भयंकर बादल बरसने के बाद पुनः स्वच्छ नीला आकाश दिखाई देने लगता है। सूर्य की निर्मल किरणें फूटती हैं। इसी प्रकार कठोर स्थिति के बाद सुखद स्थिति आ जाती है उसके साथ ही और अनुकूल अवस्था आ जाती है।

लेकिन जो दैवाज्ञा की अवहेलना कर झूठ, कपट, भ्रष्टाचार, लूटमार, चोरी, डकैती, अनैतिक कर्मों द्वारा भगवान को धोखा देने का प्रयत्न करते हैं, वे बाद में पछताते हैं और अपनी वर्षों की अर्जित पूँजी को भी खो बैठते हैं। दो एक उदाहरण लीजिए।

एक पचास वर्षीय सेठ को विवाह की सूझी। सबने समझाया कि अब तो साँसारिक जीवन से मुक्त होना चाहिए और इन्द्रिय-जन्य सुखों से निवृत्त होना चाहिए, किंतु वे न माने। धन का अटूट भंडार उनके पास था। उसके लोभ में उन्हें एक नारी मिल गयी। कुछ वर्ष बीते, उनके बच्चे उत्पन्न हुए। नारी दुश्चरित्रा निकली। उसकी अपकीर्ति फैलती गई। अन्य व्यक्तियों से होने वाले अनैतिक संबंध प्रकट हो गए। इसी मानसिक दुःख में सेठजी स्वर्गवासी हुए। उस नारी के संसर्ग में धन के लोभ से आने वाले व्यक्तियों ने धीरे-धीरे सारा माल हड़प लिया। आज उस स्त्री के कई पुत्र और कन्याएँ अपना सब कुछ बेच दाने-दाने को मुहताज हो रहें हैं। दैवी मार उस पूरे परिवार पर ऐसी पड़ी कि सब नष्ट हो गया।

एक पुलिस के एस.पी. बहुत रिश्वत लेते थे। चारों ओर अमीरी और शान शौकत थी। ऐश्वर्य का विलास था। सोचते थे जीवन यों ही मस्ती और शान से चलता जायगा। एक बार रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़े गये। नौकरी छूटी। समाज में अपमानित और दण्डित भी हुए। पुराना जोड़ा हुआ सब व्यय हो गया।

सदा ईश्वर के नेत्र हमारे अच्छे-बुरे कार्यों और मन्तव्यों को देखते रहते हैं। हमें सदा सत्य, न्याय, ईमानदारी की कमाई का, उचित अनुचित का, विवेक जागरुक रखना चाहिये। विषय भोगों और इन्द्रिय लोलुपता में नहीं पड़ जाना चाहिये। अन्यथा दैवी मार बुरी तरह हम पर पड़ती है। ऐसे ही समय इन्द्र वज्र गिरा करता है। बड़े-बड़े साम्राज्य जो अपने बड़े शत्रुओं के आक्रमणों को सह जाते हैं, ईश्वरीय मार से पस्त होकर मिट्टी में मिल जाते हैं।

आपके अन्दर जो दैवी मन है, जो सत् और असत्, विवेक, अविवेक, का अन्तर बतलाता है, उसे जगाये रखना चाहिए।


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