मानवता की पुकार

November 1958

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(श्री राम कृष्ण डोंगरे)

आज का युग आडम्बर का है, आवरण कुछ है तो विचार प्रवाह कुछ। करना है कुछ तो बतलाना कुछ, यह है आज की दैनिक-चर्या! इन बातों से ओत-प्रोत रहने पर मनुष्य अपने निजी स्वार्थ की कामना रखता है, संसार की प्रत्येक वस्तु को अपना समझ बैठा है-सिर्फ असत्य अत्याचार व अन्याय के सहारे और अपने को साँसारिक उपलब्ध वस्तुओं का स्वामी मान बैठा है-जबकि गीता अध्याय 9।16 का छंद इसका स्पष्टीकरण करता है कि! यह बपौती तूने किससे पाई तू कौन है क्या वास्तव में तूने अभी तक अपने को नहीं पहिचाना तो सुन, और कान खोलकर सुन?

अहं क्रतु रहं यज्ञः स्वधाहमहामौषधम्। मन्मोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥

अर्थात्—क्योंकि क्रतु अर्थात् श्रौत कर्म मैं हूँ, यज्ञ अर्थात् पंच महा यज्ञादि स्मार्त कर्म मैं हूँ, स्वधा अर्थात् पितरों के निमित्त दिया जाने वाला अन्न मैं हूँ, औषधि अर्थात् सब वनस्पतियाँ मैं हूँ, एवं मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवन रूप क्रिया भी मैं ही हूँ।

द्वापर में भगवान् श्री कृष्ण स्वयं शक्ति के अथाह समुद्र थे, वे चाहे जो भी कर सकते थे किन्तु स्वयं अकेले ही सब कुछ संपन्न कर लेने से विश्वास अविश्वास में बदल जाता, और मानवता जागृत नहीं होती, और मानवता का संगठन सहयोग जनबल पर आधारित न रहता। उसी जनबल को लेकर ही गोवर्धन पर्वत को अपने समस्त ग्राम्य-वासियों, गौओं, गोपिकाओं सहित उन्हीं के हाथों व लकड़ियों के सहारे 7 दिवस तक अधपर गिरिराज का रक्खा तथा सबकी रक्षा की, और सभी को यह आश्वासन देते रहे कि यह पर्वत आप लोगों के ही सहारे खड़ा है। तुम्हारे सहयोग से ही इन सब प्राणियों की रक्षा हो रही है। यदि वह चाहते तो एक ही क्या कितने पर्वतों को एक ही क्षण में रसातल भेज देते, केवल नाम मात्र के अपनी अँगुली पर्वत में लगाये थे और ब्रज वासियों की क्या सामर्थ्य थी कि वे गिरिराज को लाठियों के सहारे उठाये रखें तथा इन्द्र के प्रकोप का मुकाबला करें। फिर भी सभी ब्रजवासी कृष्ण और धेनु सहित गिरि की छाया में बैठे अपने-2 पराक्रम की सराहना स्वतंत्र विचारों से कर रहे थे, यह तमाशा स्वर्ग के सभी देवगण विस्मय से देख रहे थे।

भगवान श्री कृष्ण ने यह सिद्ध कर दिया कि मैं ही बड़े पर्वत को उठा नहीं सकता, इसमें आप सब लोग का बड़ा सहयोग है और इसी सहयोग के बदौलत यह पर्वत स्थिर है—तो आज के युग में किसी खास कर्म काँड का निर्विघ्न सम्पन्न हो जाना किसी एक के काबू के बाहर की बात है। वायु के प्रत्येक कण-कण में आसुरी तत्व इतने बढ़े चढ़े हैं कि यदि आप कोई धार्मिक कार्य सोचें कहे तो वह बात हवा में फैलकर उन तत्वों तक सहज में पहुँच जाती है, और वे आपके कार्यक्रम का ह्रास करते हुये अपने जी जान से उस कार्य को खण्डित करने में अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं। इनका प्रथम आक्रमण मनुष्य के मानसिक विचारों को गलत दिशा में मोड़ना या उनमें अनुत्साह पैदा करना, आलस में दबा देना है। बाद में क्रिया पद्धति का प्रश्न आता है? इसलिए मनुष्य को प्रत्येक कार्य करने के पहिले अपने निश्चय को अटल और गुप्त रखना, क्योंकि जीवन मूल्य अपने अटल निश्चय से कम है। अपने आत्मीय अटल विश्वास पर अपने प्रत्येक साधन को जुड़ाकर उसे सफल बनाना अनिवार्य है।

आज के इस युग में मथुरा में चल रहे महान प्रभावशाली, सब शक्तियों से सम्पन्न इस ब्रह्मास्त्र महायज्ञ जैसे धार्मिक कार्य में सबको अपना आर्थिक शारीरिक सहयोग देना मानवता का कर्तव्य है कलियुग में इस महान यज्ञ का होना एक महान आश्चर्य की बात है, और फिर भी कुछ समय में सम्पन्न हो रहा है। और हो जायगा, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। इसलिए बहती गंगा में हाथ धोना गोवर्धन पर्वत के उठाने के सहयोग से कोई कम नहीं है। इस यज्ञ में किसको क्या सिद्धि मिल जाय, उसके लिए उसका पाने वाला ही अनुभव कर सकता है। मनुष्य की कोई ऐसी शक्ति नहीं कि अकेले इस पर इस महान यज्ञ जैसे कार्य को सफल बनावे, जब कभी किसी घर एक बारात आती है, तो वह उसी के ही इन्तजाम में चकरा जाता है, और जल्दी जल्दी निपटाने की कोशिश कर 24 घण्टे में विदा कर देता है। एक सत्यनारायण की कथा करने में मनुष्य अपनी हैसियत टटोलता है और परेशानी का अनुभव करता है। किन्तु आज ही 1000 कुण्डों की 101 यज्ञशालाओं में 1 लाख व्यक्तियों द्वारा 240 लाख आहुतियों का यज्ञ विभिन्न शक्तियों को संगठित करके संपन्न हो रहा है। वैसे सुनने वालों का कलेजा काँप जायगा, विश्वास होना भी कठिन है। अगर कोई मानेगा भी तो इस यज्ञ का प्रधान कार्यकर्त्ता तो एक ईश्वर ही है क्योंकि ऐसा कठिन कार्य मनुष्य की शक्ति की बात नहीं।

इस आयोजन का मूल सिद्धान्त है कि संसार धर्ममय हो, प्रत्येक घर देवालय बने, कुटुम्ब बने, कुटुम्ब में सुख शाँति रहे, आपसी बैर भाव न हो, मनुष्य अपने अपने कर्त्तव्य को पहिचाने, तथा अपने ऊंच-नीच कर्मों का ध्यान रखे, एवं धर्म की ओट में धार्मिक कार्य ही करें, अपने मन वचन कर्म से पवित्र रहे। साथ ही जनबल के सहयोग व उनके सद्भावों में प्रेरणा देकर उन्हें और अधिक उत्साहित करे। अनुचित आवरणों को हटा कर उन्हें उनके सही स्वरूप में बतलावें। ये बातें सभी को ध्यान में रखना है, एकता की रोटी को मिल बाँटकर खाना सबका उद्देश्य हो। समय तो गुजर रहा है और अत्यधिक तीव्रगति से न मालूम किस अँधेरे गर्त की खोह में जा रहा है। उसकी गति का मुकाबला कोई कर सकता है तो जनबल की आत्मा का सहयोग। भारत में अभी 9 माह से गायत्री तपोभूमि में चल रहे ब्रह्मास्त्र महायज्ञ में यही जन शक्ति सन्निहित है और उसे सफल बनाना आज की मानवता का कर्त्तव्य है। याज्ञवलक्य में लेख है—अनाहूतोऽध्वरं ब्रजेत अर्थात्—बिना बुलाए भी यज्ञ में सम्मिलित होना चाहिये मनुष्य को अपनी पूर्ण श्रद्धा से अपने विश्वास से जो भी कुछ लेकर यज्ञ में आहुति डालना चाहिये, और यह ध्यान रखना चाहिये कि हे यज्ञदेव!

यदग्ने कानि कानि चिदति दारुणि दध्यसि ताजुषस्वय विष्ठव

नहि ये अत्यध्यना न स्वधितिर्वनन्वति

ऋग्वेद। 8। 102, 19, 20

अर्थात्—हे अग्निदेव! मैं केवल छोटी-छोटी समिधायें लाया हूँ इन्हें ही स्वीकार कीजिये, मेरे पास न तो घी उत्पन्न करने वाली गौ है और न पेड़ काटकर बड़ी समिधायें ला सकने लायक कुल्हाड़ी है। इसलिए जो कुछ लाया हूँ उसे ही स्वीकार कीजिये।

जीवन बहुत महंगा है किन्तु मौत सस्ती है। इसलिए इस नश्वर शरीर से इतना मोह क्यों?


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