सब प्रकार की उन्नति का मूलमंत्र-गायत्री

November 1958

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(पं. रघुनाथ शास्त्री कोकजे, लोनावाला (बम्बई)

गायत्री मन्त्र प्राचीन महापुरुषों के कथनानुसार एक सर्वश्रेष्ठ मंत्र है। उसका जप विविध फलों का प्रदाता बताया गया है। परन्तु आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति इसकी उपेक्षा करने लगे हैं। वे पूर्वजों की चलाई वस्तुओं को केवल इसी आधार पर मानना नहीं चाहते क्योंकि वह प्राचीन है। बुद्धिवाद की कसौटी पर जो चीज सच्ची सिद्ध हो सके उसे तो वे मानने को तैयार हो जाते हैं, परन्तु हमारे प्राचीन विद्वान सामान्यतः ऐसे विषयों में तर्क-प्रधान प्रणाली पर चल सकना असम्भव-सा मानते हैं। ऐसे विषय में वे श्रद्धा की दुहाई देना ही योग्य मानते हैं। जिसमें श्रद्धा होगी वही धर्माचार का अधिकारी है, और चिकित्सा या कसौटी का इसमें कोई स्थान नहीं ऐसी उनकी धारणा बन गई है। सम्भवतः इसी कारण नवशिक्षित तथा पुरानी प्रथा के मानने वालों के बीच एक अनुल्लंघनीय पर्वत-सा खड़ा हो गया है। परन्तु वास्तव में यह स्थिति सत्य नहीं है। बुद्धिवाद और श्रद्धा इनमें विरोध मानना एक प्रकार से प्राचीन प्रथा के प्रति अज्ञान प्रकट करना है। प्राचीन प्रथा में भी बुद्धिवाद और तर्क को पूर्ण रूप से स्थान है। इस सिद्धाँत की पुष्टि अनेक उदाहरणों से की जा सकती है, पर इस समय गायत्री-मन्त्र का प्रसंग उपस्थिति होने से हम इसी के आधार पर इस सिद्धाँत को सिद्ध करना चाहते हैं।

गायत्री बिल्कुल छोटा-सा मन्त्र है। उसके तीन पाद या चरण होने से उसे त्रिपदा भी कहते हैं। उसका सीधा सादा अर्थ यह है कि—”भगवान सविता (सूर्य) के श्रेष्ठ तेज का हम ध्यान करते हैं। वह हमारी बुद्धि को प्रेरणा दे।” इस मन्त्र के अंतिम चरण (धियो यो नः प्रचोदयात्) में बुद्धि की माँग है न कि किसी भौतिक साधन, संपत्ति की। अन्न-वस्त्र इत्यादि वस्तुओं की माँग यह एक मामूली चीज है। देवता के पास ऐसी साधारण नित्योपयोगी वस्तुओं की माँग गायत्री मन्त्र में नहीं की गई है। मानव जीवन की महत्ता बुद्धि के उत्कर्ष में है। उस बुद्धि को यदि भगवान सूर्य जैसे तेजस्वी तत्व से प्रेरणा मिल जाय, तो उससे सब प्रकार के साधन संपत्ति प्राप्त हो सकते हैं। केवल साँसारिक ही नहीं किन्तु आध्यात्मिक उन्नति भी बुद्धि को योग्य प्रकार से प्रेरणा मिलने पर ही प्राप्त होती है। स्वर्ग, आत्मा, ईश्वर, पुनर्जन्म न मानने वाले नास्तिक बुद्धि के आधार पर अपना विवेचन करते हैं, अर्थात् बुद्धि का आदर उनको भी अनिवार्य है। ऐसी सर्वमान्य तथा सबको माननीय ‘बुद्धि’ को प्रेरणा मिले, इस प्रकार की प्रार्थना का प्रतिवाद नास्तिक भी नहीं कर सकते। स्वर्ग, मोक्षादि गूढ़ वस्तुओं में विश्वास न होने के कारण नास्तिक उनका खण्डन कर सकते हैं। स्वर्ग, मोक्षादि का हर एक के अनुभव में आना भी असम्भव है। मानो यही संकट देखकर ऋषि ने गायत्री-मन्त्र में ‘बुद्धि’ की ऐसी माँग रख दी है जिसका विरोध या प्रतिवाद कोई भी नहीं कर सकता।

अनेक प्रकार की बुद्धि

इस मन्त्र में ‘धियः’ अर्थात् बुद्धि का प्रयोग बहुवचन में किया गया है। “अनेक प्रकार की बुद्धि” ऐसा अर्थ उससे निकलता है। हिन्दू संस्कृति केवल आध्यात्मिक का विचार करती है, ऐसा मानकर अनेक व्यक्ति आधिभौतिक की उपेक्षा करना अपना आदर्श बतलाते हैं। परन्तु “धियः” शब्द के प्रयोग से उसका खण्डन हो जाता है। केवल आध्यात्मिक ही नहीं किन्तु भौतिक, आर्थिक, राजकीय—सब प्रकार की बुद्धि बढ़ जाय, यह गायत्री-मन्त्र की प्रार्थना है। भूत विद्या, मनुष्य विद्या, वाकोवाक्य, राशि, क्षात्र विद्या, नक्षत्र विद्या, जनविद्या इत्यादि नाम उपनिषदों में पाये जाते हैं। अर्थात् अनेक प्रकार की बुद्धि—यह अर्थ ‘धियः’ से लिया जाय तो उसमें अनौचित्य का कुछ भी संदेह नहीं होना चाहिये।

नास्तिक-युग में भी बुद्धि की श्रेष्ठता जिस प्रकार निर्विवाद है उसी प्रकार सूर्य देवता की श्रेष्ठता भी त्रिकाल बाधित है। सूर्य को चाहे कोई देवता न माने परन्तु उसका जागतिक जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध मानना सबको अनिवार्य है। दो दिन बादल घिरे रहें और सूर्य का दर्शन न हो तो वायु दूषित बन जाती है, बीमारियाँ फैलने लगती हैं। अतएव सूर्य का महत्व सुस्पष्ट है। नास्तिक भी इससे इनकार नहीं कर सकता। गायत्री मंत्र का देवता सूर्य है। सूर्य या सविता का प्रभाव निरपवाद होने से इस विषय में भी शंका होना असम्भव है। आदमी जिस चीज का ध्यान करता है उसी प्रकार की उसकी वृत्ति बन जाती है, यह प्राकृतिक सिद्धान्त है। ‘सूर्य भगवान के भास्कर तेज का हम ध्यान करते हैं—ऐसा गायत्री मंत्र के प्रथम चरण का अर्थ है। ऐसे तेजस्वी पदार्थ का ध्यान करने वाले स्वयं तेजस्वी बनेंगे यह मानस-शास्त्र अथवा मनोविज्ञान द्वारा सत्य सिद्ध हो चुका है। किसी से न दबते हुए तेजस्वी रहने की किसकी इच्छा न होगी?

‘प्रव्रवाम शरदः शतम। अदीनः स्याम शरदः शतम।

“सौ वर्ष तक अधिकार पूर्ण वाणी से बोलते रहेंगे। सौ वर्ष तक हम दैन्यरहित जीवन बितायेंगे।” इस प्रकार की आकाँक्षाएँ वेद में (वाजसनेय संहिता 36-24) भी स्पष्ट हैं। सूर्य सर्वश्रेष्ठ तेजस्विता का प्रतीक है। वही गायत्री मंत्र का देवता है। इस सराहनीय सर्वोच्च देवता का ध्यान मानवीय उन्नति का साधन मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये। गायत्री मंत्र का देवता इस प्रकार सबके लिये सराहनीय है।

सामाजिकता

आजकल गायत्री-मन्त्र का पठन गुप्तता से किया जाना आवश्यक बतलाया जाता है। एकान्त में इस मंत्र का जप अकेले-दुकेले किया करते हैं। परन्तु ऊपर दिये हुए मंत्रार्थ पर ध्यान देने से सत्य बात कुछ और ही मालूम पड़ती है। इस मन्त्र में “धीमहि” (हम ध्यान करते हैं) और “नः” (हमारी) ये बहुवचन युक्त प्रयोग इस मंत्र की सामुदायिकता पर प्रकाश डालते हैं। वास्तव में देखा जाय तो गायत्री-मंत्र सामुदायिक प्रार्थना-मंत्र है। अकेले-दुकेले में भी इस मंत्र का जप करना हानिकारक नहीं किन्तु उस समय में भी जप कर्ता को चाहिये कि वह अपने को व्यक्तिगत रूप में न मानकर समाज का एक घटक समझ कर जप करें। इस प्रकार गायत्री-जप जैसे बने वैसे करने की शास्त्राज्ञा है—

यथा कथञ्चिज्जप्तैषा देवी परम पावनी। सर्वकामप्रदा प्रोक्ता विधिना किं पुनर्नप॥

(विष्णु धर्मोत्तरे 1-165-15)

इस श्लोक में मार्कण्डेय ऋषि ने वज्र राजा से निश्चयपूर्वक कहा है कि “गायत्री जप जैसे बने वैसे करने से भी मनुष्य को पवित्र कर उसकी सब कामनाएँ सफल बना देता है, फिर वैध रीति से जपानुष्ठान करने वाले के विषय में कहना ही क्या?” अर्थात् जीवन व्यवसाय में फँसे हुए आदमी को भी इस मंत्र से लाभ उठाना सहज है। बड़ा विधि विधान और आडम्बर करने पर ही गायत्री का फल मिलता हो और जैसे तैसे जप कर लेने से पाप होता हो, सर्व साधारण में फैली हुई यह धारणा गलत है, यह इस श्लोक से प्रकट होता है। बुद्धि सामर्थ्य की आज बड़ी आवश्यकता है, गायत्री मन्त्र उसी सामर्थ्य को बढ़ाने वाला होने के कारण आज के नव-शिक्षितों में भी आदरणीय होना चाहिए।


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