(संत तुकड़ोजी महाराज)
वर्तमान समय में संत जनों को इस बात पर विशेष रूप से विचार करना आवश्यक है कि देव को देश से अलग करना किसी प्रकार उचित नहीं। लोगों के दिल में देश के प्रति प्रेम, कर्तव्य के प्रति सजगता, तथा उनके जीवन में सामूहिकता बढ़ाना सन्तों का ही कार्य है। लोक कल्याण के लिये ही संत सदैव प्रयत्नशील रहे हैं।
मैं यह स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि सन्तों के पास जाति-पाँति का कोई सवाल ही खड़ा नहीं होता। “जात-पाँत पूछे नहिं कोय। हरि को भजे सो हरि का होय”—यही उनका मुख्य सूत्र रहता है। उनकी नजरों में एक ही जाति रहती है—भागवत की, हरि भक्त की, वैष्णव की। वैष्णव का अर्थ भी ‘विष्णु’ नामक किसी देवता का उपासक नहीं “विष्णुमय जग वैष्णवाँचा धर्म” अर्थात् “विश्व देव का उपासक ही वैष्णव है।” नरसी ने कहा है “वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाणे रे।” परपीड़ा को अपनी पीड़ा समझ कर उसे दूर करना, यही सामुदायिक भावना सन्तों ने उस वक्त लोगों के हृदय में जागृत की थी और इसके लिये नाम संकीर्तन की प्रथा शुरू करके उन्होंने सबको आकर्षित कर लिया था।
मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है कि आप केवल नाम कीर्तन करके ही संतुष्ट मत हो जाइये, वरन् ‘परपीड़ा’ के सिद्धान्त को समझ कर अपने गाँव और समाज का निर्माण कीजिये। तभी सन्तों के आदेश का यथार्थ में पालन होगा। श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने संकल्प प्रकट किया था—
जे खलाची व्यंकटी साँडी, तया सत्कर्मी रति बाढ़ी। भूताँ परस्परें जड़ी, मंत्र जीवाचें।
अर्थात् “दुर्जनों की बुद्धि का विपरीत स्वभाव दूर हो और सत्कर्म के प्रति उनके दिल में प्रीति बढ़े। सभी प्राणियों में एक दूसरे के प्रति हार्दिक प्रेम भाव मित्रता पैदा हो।” इस संकल्प की पूर्ति में ही विश्व कल्याण है और इसी को आज हमें कार्यान्वित करना चाहिये। देश सेवा इससे कोई अलग चीज नहीं है। ज्ञानेश्वर महाराज ने और भी कहा है—
“आता विश्वात्मकें देवें। येणें वाग्यज्ञें तोषावें॥
अर्थात्—”अब विश्वात्मक भगवान हमारे इस वाणी रूप यज्ञ से—वाँग्मयी सेवा से प्रसन्न हों।” सोचने की बात है कि इसमें इन्होंने ‘हिन्दू देवे’ या ‘ईसाई देवे’ क्यों नहीं कहा? इसका सीधा जवाब यही है कि वे किसी पंथ, धर्म या देश विशेष के देव को ही देव नहीं समझते थे। जो देव सारे विश्व का हो, उसी की वे प्रार्थना करते थे। हम लोग उनके भक्त हैं, पर संदेह है कि हमने अपने भगवान को भी छोटा बना लिया है। हमारे ग्रंथ-पंथ आदि के मूल स्रोत में जो दिखाई देता है, उसे हम अपने व्यवहार में प्रवेश नहीं करने देते और इसी कारण हमारे दुःख, ताप ज्यों के त्यों बने रहते हैं। आज आवश्यकता है उसी विश्वात्मक देव की उसकी भावना समाज के सामने रखने से रामराज्य और विश्व शान्ति के सपने साकार हो सकते हैं। हम अपने ग्रन्थों को व्यवहार में न लायेंगे तो उनका प्रभाव कैसे दिखलाई पड़ सकता है।
हम जानते हैं कि सन्तों ने भाव-भक्ति को सर्वोपरि स्थान दिया है। पर उसके साथ कर्तव्य रूप भक्ति न की जाय तो फल कुछ नहीं हो सकता। वे ही भक्त बड़े बन गये जिन्होंने श्रवण के साथ उसके अनुसार कर्तव्य पालन भी किया। “योगस्थः कुरु कर्माणि” के अनुसार जिन्होंने ईश्वर चिन्तन के साथ-साथ कार्य क्षेत्र भी सँभाला वे ही महापुरुष कहलाये। वे कोई अपूर्व व्यक्ति थे ऐसा मैं नहीं मानता। वे भी जन्म मृत्यु के प्रवाह में से ही आते रहे हैं अन्तर है तो सिर्फ कर्तव्य का। वे अपने यत्न द्वारा सन्त बने, देव बने। सूर्य प्रकाश तो सर्वत्र नजर आता है किन्तु सूर्यकान्त मणि में उसकी झलक विशेषता पूर्ण होती है, इसे नहीं भूलना चाहिये। साथ ही यह भी ध्यान में रहे कि हर एक जीव में वही भगवान निवास करता है। इसलिए जनता जनार्दन की उपासना करते हुये हृदय की धारण शक्ति और भाव-भक्ति को बढ़ाते जाना चाहिये।
तीर्थ अथवा क्षेत्र का अर्थ होता है पवित्र स्थान, जहाँ मनुष्य को सद्बोध द्वारा उद्धार मार्ग बताया जाता हो। क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा के विकास का विचार जहाँ किया जाता हो, वही है क्षेत्र। इस व्याख्या के अनुसार ध्यान, प्रार्थना आदि मानव विकास तथा सेवा के कार्यक्रम जहाँ सदैव चलते हैं वही क्षेत्र है। इस प्रकार हर गाँव तीर्थ बन सकता है, हर मकान क्षेत्र के रूप में परिवर्तित हो सकता है। जिस कुटुम्ब में आत्मा-विकास का प्रयत्न चल रहा हो वह तीर्थ है और जहाँ कुटुम्बीजनों में झगड़े चल रहे तो वह राक्षसों का अड्डा है। यह राक्षसी वृत्ति आजकल बड़े-बड़े तीर्थों में भी घुस बैठी है। इसलिए हमको सदैव यह याद रखना चाहिये कि जो मनुष्य को पावन करे वही तीर्थ है। तीर्थ, क्षेत्र के पावन दृश्य की याद दिलाते हुये उसका महत्व गाँव वालों की आदर्श पवित्रता लाने को प्रवृत्त करना, यही तीर्थ पूजा का महत्व मानना चाहिये।
ईश्वर सभी जगह एक समान है, इसलिये हमें अपना हृदय भी सबके लिये समान बनाना चाहिये। ऐसे सात्विक विचार—ऐसी सद्भावना, यही समस्त तीर्थों से बढ़कर पावन तीर्थ है। इस भावना के बिना बड़े-बड़े तीर्थों में जाकर भी कुछ हाथ नहीं लगेगा।