अपने आप को पहचानो!

November 1958

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(ईरानी संत इमाम गजाली)

[इस लेख में ईरान के प्रसिद्ध संत इमाम गिजाली ने ठीक वैसे ही आध्यात्मिक भाव प्रकट किये हैं जैसे हमको हिन्दू शास्त्रों में मिलते हैं। मनुष्य-जन्म लेकर हमारा क्या कर्त्तव्य है, यही इसमें विशद रूप में बतलाया गया है]

याद रखो, अपने-आपको पहचानना ही श्रीभगवान को पहिचानने की कुँजी है। इसी विषय में किसी महापुरुष ने कहा है कि जिसने अपने को पहिचाना है उसने निःसन्देह अपने प्रभु को भी पहिचान लिया है। तथा प्रभु भी कहते हैं कि मैंने अपने ही लक्षण जीवों के हृदय में प्रकट किये हैं, जिससे कि वे अपने को पहिचान कर फिर मुझे भी पहिचानें। सो, भाई! तेरे आस-पास ऐसा और कोई नहीं है जिसे पहचानना तेरे लिये अपने-आपको पहिचानने से अधिक आवश्यक हो। पहले जब तू अपने को भी नहीं पहचानता तो और किसी को कैसे पहचानेगा? यदि तू कहे कि मैं अपने को तो पहचानता हूँ, तो तेरा यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि जिस रूप में तू अपने को पहचानता है तेरी वह पहिचान श्रीभगवान को पहिचानने की कुँजी नहीं हैं। तू जो अपने को हाथ, पाँव एवं माँस आदि से युक्त स्थूल शरीर समझता है तथा भूख होने पर आहार की इच्छा करने वाला, क्रोधित होने पर लड़ने-झगड़ने वाला और कामातुर होने पर भोगवासना से व्याकुल और उसी संकल्प में डूब जाने वाला जानता है, सो इस प्रकार की पहिचान में तो पशु भी तेरे समान हैं। अतः तुझे यह वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये कि मैं क्या वस्तु हूँ, कहाँ से आया हूँ, किस जगह जाऊँगा, किस निमित्त से मैं संसार में आया हूँ, किस कार्य के लिये भगवान ने मुझे उत्पन्न किया है, मेरी भलाई किस में है और क्या मेरा दुर्भाग्य है? इसके अतिरिक्त यह भी देखना चाहिये कि तेरे भीतर जो दैवी और पाशविक वृत्तियों का संघटन हुआ है उनमें किस प्रकार की वृत्तियों की प्रबलता है। तथा साथ ही यह भी पहिचान कि तेरा अपना स्वभाव क्या है और पर-स्वभाव क्या है?

जब तू भली प्रकार इन सब बातों को पहिचान लेगा तो तेरी इनमें श्रद्धा भी होगी, क्योंकि विभिन्न जीवों की भलाई, पूर्णता और आहार भी भिन्न-भिन्न हैं। पशुओं की भलाई और पूर्णता इसी में है कि उन्हें अच्छी तरह सोने और खाने-पीने की सुविधा मिल जाय तथा दूसरे पशुओं को लड़ाई में परास्त करने की शक्ति हो। सो, यदि तू अपने को पशु समझता हो तो दिन-रात उदरपूर्ति और इन्द्रिय पोषण के लिये ही पुरुषार्थ कर। सिंहों की पूर्णता दूसरे जीवों को फाड़ खाने और क्रोधाविष्ट होने में ही है, तथा भूत-प्रेत हैं तो छल-कपट के द्वारा ही अपना आतंक स्थापित करते हैं। सो, यदि तू सिंह या भूत-प्रेत है तो इसी प्रकार के स्वभाव में स्थित रह। ऐसा होने पर ही तेरी पूर्णता सिद्ध होगी। देवताओं की भलाई और पूर्णता तो श्री भगवान का दर्शन प्राप्त करने में है और यही उनका आहार भी है। भोग-वासना और क्रोधादि तो पशुओं के स्वभाव में हैं। ये देवताओं को छू भी नहीं सकते।

इसलिये यदि मानवयोनि में जन्म लेने के कारण तुझे जन्मतः देवभाव का अधिकार प्राप्त हुआ है तो यही पुरुषार्थ कर कि भगवान के दरबार तक पहुँच सके। इसके लिये अपने को भोगवासना और क्रोधादि से दूर रख और इस भेद को याद रख कि भगवान ने तेरे लिये जो पाशविक स्वभाव और वृत्तियों की रचना की है वह इसलिये है कि तेरा उन पर पूर्ण अधिकार हो और तुझे जिस मार्ग द्वारा अपने गन्तव्य स्थान पर जाना है उसमें तू इन्हें अपने अधीन रखकर चले, स्वयं कभी इनके अधीन न हो। अतः जिस प्रकार घोड़े और शस्त्रों पर अधिकार रखकर शिकार खेला जाता है उसी प्रकार इन पाशविक स्वभावों और वृत्तियों पर सवारी गाँठ कर इन्हीं के द्वारा तू देवभाव रूप अपने लक्ष्य को बेध। जितने समय तुझे जीना है इसी कार्य को सिद्ध करने में अपनी आयु लगा दे। इस प्रकार जब तेरी भलाई होगी और तुममें दैवी स्वभाव का आविर्भाव होगा तो तू भगवान को पहिचानने के लिये प्रवृत्त होगा और फिर तुझे मुक्ति मिल जायगी।

अच्छा तो, यह भगवान की पहिचान कैसी है? यही संतजनों के स्थित होने का स्थान है। यह अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु है। दूसरे लोग तो स्वर्ग को ही सर्वोत्कृष्ट सुख समझते हैं, किन्तु संतों का सुख तो श्री भगवान की शरण में ही है। जब तू ऐसा समझेगा तभी अपने को थोड़ा पहिचान सकेगा। जो पुरुष इस भेद को नहीं पहचानता उसके लिये धर्म-मार्ग में चलना कठिन है तथा आत्म सुख भी उससे ओझल ही रहता है।

यदि तू अपने को पहचानना चाहता है तो ऐसा निश्चय कर कि भगवान ने तुझे दो तत्त्वों से युक्त उत्पन्न किया है। इनमें एक तो शरीर है जो स्थूल नेत्रों से दिखायी देता है और दूसरा चैतन्य है। वह अत्यन्त सूक्ष्म है। उसी को जीव भी कहते हैं। तथा मन और चित्त भी उसी के नाम हैं। वह स्थूल दृष्टि से परे है उसे बुद्धिरूप नेत्र के द्वारा ही देखा जा सकता है। तेरा निज स्वरूप यह चैतन्यतत्त्व ही है और जितने भी गुण हैं वे इस चैतन्य के ही अधीन हैं, इसी के टहलुए हैं अथवा इसी की सेना के सदृश हैं। मैंने उसी चैतन्य का नाम ‘हृदय’ रखा है। इसमें सन्देह नहीं कि आत्मा, हृदय और मन ये सब उस चैतन्य के ही नाम हैं, अतः जब मैं हृदय का वर्णन करूं तो मेरा प्रयोजन शरीर के अंगभूत हृदय-स्थान से न समझें, क्योंकि यह हृदय-स्थान तो माँस और त्वचा आदि से रचा हुआ है और पंचभूतों का कार्य है; अतः जड़ है। और मनुष्य का जो चैतन्य स्वरूप हृदय (योग हृदय) है वह स्थूल दृष्टि से सर्वथा विलक्षण है। वह तो एक परदेशी की तरह अपने कार्य के लिये इस शरीर में आया है। शरीर में जो स्थूल हृदय-स्थान है वह जीव के घोड़े या शस्त्र की तरह है, इन्द्रियाँ सेना हैं और जीव शरीर का राजा है। अतः भगवान् को पहचानना और उनका दर्शन करना—यह जीव का अधिकार है। इसी से दण्ड और पुरस्कार तथा पाप और पुण्य का अधिकारी भी जीव ही है। तथा भाग्यहीन और भाग्यवान् भी इस जीव को ही कहा जाता है। यह शरीर सर्वदा जीव के अधीन है; अतः उस चैतन्य के स्वरूप को पहचानना और उसके स्वभाव को समझना ही श्रीभगवान् के पहिचानने की कुँजी है।

बस तू यही पुरुषार्थ कर कि इस चैतन्य के स्वरूप को पहचान सके क्योंकि यह चैतन्य रूपी रत्न अत्यन्त दुर्लभ है और देवताओं की तरह नित्य निर्मल है। इस रत्न की खान परब्रह्म है, क्योंकि यह जीव वहीं से आया है और फिर उसी में लीन भी होगा। इस संसार में तो यह परदेशी की तरह है, अपने कार्य के लिये ही यहाँ आया है। अतः तुझे अपना वह कार्य भी अवश्य पहचानना चाहिये। परन्तु उसकी पहचान श्रीभगवान् की कृपा से ही सकती है।

अब मैं आत्मसत्ता के अभ्यास का वर्णन करता हूँ। यह बात निश्चय जानो कि जब तक तुम अपने चैतन्य स्वरूप को नहीं पहचानोगे तब तक हृदय के वास्तविक स्वरूप को भी नहीं जान सकोगे; और इसी से तुम्हें श्रीभगवान् की भी पहिचान नहीं हो सकेगी और न उत्कृष्ट लोकों का ही ज्ञान होगा। यदि एक दृष्टि से देखा जाय तो चैतन्य सत्ता अत्यन्त स्पष्ट है, क्योंकि उसकी स्थिति शरीर के आश्रित नहीं है, अपितु उसके न रहने पर ही शरीर और इन्द्रियाँ निर्जीव हो जाती हैं और मृतक कहा जाता है। इसके सिवा यदि कोई मनुष्य नेत्रादि इन्द्रियों को रोककर चैतन्य का अभ्यास करते हुए अपने शरीर और सम्पूर्ण जगत् को भूल जाय तो उसे निःसन्देह अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है और वह आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है। जब इसका अधिक अभ्यास और विचार किया जाता है तो सुगमता से ही परमात्मा का भी दर्शन हो जाता है और यह बात प्रत्यक्ष दिखायी देने लगती है कि जब मनुष्य का शरीर छूटता है तो चैतन्यस्वरूप जीव का नाश नहीं होता, वह अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है।

इस जीव का जो शुद्ध स्वरूप है—इसका जो वास्तविक स्वभाव है उसका धर्मशास्त्रों ने स्पष्ट शब्दों में निरूपण नहीं किया। कहते हैं, कुछ लोगों ने महापुरुष के पास जाकर पूछा था कि जीव का स्वरूप क्या है। इस पर उन्होंने उसका कोई स्पष्ट वर्णन नहीं किया, भगवत्प्रेरणा से केवल इतना कहा कि यह प्रभु की सत्तामात्र है। इसका और अधिक वर्णन करना उन्होंने उचित नहीं समझा। बस, इतना ही उत्तर दिया कि यह सृष्टि दो प्रकार की है—एक स्थूल सृष्टि है और दूसरी इसकी सूक्ष्म सत्ता। जहाँ पदार्थों की मर्यादा, आकार अथवा घटना-बढ़ना देखा जाता है वह स्थूल सृष्टि है और चैतन्य सत्ता सूक्ष्म रूप है। उसकी कोई मर्यादा या आकृति नहीं है, वह अखण्ड है मनुष्य का जो हृदय स्थान है वह तो अखण्ड रूप है इसी से मानव-हृदय में एक ओर विद्या और दूसरी ओर अविद्या रहती है। किन्तु चैतन्य सत्ता में इस प्रकार विद्या-अविद्या का भेद नहीं है। इसी से यह अखण्ड कही जाती है। इसकी कोई मर्यादा या सीमा भी नहीं है। इस प्रकार यद्यपि यह भगवत्स्वरूप ही है, तथापि इसे भगवान ने उत्पन्न किया है, इसलिये यह ‘जीव’ कही जाती है। यह जीव सत्ता ही सूक्ष्म सृष्टि है, क्योंकि इसका कोई स्थूल स्वरूप नहीं है।

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‘जीवं कल्पयते पूर्व ततो भगवान् पृथग्निधान्।’

(माण्डूक्य कारिका 2/16)

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जिन लोगों ने ऐसा निश्चय किया है कि जीव ही ईश्वर है वे भूल में हैं तथा जो इसे परमात्मा का प्रतिबिम्ब मानते हैं वे भी भूले हुए हैं, क्योंकि प्रतिबिम्ब तो स्वयं कोई वस्तु ही नहीं होती। इसी प्रकार जो अनादि होता है उसकी कभी उत्पत्ति नहीं होती, और जीव उत्पन्न किया हुआ है तथा इस शरीर का आश्रय है। अतः इसे अनादि या प्रतिबिम्ब कहना उचित नहीं। जो लोग इस शरीर को ही आत्मा मानते हैं वे भी भूले हुए हैं, क्योंकि यह शरीर तो खण्ड-खण्ड होता है और आत्मा अखण्ड है। इसके सिवा यह ज्ञान स्वरूप है और शरीर जड़ है। अतः शरीर ही आत्मा नहीं हो सकता। आत्मा तो सत्तास्वरूप, चैतन्य और देवताओं के समान प्रकाशमान है। वास्तव में इस जीव का मूल रूप तो किसी की पहिचान में आना अत्यन्त कठिन है। उसका शब्दों द्वारा निरूपण भी नहीं किया जा सकता। तथा साधन काल में जिज्ञासु को इस का निर्णय करने की आवश्यकता भी नहीं रहती। जिज्ञासु को तो धर्म-मार्ग में बढ़ते रहने का प्रयत्न एवं उद्यम करते रहना चाहिये। जब विधिवत् प्रयत्न करते-करते अभ्यास में दृढ़ता आती है तो उसे स्वयं ही स्वरूप का प्रकाश हो जाता है, फिर किसी के कुछ कहने सुनने की अपेक्षा नहीं रहती। इस विषय में भगवान् ने भी कहा है कि जब पुरुष मेरे मार्ग में चित्त लगाता है और अभ्यास करने लगता है तो मैं उसे अपने स्वरूप का ज्ञान करा देता हूँ। जिस पुरुष ने सम्यक् प्रकार से अभ्यास और प्रयत्न न किया हो उसके आगे आत्मा के स्वरूप की चर्चा करनी उचित नहीं। यदि उसके आगे इसकी चर्चा की भी जायगी तो यह बात उसके हृदय में बैठेगी नहीं।

जिन लोगों ने ऐसा निश्चय किया है कि जीव ही ईश्वर है वे भूल में हैं तथा जो इसे परमात्मा का प्रतिबिम्ब मानते हैं वे भी भूले हुए हैं, क्योंकि प्रतिबिम्ब तो स्वयं कोई वस्तु ही नहीं होती। इसी प्रकार जो अनादि होता है उसकी कभी उत्पत्ति नहीं होती, और जीव उत्पन्न किया हुआ है तथा इस शरीर का आश्रय है। अतः इसे अनादि या प्रतिबिम्ब कहना उचित नहीं। जो लोग इस शरीर को ही आत्मा मानते हैं वे भी भूले हुए हैं, क्योंकि यह शरीर तो खण्ड-खण्ड होता है और आत्मा अखण्ड है। इसके सिवा यह ज्ञान स्वरूप है और शरीर जड़ है। अतः शरीर ही आत्मा नहीं हो सकता। आत्मा तो सत्तास्वरूप, चैतन्य और देवताओं के समान प्रकाशमान है। वास्तव में इस जीव का मूल रूप तो किसी की पहिचान में आना अत्यन्त कठिन है। उसका शब्दों द्वारा निरूपण भी नहीं किया जा सकता। तथा साधन काल में जिज्ञासु को इस का निर्णय करने की आवश्यकता भी नहीं रहती। जिज्ञासु को तो धर्म-मार्ग में बढ़ते रहने का प्रयत्न एवं उद्यम करते रहना चाहिये। जब विधिवत् प्रयत्न करते-करते अभ्यास में दृढ़ता आती है तो उसे स्वयं ही स्वरूप का प्रकाश हो जाता है, फिर किसी के कुछ कहने सुनने की अपेक्षा नहीं रहती। इस विषय में भगवान् ने भी कहा है कि जब पुरुष मेरे मार्ग में चित्त लगाता है और अभ्यास करने लगता है तो मैं उसे अपने स्वरूप का ज्ञान करा देता हूँ। जिस पुरुष ने सम्यक् प्रकार से अभ्यास और प्रयत्न न किया हो उसके आगे आत्मा के स्वरूप की चर्चा करनी उचित नहीं। यदि उसके आगे इसकी चर्चा की भी जायगी तो यह बात उसके हृदय में बैठेगी नहीं।

गीता में श्रीभगवान ने भी कहा है—


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