(श्री यादराम शर्मा ‘रजेश’ एम. ए.)
पिछले दिनों सभा में एक सदस्य के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रधान मन्त्री पंडित नेहरू ने कहा था कि पंचशील का प्रयोग केवल अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में ही नहीं वरन् राष्ट्रीय और पारिवारिक क्षेत्र में यहाँ तक कि पति-पत्नी के बीच में भी किया जा सकता है। नेहरू जी का कथन हमें यह सोचने को बाध्य करता है कि पंचशील के इन सिद्धान्तों का प्रयोग हम सामाजिक जीवन में शान्ति बनाये रखने के लिये किस प्रकार कर सकते हैं।
सहकार, सहयोग और सह-अस्तित्व की सामूहिक भावना भारतीय संस्कृति के लिये कोई नई चीज नहीं है। बहुत प्राचीन काल में वेद में कहा गया था—
“सहना भवतु सहना भुनक्तु,
सहवीर्य करवा वहै।” अथवा “सर्वे सुखिना सन्तु, सर्वे सन्तु निरामय, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।’
उपरोक्त उद्धरणों से प्रकट है कि हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले ही अनुभव कर लिया था कि साथ-साथ रहने, साथ-साथ उपभोग करने और साथ-साथ पराक्रम करने में ही हमारा कल्याण है। हमारी कामना रही है कि सभी सुखी रहें, सभी निरामय हों और भद्र जीवन व्यतीत करें। तब से लेकर आज तक भारतीय संस्कृति इन्हीं सिद्धान्तों पर आधारित रही है। यद्यपि समय के परिवर्तन से अनेक प्रकार के व्यवधान आने के कारण हमारा सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। उनका सूक्ष्म रूप आज भी हममें विद्यमान है उसे विकसित करने की आवश्यकता है।
‘पंचशील’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग महात्मा गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों में किया है। बुद्ध अत्यन्त व्यवहारवादी थे। एक ओर जहाँ उन्होंने अष्टाँगिक मार्ग की व्यवस्था करके सामाजिक जीवन में सन्तुलन स्थापित करने का प्रयत्न किया था, वहाँ दूसरी ओर समाज में अनैतिकता का प्रवेश रोकने के लिए ‘पंचशील’ नाम से पाँच नैतिक नियम बताये जो आज भी सामाजिक जीवन की सफलता की कुँजी के रूप में समझे जा सकते हैं। वे नियम इस प्रकार हैं :—
प्राणातिपात विरमण (अहिंसा)
अदिन्नादान-विरमण (चोरी न करना)
काम-मिथ्याचार-विरमण (अव्यभिचार)
मृषावाद-विरमण (झूठ का त्याग)
सुरा-मैरेय-मय-प्रसाद-स्थान-विरमण (नशा-त्याग)
तात्त्विक दृष्टि से देखा जाये तो इन सिद्धान्तों में कोई नई बात नहीं है। बहुत पहले से वैदिक धर्म इन्हीं सिद्धान्तों पर आधारित था और बाद में मनुस्मृति में धर्म के जो दस लक्षण बताये गये हैं उनमें इन सिद्धान्तों का ज्यों के त्यों रूप में समावेश है।
आवश्यकता इस बात की है कि आज जब कि हमारा सामाजिक जीवन अत्यन्त संघर्षमय और अशान्तिपूर्ण हो गया है; जब पद-पद पर हमें अशान्ति, असन्तोष विग्रह विरोध और असहिष्णुता के दर्शन होते हैं तब यह आवश्यक है कि हम पंचशील के आधार पर अपने सामाजिक जीवन के लिए कुछ ऐसे सिद्धान्त निर्धारित करें जिनको अपनाकर हम विभिन्न भाषाओं, धर्मों, संस्कृतियों, रीति-रिवाजों, खान-पानों और रुचियों के अनुयायी होते हुए भी आपस में मिल जुलकर रह सकें। जिस तरह भिन्न-भिन्न देश एक दूसरे से अलग होते हुए भी एक ही संसार के अंग हैं, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रान्त एक देश के भिन्न-भिन्न धर्म एक मानवता के, भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज एक सामूहिक संस्कृति के और भिन्न 2 विचार धारायें एक सामूहिक चिन्तन की अंग हैं। यदि हमें संसार को, देश को, मानव-सभ्यता को शान्तिपूर्वक प्रगति की ओर ले जाना है तो कुछ ऐसे सिद्धान्त अपनाने आवश्यक हैं जो हमें एक दूसरे के निकट ले जाते हैं।
राजनैतिक क्षेत्र में पंचशील के जो सिद्धाँत अपनाये गए हैं और जिनका संसार के विभिन्न देशों में अपूर्व स्वागत हुआ है, सरल भाषा में हम उन्हें इस प्रकार समझ सकते हैं :—
1—देशों की सार्वभौमिकता को स्वीकार करना।
2—शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व।
3—अनाक्रमण।
4—आन्तरिक विषयों में अहस्तक्षेप।
5—पारस्परिक लाभ के आधार पर व्यापारिक सम्बन्ध।
इन पाँच सिद्धान्तों को व्यापक बनाकर अथवा इनके रूप में थोड़ा परिवर्तन करके हम इनका उपयोग सामाजिक क्षेत्र में भी कर सकते हैं। जिस प्रकार पहले सिद्धान्त के आधार पर हम प्रत्येक देश की सार्वभौमिकता का स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार हमको समाज में शान्ति बनाये रखने के लिए समाज के विभिन्न अंगों, वर्गों और इकाइयों की सार्वभौमिकता अर्थात् अपने क्षेत्र में उनकी एक मात्र सत्ता को स्वीकार कर लेना चाहिए। हमें यह मानकर चलना चाहिए कि अपने सीमित दायरे में किसी भी वर्ग विशेष को कोई भी उचित काम उठाने का अधिकार है और कोई बाहरी शक्ति इस सम्बन्ध में कभी भी उस सत्ता पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकेगी। संक्षेप में सामाजिक क्षेत्र में हम सार्वभौमिकता का अर्थ लगा सकते हैं—अपनी सीमा के भीतर इच्छानुसार निर्णय करने की स्वतंत्रता।
शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व से हमें यह समझना चाहिए कि हम यह स्वीकार करते हैं कि संसार में भिन्न-भिन्न वाद,विचार, धाराएं, सम्प्रदाय और वर्ग रहते हैं तथा वे एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हो सकते हैं फिर भी हमें सामाजिक शान्ति बनाये रखने के लिए यह मानकर चलना चाहिए कि मुझे इस धरती पर रहने का जितना अधिकार प्राप्त है, मेरे विरोधी को भी उतना ही अधिकार है और हम सिद्धाँत रूप में यह स्वीकार करके चलते हैं कि समाज में दो परस्पर विरोधी विचारधारा के लोगों को बिना किसी उपद्रव के साथ-2 रहने का अधिकार है।
सामाजिक जीवन में अनाक्रमण का अर्थ होगा किसी वर्ग के ऊपर अपनी विचारधारा, भावना या इच्छा को बलपूर्वक लादने का प्रयत्न न करना। आप अपने वर्ग, जाति या धर्म के सिद्धान्तों को कितना ही उचित, आवश्यक या उपयोगी समझते हों किन्तु सामाजिक शान्ति बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि आप उन सिद्धाँतों के प्रचार के लिए केवल बुद्धि और तर्क का ही आश्रय लें और वहाँ भी अपने विचारों को इस प्रकार प्रकट न करें कि किसी दूसरी विचारधारा वाले व्यक्ति को अपने सिद्धान्तों पर आक्रमण-सा करते हुए प्रतीत हों।
आन्तरिक विषयों में अहस्तक्षेप से सामाजिक जीवन में अभिप्राय है कि यदि समाज के किसी अंग का कोई कार्य बाहरी दुनिया को प्रभावित नहीं करता अर्थात् उससे समाज के अन्य अंगों की कोई हानि नहीं है तो केवल इस आधार पर हमें समाज के किसी अंग विशेष के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं हैं कि उस वर्ग विशेष का वह कार्य-विशेष हमारी रुचियों के अनुकूल नहीं है। सामाजिक शान्ति बनाये रखने के लिये हमें समाज के विभिन्न अंगों को आन्तरिक मामलों में पूर्ण स्वतन्त्रता देनी पड़ेगी। अपने खान-पान, बोल-चाल, रीति-रिवाज और रहन-सहन के विषय में निर्णय करने का समाज के प्रत्येक वर्ग को पूरा अधिकार है और किसी बाहरी शक्ति को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिये।
अन्तिम सिद्धान्त की व्याख्या हम इस प्रकार कर सकते हैं कि समाज के विभिन्न अंगों को आपस में इस प्रकार के सम्बन्ध रखने चाहिएं जिनमें पारस्परिक लाभ की भावना निहित हो। हमें दूसरे वर्गों की लाभदायक बातों को अपने भीतर लाने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके साथ ही साथ हमें कुछ ऐसे सिद्धान्तों का विकास करना चाहिए जो सभी विचारधाराओं के लोगों को मान्य हों तथा हमें एक दूसरे के निकट लाने में सहायक हों। इस प्रकार के सिद्धान्तों का प्रचार करके हम परस्पर लाभान्वित हो सकते हैं और सामाजिक उन्नति में सहायक हो सकते हैं।
संक्षेप में सामाजिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले सिद्धान्तों को थोड़े हेर-फेर के साथ हम इस रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं :—
1-अपने क्षेत्र में प्रत्येक वर्ग की सार्वभौमिकता को मान्यता देना।
2-परस्पर विरोधी विचार धाराओं के वर्गों के एक साथ रहने की सम्भावना को स्वीकार करना।
3-ऐसे प्रचार अथवा मत-प्रदर्शन से बचना जो दूसरे वर्ग या मत के विरुद्ध आक्रामक प्रतीत होता हो।
4-किसी वर्ग, सम्प्रदाय अथवा आदि के आन्तरिक विषयों में हस्तक्षेप न करना।
5-ऐसे विचारों, सिद्धान्तों और तत्वों का प्रसार और प्रचार करना जो सामान्यतया समाज के प्रत्येक वर्ग को मान्य हों तथा सामाजिक एकता स्थापित करने में सहायक हों।
केवल सुझाव के रूप में ये पंचशील के सिद्धाँत उपस्थित किये गये हैं जो सामाजिक जीवन में प्रयोग के आधार बनाये जा सकते हैं। मैं इन्हें अंतिम नहीं मानता। यह केवल प्रस्तावना मात्र है। विद्वान लोग विचार करके यदि आवश्यक समझें तो इनमें उचित हेर फेर कर सकते हैं किंतु सामाजिक जीवन की एकता और प्रगति के प्रचार के लिये इनकी अथवा ऐसे ही किन्हीं सिद्धान्तों के प्रचार की बड़ी आवश्यकता है। आशा है विद्वान लोग इस ओर ध्यान देने की कृपा करेंगे।