विवेकमय जीवन ही मानवता का लक्षण है।

November 1958

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(श्री भरतराम, वाणप्रस्थी)

एक बार धर्मराज युधिष्ठिर से एक यक्ष ने प्रश्न किया था—’किं स्विदेक पदं धर्म्म मा’ अर्थात्-’एक शब्द में धर्म का तात्पर्य है?” प्रश्न वास्तव में बड़ा गहन है, जिसका उत्तर विद्वानों ने सैंकड़ों प्रकार से दिया है पर उनमें से कोई निर्विवाद नहीं माना गया। युधिष्ठिर ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया वह वास्तव में प्रश्न के अनुरूप ही सारगर्भित है। उन्होंने कहा—”दाक्षमेक पदं धर्म्यमा” अर्थात् ‘कुशलता’ ही एक शब्द में धर्माचरण है।”

भगवान कृष्ण में भी गीता में कहा है “योग कर्म सुकौशल्” अर्थात् “कुशलता पूर्वक काम करने का नाम ही योग है।” कुशल व्यक्ति संसार में सच्ची उन्नति कर सकता है। जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य यही है कि मनुष्य प्रत्येक कार्य को विवेक पूर्वक करे। इससे मन निर्बल रहता है, आत्मा सजग हो जाता है,और मस्तिष्क परिष्कृत रहता है। ऐसे विचारशील व्यक्ति को संशय और मोह में ग्रस्त होकर भटकना नहीं पड़ता, वरन् उसके लिये तो—

आकाश में ध्वनि, नीर में रस, वेद में ओंकार है। पौरुष पुरुष में चाँद सूरज में प्रभामय सार है॥

परमात्मा का स्वरूप क्या है, आत्मा का उससे क्या सम्बन्ध है, धर्म-अधर्म का क्या रहस्य है—इन सब प्रश्नों का उत्तर विवेकशील को अपने कर्त्तव्य-कर्म और निष्पाप जीवन से मिल जाता है। उसके लिये मनुष्य का विशुद्ध दर्शन ही परमेश्वर का दर्शन है,मनुष्य का विराट तथा चैतन्य जीवन ही परमेश्वर के अस्तित्व का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

मनुष्य-जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं और उस परम प्रकाशमय प्रभु की कृपा का साक्षात अनुभव होता है, जो जीव को पतन के गर्त में गिरने से रोक कर सत्य की ओर ले जाता है।

ईश्वरीय और प्राकृतिक नियम ही सत्य है और चराचर जगत इन्हीं नियमों में स्थित है। इन्हीं नियमों के अनुसार चलने का नाम जीवन और इन से विपरीत चलने का नाम मृत्यु है। देवताओं ने ऋत—सत्य के मार्ग पर चल कर ही अमरत्व प्राप्त किया। जो इसके विपरीत मार्ग पर चलता है वही बार-बार मरता है और मृत्यु के पाश में जकड़ा हुआ दुःख रूप नर्क में गिरता है।

मनुष्य को निश्चित रूप से यह जान लेना चाहिये कि कुटिल-असत्य से भरे जीवन का नाम मृत्यु और सरल-सत्य और विवेक युक्त जीवन का नाम ही अमरत्व है। मनुष्य का जीवन वास्तव में सुख का स्रोत है, पर हमारे अज्ञान से दुःख की उत्पत्ति होती है और उससे यह स्रोत रुक जाता है,जीवन में प्रवाह नहीं रहता। शिथिल, प्रगतिहीन और निस्तेज होकर जीना केवल सिसकते हुये साँस लेना है, उसमें जीवन-तत्व नष्ट हो जाता है।

जिस सत्य से सारा संसार ओत-प्रोत है, जिसके टूटते ही जीव का पतन हो जाता है, उस सत्य को जाने और व्यवहार में लाये बिना जीवन सार्थक नहीं हो सकता है। गीता में जिस कर्म-कौशल का उपदेश दिया है वही परम सत्य है। वह हमें ऐसे मार्ग पर ले जाता है जहाँ प्रकाश ही प्रकाश है। इस जगत में प्रकाश और अन्धकार, मृत्यु और अमरत्व साथ-साथ ही रहते हैं। विवेकवान-ज्ञानी जन अमृत को ग्रहण करते हैं और अविवेकी अज्ञानी मृत्यु को पकड़ते हैं। भय और अन्धकार में रहने वाले मंगल मार्ग पर पैर नहीं रखते। उनके लिये संसार में सर्वत्र मृत्यु-संकट ही दिखलाई पड़ता है। वे प्रकाश और ज्योति से दूर रहते हैं।

विवेकवान् नर-नारी शब्दों के व्यूह को तोड़ कर अर्थ की गहराई तक पहुँचते हैं। वे शुष्क ज्ञान के भार से दबे नहीं रहते वरन् उसके रहस्य को समझ कर उस पर आचरण करते हैं। इस राजयोग को जान कर मानव को पतन के गर्त में गिरना नहीं पड़ता,वह सहज में संसार-सागर से पार हो जाता है।


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