काँटे मत बोओ

November 1958

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(श्री रामेश्वर शुक्ल “अंचल”)

यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम से कम मत बोओ॥

है अगम चेतना की घाटी, कमजोर बड़ा मानव का मन, ममता की शीतल छाया में, होता कटुता का स्वयं शमन। बाधायें गलकर रह जातीं, खुल-खुल जाते हैं मुँदे नयन, होकर निर्मलता में प्रमत्त बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन।

संकट में यदि मुस्का न सको, भय से कातर हो मत रोओ। यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम से कम मत बोओ॥

हर सपने पर विश्वास करो, लो लगा चाँदनी का चन्दन, मत याद करो सोचो ज्वाला में कैसे बीता जीवन। इस दुनिया की है रीत यही, सहता है तन बहता है मन, दुःख की अभिमानी मदिरा में, जो जाग सके वह है चेतन।

तुम इसमें जाग नहीं सकते, तो सेज बिछा कर मत सोओ, यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम से कम मत बोओ।

पग-पग पर शोर मचाने से मन में संकल्प नहीं जमता, अनसुना अनचीन्हा करने से, संकट का वेग नहीं कमता। संशय के किसी कुहासे में, विश्वास नहीं पल भर जमता, बादल के घेरे में भी तो जयघोष न मारुत का थमता।

यदि विश्वासों पर बढ़ न सको, साँसों के मुरदे मत ढोओ। यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम से कम मत बोओ॥


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