मूक-वेदना (Kavita)

November 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मिट्टी का है देह-दीप, जलना मेरा इतिहास है।

किन्तु स्नेह से सनी एक सोने की लौ भी पास है॥

अंग-अंग अंगारों से शृंगार किए फिरता हूँ,

मुझे तृष्णा की जलन नहीं है, आग पिए फिरता हूँ;

मैं अकंप हूँ मुझे मरण की चिन्ता छू न सकेगी-

मैं अपनी बाँहों में अपनी चिता लिए फिरता हूँ;

सघन अमावस कजरारी सोती चरणों के नीचे-

मन में चाँद छिपा है, प्राणों में पूनम का ह्रास है!

जिन दो श्वासों ने काया से जीवन-ज्वाला बाँधी,

मुझे बुझा देगी कल पल में इन श्वाँसों की आँधी;

अस्त हुई संध्या अतीत-सी, निकट भविष्य सवेरा-

क्षण-क्षण,पल-पल,तिल-तिल जलकर बीत गई निशि आँधी;

आएगा प्रभात पतझड़ लेकर मेरे जीवन में-

एक रात के लिए मिला यह मुझे ज्योति-मधुमास है।

पंथ निहारा करता हूँ मैं रातों जग कर जल कर,

किसी रात आए वह छलिया गया मुझे जो छल कर;

लौ मत समझो इसे, प्रतीक्षा की अति व्याकुलता में-

बाहर है आ गया देह से मेरा हृदय निकल कर;

आओ निर्मम, अब आँसू के फूल लगे मुरझाने-

आज शूल-सी गड़ती मेरे उर में मेरी श्वास है।

धूम्र-अक्षरों से लिखता हूँ मैं ये पाँते काली,

मेरे प्राणों की होली को जग कहता दीवाली;

जाग-जाग कर उसे सुलाने को लोरी गाता हूँ-

जिस ने रातों को मेरे नयनों की नींद चुरा ली;

बाती की वंशी पर किसने दीपक राग बजाया,

पहन ज्योति का चीर प्राण में पीर रचाता रास है।

जिस दिन ज्वाला से तुम ने मेरा अभिषेक किया था,

हृदय जला कर प्रभा लुटाने का वरदान दिया था;

और कहा था ज्वालामुखी जले पर आह न करना-

किरण-तार से मैंने निज अधरों को तभी सिया था;

उस दिन से ही इन काजल की काली रेखाओं से-

मूक-वेदना अंकित करने का मुझको अभ्यास है।

*समाप्त*

(श्री मंजुल मयंक)


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles