महायज्ञ में आने से पूर्व

November 1958

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इन आवश्यक बातों को भली प्रकार समझ लीजिए?

गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति का समय अब बिलकुल समीप आ गया। परिजनों के पास महायज्ञ सम्बन्धी कोई सूचनाएं पहुँचाने के लिए यह अन्तिम अंक है। इसलिए जो बातें नीचे की पंक्तियों में दी जा रही हैं। उन्हें बहुत सावधानी से पढ़ना चाहिए।

(1) महायज्ञ का कार्यक्रम बहुत विशाल है। अपने साधन बहुत स्वल्प हैं। यथासंभव आवश्यक व्यवस्थाएं पूरी करने के लिए शक्ति भर प्रयत्न किया जा रहा है। फिर भी स्वल्प साधनों के कारण कुछ ऐसे अभाव रह जाने स्वाभाविक हैं जिनके कारण आगन्तुकों को कुछ असुविधाएं रहें। हर याज्ञिक हो कुछ असुविधाएं सहने के लिए तैयार होकर आना चाहिये। प्राचीन काल में धर्म भावना वाले लोग समय-समय पर कुछ दिनों के लिए तप करने वन, पर्वतों में जाते थे और वहाँ के कष्ट साध्य जीवन का अभ्यास करते थे। दस पाँच दिन के यज्ञ काल को भी हर आगन्तुक को तप, साधना का एक महान् अवसर मानना चाहिए और यहाँ अनेक प्रकार के अभाव तथा असुविधाएं सहन करने के लिए तैयार होकर आना चाहिए।

(2) ठहरने के लिए प्रायः सभी आगन्तुकों हेतु तम्बू छोलदारियों की व्यवस्था पूरी हो गई हैं। तपो-भूमि से आगे बिरला मन्दिर की दिशा में सड़क के किनारे प्रायः सभी खाली जगह जमीनें ठहरने के लिए निश्चित कर ली गई हैं। यज्ञ नगर इसी भूमि पर बसाया जा रहा है। प्रत्येक प्रान्त के ठहरने के अलग-अलग ब्लॉक बनाये गये हैं। गोल घेरे में चारों ओर ठहरने के स्थान और बीच में एक बड़ी यज्ञशाला इस क्रम से यज्ञ नगर बसाया गया है। ताकि हर प्रान्त के लोग अपने समीप यज्ञशाला में आहुतियाँ दे सकें। इसी प्रकार भोजन-शालाएं भी एक न रह कर कई रहेंगी ताकि लोगों को भोजन के लिए बहुत दूर न जाना पड़े।

(3) पहले 10-10 कुण्डों की 101 यज्ञ शालाएं बनाने का विचार था जिससे शाखाएं एक-एक यज्ञ-शाला का प्रबन्ध अपने हाथ में ले सकें, पर अब यज्ञ-समिति ने स्थान संबंधी कठिनाई तथा छोटे-छोटे टुकड़ों से समुचित शोभा न होने तथा 100 लाउडस्पीकर व 100 आचार्य ढूँढ़ने की कठिनाई आदि बातें सोचकर वह विचार बदल दिया है और बड़ी बड़ी विशाल यज्ञ शालाएं बनाने का निश्चय किया है। अब नये नक्शे बनाये जा रहे हैं। जिनमें लगभग 10 यज्ञ शालाओं से ही 1000 कुण्ड पूरे हो जाएंगे।

(4) यज्ञ-नगर के समीप ही यमुना तट तथा बड़ा जंगल है। वहाँ शौच,स्नान की पूर्ण सुविधा है। फिर भी पैखाने, पेशाब घर तथा स्नान-गृह बनाये जा रहे हैं। यों उन दिनों उजाली रातें हैं फिर भी बिजली का सर्वत्र प्रबंध रहेगा। कदाचित बिजली फेल हो जाय तो गैस के हण्डे इतने रहेंगे जिससे प्रकाश का अभाव अनुभव न हो। प्रत्येक टेण्ट में एक-एक घड़ा पानी रखा रहेगा। तम्बुओं में नीचे जमीन पर बिछाने के लिए कोई प्रबंध अभी नहीं हो सका है। चटाइयां खरीदने में खर्च बहुत पड़ेगा, इतनी बड़ी संख्या में फर्श भी मिलने कठिन हैं। फिर भी कोई न कोई उपाय ढूँढ़ा जा रहा है। संभव है कोई व्यवस्था न भी बन पड़े। ऐसी दशा में जमीन पर बिछाने के, ओढ़ने के वस्त्र समुचित मात्रा में ही लेकर आना चाहिए। अपना लोटा भी साथ लाना आवश्यक है। बिस्तर और लोटे के बिना ऐसे अवसरों पर भारी असुविधा उठानी पड़ती है।

(5) यज्ञ करते समय यज्ञशाला पर हर याज्ञिक पीली धोती, पीला कुर्ता तथा पीला दुपट्टा ही पहन कर बैठेगा। इसलिए अपने वस्त्र-धर्म और साधना के प्रतीक पीले रंगे हुए कपड़े हर याज्ञिक को अपने साथ लाने चाहिएं। नेकर, पेंट, पजामा यज्ञ करते समय पहन कर न बैठा जा सकेगा। इसलिए आवश्यक वस्त्रों समेत ही सबको आना चाहिए। यों रास्ते में आते समय तथा यज्ञ के दिनों पूरे समय ही पीले वस्त्र पहने रहना उचित है, पर यदि इसमें किसी को संकोच हो तो कंधे पर पीला दुपट्टा तो यज्ञीय पोशाक की तरह सबको पहनना ही चाहिए।

(6) महिला और पुरुषों का कोई भेद यज्ञ में नहीं है। दोनों का समान स्थान तथा समान अधिकार है। यज्ञ के प्रबन्ध तथा व्यवस्था में भी वे समान रूप से भाग लेंगी। यज्ञ में आने वाली महिलाओं में से जो उत्साही तथा क्रिया कुशल हों वे प्रबन्ध तथा स्वयं सेविकाओं में काम करने के लिए अपना नाम पहले ही भेज दें ताकि उनके जिम्मे के काम पहले ही सोच रखे जावें। जिनके बच्चे बहुत छोटे हों, वे न आवें तो ही ठीक है। यदि आना ही हो तो बच्चों की सुव्यवस्था का समुचित प्रबन्ध करके ही आना चाहिए ताकि उनके निवास आदि का कुछ अतिरिक्त प्रबन्ध सोचा जा सकें। जेवर पहन कर कोई स्त्री, पुरुष न आवे। जेवर पहनना एक तो अर्थ अपव्यय, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चोरों की ललचाने वाली तथा अहंकार पैदा करने वाली बुराई है। इसे कम से कम यज्ञ समय में तो छोड़ना ही चाहिए। साथ ही ऐसे अवसरों पर उनके खोने तथा चोरी जाने का भी बड़ा भय रहता है।

(7) घर से चल कर मथुरा तक आने में हर याज्ञिक को धर्म प्रचार करते हुए आना चाहिए। कीर्तन, भजन करते आने से दूसरों के कानों में धार्मिक भाव पहुँचते हैं। रास्ते में यज्ञ का प्रचार करते हुए आना चाहिए। रेल में, मोटर, पैदल जिस प्रकार भी आना हो, मार्ग में मिलने वालों को यज्ञ सम्बन्धी साहित्य बाँटते आना चाहिए। इस कार्य के लिए कम से कम एक रुपये के छोटे पर्चे पोस्टर हर याज्ञिक को मँगा लेने चाहिएं। इनमें से आधे तो अपने निवास स्थान के आस-पास क्षेत्र में तथा आधे रास्ते में बाँटते आना चाहिए। कोई याज्ञिक सूनी, गुम-सुम धर्म प्रचार विहीन यह यज्ञ की यात्रा न करे।

(8) जिन्होंने होता यजमान बनाये हैं, उन कार्य-कर्ताओं को यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि उन आने वाले की यात्रा कष्टकर न हो। साथ न मिलने से, अकेले लम्बी यात्रा करने में अनेक लोग घबराते हैं। इसलिए सबको साथ लाने, रास्ते में उनकी देख-भाल करने तथा मथुरा में भी सब प्रकार का प्रबन्ध करना चाहिए।

(9) स्थान की कमी और आगन्तुकों की संख्या अधिक होने स यज्ञ-नगर बहुत घना बसाया जा रहा है। तम्बू डेरे आपस में बहुत ही घने लगे होंगे। सामने निकलने की सड़कें भी छोटी होंगी। ऐसी दशा में स्वतन्त्र भोजन बनाने की सुविधा न रहेगी। असावधानी से एक भी आग की चिनगारी सारे तम्बू डेरों को भस्म कर सकती है। फिर भोजन बनाने में जो धुआँ, आग, बर्तन माँजने, आटा, दाल फैलने की गंदगी बढ़ती है वह भी अव्यवस्था फैलायेगी। इसलिए अपना-अपना भोजन बनाने का प्रबन्ध यहाँ न बन सकेगा। सभी आगन्तुकों के लिए यज्ञ प्रसाद के रूप में दोनों समय भोजन की पूर्ण व्यवस्था रहेगी।

(10) आने वाले याज्ञिकों के लिए भोजन की निःशुल्क व्यवस्था की गई है। पर यह भोजन सस्ते मूल्य का और सात्विकता प्रधान होने से कम स्वाद का होगा। जिनको ऐसा भोजन रुचिकर न हो वे भोजन की अपनी स्वतन्त्र व्यवस्था कर सकते हैं। यज्ञ-नगर में पूड़ी, मिठाई आदि की अनेकों दुकानें दुकानदार लोग लगावेंगे।

(11) मथुरा जंक्शन रेलवे स्टेशन पर ही सब आगन्तुकों को उतरना चाहिए। वहाँ से तपोभूमि जाने के लिए बसें, ताँगे, रिक्शे तैयार मिलेंगे। जंक्शन पर ही तपोभूमि के स्वयं-सेवक हर ट्रेन पर उपस्थित रहेंगे, जो आगन्तुकों को यज्ञ-नगर तक पहुँचाने के लिए सवारी का प्रबन्ध करने में सहायता करेंगे। कानपुर की तरफ से छोटी लाइन से आने वालों को यद्यपि मथुरा केन्ट स्टेशन पहले और जंक्शन बाद में आता है। तो भी उन्हें केन्ट पर न उतर कर जंक्शन पर ही उतरना चाहिए। क्योंकि स्वयं सेवकों की और सवारी की सुविधा जंक्शन पर ही रहेगी।

(12) यज्ञ कार्य ता. 23 को प्रातः 7 बजे से शुरू होगा। देव पूजा आदि कार्य ता. 22 को ही पूरे कर लिये जावेंगे। प्रतिदिन प्रातः 7 से 11 तक यज्ञ, 11 से 2 तक भोजन विश्राम, 2 से 5 तक प्रवचन, 5 से 7॥ तक नित्य कर्म भोजन, 7॥ से 10 तक प्रवचन यह कार्य-क्रम रहा करेगा।

(13) यज्ञोपवीत संस्कार तथा मंत्र दीक्षा का कार्यक्रम ता. 23 को प्रातःकाल ही होंगे। ता. 22 की शाम तक मथुरा सभी को पहुँच जाना चाहिये।

(14) यज्ञशाला पर केवल अधिकारी याज्ञिक ही प्रवेश करेंगे बहुत छोटे बच्चों का यज्ञशाला पर चढ़ना निषिद्ध होगा। बच्चे वालों को ऐसी व्यवस्था रखनी होगी कि बालक यज्ञशाला पर चढ़ने के लिए मचलें नहीं। पैर धोकर ही यज्ञशालाओं पर चढ़ना चाहिए इसका सब लोग ध्यान रखें।

(15) व्यवस्था के लिए बड़ी संख्या में प्रबंधकों तथा स्वयं सेवकों की आवश्यकता होगी। जो लोग अपने आपको इन दोनों कार्यों के उपयुक्त समझते हों वे कुछ दिन पहले आने की कृपा करें ताकि यहाँ की स्थिति और आवश्यकता को समझ कर तदनुसार कार्य को समझ सकें। ऐसे सहयोगी तथा सुयोग्य व्यक्ति दिवाली बाद तीज को ही आने का प्रयत्न करें।

(16) उपाध्यायों का दीक्षान्त तथा पदवी दान संस्कार ता. 24 को होगा। उन्हें किन्हीं विशिष्ट व्यक्ति द्वारा सम्मान पत्र, प्रमाण पत्र दिये जावेंगे। जिन्होंने अपने यहाँ ज्ञान-मन्दिर स्थापित कर लिये हैं तथा उन ज्ञान-मन्दिरों को चालू कर देने के प्रमाण स्वरूप दस नहीं तो कम से कम पाँच व्यक्तियों को वह सब साहित्य पढ़ा दिया है, उन उपाध्यायों की शोभा यात्रा (जुलूस) निकाला जायेगा। उनकी पहचान के लिए एक विशेष रंग की पट्टियाँ उनकी भुजा पर बाँधी जावेंगी। कंधे पर उसी रंग का दुपट्टा रहेगा। इन दुपट्टों के रंगों में फर्क न पड़े इसलिए वे सब यहीं रंगे जाएंगे। सभी उपाध्याय अपने साथ बारह गिरह चौड़ा, दो गज लम्बा एक सफेद दुपट्टा साथ लावें। उसे रंग कर उपाध्यायों की पहचान अलग कर दी जावेगी। प्रत्येक शाखा को अपने उपाध्यायों की अन्तिम सूची महायज्ञ से 15 दिन पहले ही भेज देना चाहिए, ताकि उनके लिए छपाये गये सुन्दर प्रमाण पत्रों को तैयार कराने में सुविधा हो।

(17) महायज्ञ की अनेकों व्यवस्थाओं में आचार्य जी को बहुत व्यस्त रहना पड़ेगा। उस समय उनका समय पैर छूने के लिए उन्हें रोकने में नष्ट न किया जाना चाहिये। इस बार प्रत्येक आगन्तुक को पहले ही यह भली प्रकार जान लेना चाहिए। मथुरा आने पर कोई पैर छूने की कोशिश न करे। इससे उनके रुके खड़े रहने से समय की भारी बर्बादी होगी। इस अवसर पर साधारण अभिवादन ही पर्याप्त है।

(18) गायत्री- परिवार के अधिकृत नारे यह हैं (1) गायत्री माता की जय हो (2) यज्ञ भग-वान की जय हो (3) वेद भगवान की जय हो (4) भारत माता की जय हो (5) भारतीय संस्कृति की जय हो (6) गायत्री-परिवार की जय हो (7) नैतिक पुनरुत्थान योजना सफल हो (8) हमारा युग निर्माण संकल्प पूर्ण हो।(9) असुरता का नाश हो (10) अनाचार का नाश हो। इन नारों के अतिरिक्त और कोई नारे न लगाये जाएं गायत्री-परिवार का अधिकृत झण्डा पीले रंग का तिकोना है। उसके बीच में किरणों वाले सूर्य जैसे गोल घेरे के बीच में “ॐ भूर्भुवः स्वः” लिखा होना चाहिए। सभी शाखाएं अपने झण्डे इसी प्रकार के बनाकर लावें। झण्डों की लम्बाई चौड़ाई अपनी सुविधा पर निर्भर है।

(19) भजन मंडलियाँ कीर्तनकार रास्ते में अपने बाजों के साथ भजन कीर्तन करते हुए आवें। मथुरा में भी उन्हें भजन कीर्तन का अवसर मिलेगा। गायक लोग, अपने बाजे भी साथ लावें। यहाँ भाषण के 9 मंच बनाये जायेंगे। जहाँ शाम को 2 से 5 तक रात को 7॥से 10 तक भजन भाषण होते रहेंगे। इतने विशाल जन समुद्र को एक स्थान पर बिठा कर भाषण सुनाने का प्रबन्ध नहीं हो सकता। इसलिए एक प्रमुख व्याख्यान वेदी के अतिरिक्त स्थान-स्थान पर अन्य-2 व्याख्यान मंच भी चालू रहेंगे। और एक ही समय उन सब पर अलग-अलग प्रवचन होते रहेंगे। इसके लिए सैंकड़ों गायकों तथा प्रवचन कर्ताओं की आवश्यकता पड़ेगी। भाषण भजन किसी विवादास्पद विषय पर नहीं वरन् नैतिकता, सदाचार , प्रेम, सहिष्णुता, धार्मिकता आध्यात्मिकता जैसे सर्वमान्य विषयों पर ही होंगे। सुयोग्य व्यक्तियों को प्रवचन करने का इन विभिन्न व्याख्यान वेदियों पर समुचित अवसर रहेगा।

(20) महायज्ञ से उत्पन्न प्रचण्ड आध्यात्मिक शक्ति से भयभीत होकर असुरता इस आयोजन को असफल बनाने के लिए आरम्भ से ही बहुत प्रयत्न कर रही है। हर व्रतधारी को पता है कि उसके कार्य में विभिन्न रूपों में असुरों ने कैसी-कैसी कठिनाइयाँ उत्पन्न कीं। वह असुरता अब अपनी सारी शक्ति बटोर कर पूर्णाहुति के समय आक्रमण करेगी। इन आक्रमणों का रूप क्या होगा यह तो समय पर ही पता चलेगा पर यह हो सकता है कि यज्ञ की, याज्ञिकों की, तपोभूमि की, आचार्य जी की, हमारे आदर्शों और सिद्धान्तों की निन्दा करते हुए वे लोग पाये जाएं। इनका उद्देश्य याज्ञिकों की मनोभूमि को क्रोध में लाना तथा झगड़ा कराना होगा ताकि शाँतिपूर्ण भावनाओं के साथ लोग अपनी तपस्या की पूर्णाहुति न कर सकें। क्रोध और क्षोभ की स्थिति में की हुई तपस्या एवं साधना निष्फल हो जाती है। आसुरी आक्रमणों के अन्य सब मोर्चों की अपेक्षा यह मोर्चा सबसे कठिन है। इसकी ओर से सभी को सावधान होकर आना है। कोई व्यक्ति कितनी ही निन्दा, कटुता, द्वेष, आक्षेप भरी बातें कह कर क्रोध उत्पन्न कराने का प्रयत्न क्यों न करे, हम सभी को पूर्ण शान्त रहना है। न तो मन में, न वाणी में न व्यवहार में किसी भी प्रकार का आवेश आने दिया जाय। तभी यज्ञ की सफलता सम्भव है। आसुरी आक्रमणों के अन्य मोर्चे, इस मोर्चे से कम महत्व के हैं। उनसे उतनी हानि नहीं हो सकती, जितनी इस मोर्चे पर हार जाने से होगी। हम सब का चित्त पूर्ण शान्त, स्थिर तथा प्रसन्न रहना चाहिए। आवेश क्रोध या अश्रद्धा किसी भी कारण से उत्पन्न न होने पावे तभी हमारी जीत है। इस परीक्षा के लिए हर कोई तैयार होकर आवें।


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