परेशानियों की दवा स्वयं आपके पास है।

November 1958

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र पी. एच. डी.)

एक महाशय लिखते हैं, “मुझे मिठाई खाने का बेहद शौक है। उसे “शौक” क्या कहूँ। उसे तो “व्यसन” कहना ही अधिक उपयुक्त होगा। कारण यह है कि मैं अपनी मिठाई खाने की आदत को रोक नहीं पाता हूँ। मेरे पास जो भी पैसे जेब में होते हैं, सब मिठाई वाले छीन लेते हैं। जब कभी मिठाई की दुकान के सामने से गुजरता हूँ, तो चुम्बक की तरह बुरी तरह उधर ही खिंचा चला जाता हूँ जैसे चिड़ियाँ अजगर के मुँह में खिंची चली जाती हैं। नकद हुआ तो नकद वर्ना मैं मिठाई उधार लेने में भी नहीं चूकता। सभी मिठाई वालों का कुछ न कुछ कर्ज निकलता है। पत्नी परेशान है कि मैं बड़ा फिजूल खर्च बन गया हूँ। यह सभी तो मैं किसी प्रकार भुगत रहा था। अब डॉक्टर ने बताया है कि मुझे डाइबिटीज (मूत्र में शक्कर आने का रोग) हो गया है और इसी क्रम से चलता रहा तो मौत के मुँह में पहुँच जाऊँगा। कुछ ऐसा उपाय बताइये कि इस परेशानी से मुक्ति मिले। मेरा रोग मानसिक है। इस कृपा के लिए आजन्म ऋणी रहूँगा।”

वास्तव में उपर्युक्त महाशय का रोग मानसिक है। शफाखाने में उसकी कहीं भी दवाई नहीं मिलेगी। दवाइयों की फेहरिस्त में शायद ही कहीं ऐसी बीमारी का उल्लेख हो। किसी हकीम या वैद्य के पास उसका नुस्खा नहीं है। रोगी महाशय ने स्वयं ही इस नई मानसिक व्याधि को जन्म दिया है। इसी प्रकार की नाना व्याधियों को हम स्वयं जन्म दिया करते हैं। अपने मन में विकार उत्पन्न कर लेते हैं। उनकी दवा भी स्वयं हमारे पास है।

हमारा मन कुछ ऐसा लचीला है कि विपरित दिशा में ढीला छोड़ देने पर कोई बहम, कोई चिन्ता कोई मानसिक परेशानी या व्याधि उसमें घर कर लेती है। रोग और विकार के कीटाणु बहुत जल्दी हम पर अधिकार कर लेते हैं। मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि हमारी भावना हमारे विवेक की अपेक्षा अधिक बलवती शक्ति है। भावना का हम पर अखण्ड राज्य रहता है। हम जिस भावना में बहते रहते हैं उसे विवेक नहीं रोक पाता। अनेक बार भावना विवेक को दबा कर हमसे ऐसे कार्य करा लेती है, जिन्हें हमारा विवेक उचित नहीं समझता। होना यह चाहिए कि विवेक का हम पर सदा नियंत्रण रहे। हमारी बुद्धि जिसे उचित कहे, वही हम करें, विवेक जिधर चलाये उधर चलें। भावना और विवेक का सन्तुलन ही मनुष्य को मानसिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ रखता है।

उपर्युक्त रोगी के रोग का कारण भावना का अनियंत्रण ही है। उसका विवेक इतना कमजोर हो गया है कि वह भावना को उचित दिशा में नहीं चला पाता। भावना मनमानी करने पर तुली हुई है। भावना में मिठाई खाने की इच्छा भरी हुई है। यह कभी पूरी नहीं हो पाती। यह अतृप्त इच्छा बचपन में बच्चे को मिठाई न मिलने के कारण गुप्तमन में प्रविष्ट हो कर एक जटिल भावना ग्रन्थि बन गई है। जिन बच्चों को बचपन की गरीबी या असमर्थता के कारण कुछ वस्तुएँ प्राप्त नहीं होतीं, उनकी वे अपूर्ण इच्छाएँ गुप्त मन में बैठ कर शरीर पर अपनी प्रति क्रियाएं करती रहती हैं। ऐसी ही प्रतिक्रिया उपर्युक्त मानसिक रोगी की है।

उसे चाहिए कि अपने विवेक को मजबूत करे। दृढ़ता से मन में यह प्रण करे कि मैं मिठाई नहीं खाऊँगा, क्योंकि यह हानिकर है। बार-बार मिठाई खाने की हानियों पर चिन्तन करने से वह ग्रन्थि समाप्त हो सकेगी।

दूसरा उपाय यह है कि एक दिन खूब मिठाई खाये। भूख लगने पर मिठाई ही मिठाई खाये। इतनी खाये कि कय होने लगे। मिठाई से विरक्ति हो जाय। उधर को फिर मन ही न चले। जिस चीज की एक बार अधिकता हो जाती है, उधर से स्वयं तृप्ति हो जाती है। गुप्त मन की अतृप्ति दूर हो जाती है।

तीसरा उपाय यह है कि आप अपने मन को अन्य उपयोगी, स्वस्थ और दूसरे प्रकार के कार्यों में सदा इतना व्यस्त रखें कि इस ओर सोचने का मौका ही न मिले। खाली मन शैतान का घर है। यदि उसे किसी उपयोगी काम में लगाये रखें, तो वह मिठाई के भ्रम में लिप्त न होगा। बेकार और निठल्ले रहना स्वयं एक प्रकार का मानसिक रोग है। निरन्तर उपयोगी कामों में व्यस्त रहने वाले व्यक्ति पूर्णतः मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रहते हैं। अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय कीजिए, आत्मसुधार विषयक पुस्तकें पढ़िये। मन में स्वस्थ विचार रखिए, निरक्षर व्यक्तियों को पढ़ाइये सार्वजनिक कार्यों में अपने समय का सदुपयोग कीजिए। बागवानी या संगीत विद्या सीखिए। बस आप इन मानसिक रोगों को समूल निकाल फेंकेंगे। याद रखिए, आपके मानसिक रोगों का इलाज स्वस्थ चिन्तन और व्यस्तता ही है।


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