(श्री बी.आर. अम्बेडकर)
सामाजिक सुधार का मार्ग, कम से कम भारत में, मोक्षमार्ग के सदृश्य, अनेक कठिनाइयों से भरा पड़ा है। भारत में समाज-सुधार के मित्र थोड़े और समालोचक बहुत हैं। एक समय था जब कि सभी विचारशील यह स्वीकार करते थे कि सामाजिक उन्नति के बिना अन्य क्षेत्रों में भी स्थायी प्रगति सम्भव नहीं है। तब लोग यह मानते थे कि कुरीतियों के कारण जो हानि हुई है उसके फलस्वरूप हिन्दू-समाज में दक्षता की कमी हो गई है, इसलिये इन कुरीतियों के मूलोच्छेदन के लिये निरन्तर प्रयत्न होना चाहिये। इसी विचारधारा ने ‘इण्डियन नेशनल काँग्रेस’ के साथ-साथ ‘सोशल-कान्फ्रेंस’ को भी जन्म दिया था। काँग्रेस देश के राजनैतिक-संगठन की कमजोरियाँ दिखलाती थी और सोशल-कान्फ्रेंस हिन्दुओं के सामाजिक संगठन की त्रुटियों को मिटाने का यत्न करती थी। पर इन दोनों में शीघ्र ही मतभेद उत्पन्न हो गया और राजनैतिक नेता कहने लगे कि राजनैतिक सुधारों के लिये सामाजिक -सुधारों का होना अनिवार्य नहीं है। इस विवाद में काँग्रेस की जीत हुई और कुछ वर्षों में सोशल-कान्फ्रेंस का अस्तित्व मिट गया। उस अवसर पर काँग्रेस के एक प्रेसीडेण्ट श्री डब्लू. सी. बनर्जी ने कहा था- “मैं उन लोगों के साथ सहमत नहीं हूँ जो कहते हैं कि जब तक हम अपनी सामाजिक पद्धति का सुधार नहीं करते, तब तक हम राजनीतिक सुधार के योग्य नहीं हो सकते। मुझे इन दोनों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं दिखता।”
उस समय ऐसे अनेक लोग थे और अब भी हैं जो इस विषय में राजनीतिज्ञों की जीत देख कर प्रसन्न थे। पर जो लोग सामाजिक-सुधार के महत्त्व में विश्वास रखते हैं, वे पूछा करते हैं, कि क्या मि0 बनर्जी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता? इसके लिये हम अछूतों के प्रति सवर्ण हिन्दुओं के व्यवहार के कुछ उदाहरण देना चाहते हैं जिससे इस विषय को समझने में सहायता मिलेगी।
(1) अब से दो-सौ वर्ष पहले पेशवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र देश में, यदि कोई सवर्ण हिन्दू सड़क पर चल रहा हो तो अछूत को वह चलने की आज्ञा नहीं होती थी, ताकि कहीं उसकी छाया से वह हिन्दू भ्रष्ट न हो जाय। अछूत को अपनी कलाई पर या गले में निशानी के तौर पर एक काला डोरा बाँधना पड़ता था, ताकि हिन्दू उसे भूल से स्पर्श न कर बैठें। पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूतों के लिये राजाज्ञा थी कि वे कमर में झाड़ू बाँध कर चलें। चलने से भूमि पर उनके पैरों के जो चिन्ह बनें उनको उस झाड़ू से मिटाते जायें, ताकि कोई सवर्ण उन पदचिह्नों पर पैर रखने से अपवित्र न हो जाय। पूना में अछूतों को गले में मिट्टी की हाँड़ी लटकाकर चलना पड़ता था, ताकि उसे थूकना हो तो उसमें थूके, क्योंकि भूमि पर उसके थूकने से यदि उस के थूक पर किसी सवर्ण का पैर पड़ गया तो वह अपवित्र हो जायेगा।
मध्य भारत में बलाई नाम की एक अछूत जाति रहती है। सन् 1928 में इन्दौर के 15 गांवों के सवर्ण हिन्दुओं ने, जिनमें वहाँ के पटेल और पटवारी भी थे, बलाइयों को सूचना दी कि यदि तुम हमारे यहाँ रहना चाहते हो तो तुमको हमारी आज्ञायें माननी होंगी। इन आज्ञाओं में बलाइयों द्वारा सब तरह की निकृष्ट सेवाएँ करने और बदले में हिन्दुओं की मर्जी के मुताबिक नाम मात्र की मजदूरी लेने की बातें थी। जब बलाइयों ने इन्हें न माना तो उनको गाँव के कुओं से पानी भरने और पशु चराने से रोक दिया गया। बलाइयों को हिन्दुओं की भूमि में से जाने से रोक दिया गया। इसलिये बलाइयों के जिन खेतों के इर्द−गिर्द हिन्दुओं के खेत थे उनमें जा सकना असम्भव हो गया। हिन्दुओं ने अपने पशु बलाइयों के खेतों में छोड़ दिये। बलाइयों ने इन अत्याचारों के विरुद्ध इन्दौर-दरबार में आवेदन-पत्र दिये। पर उनको समय पर सहायता न मिल सकी और विवश होकर उन्हें अपने बापदादों की भूमि को छोड़कर आस-पास के अन्य इलाकों में भाग जाना पड़ा।
गुजरात के अंतर्गत कविथा-ग्राम में भी ऐसी ही घटना हुई थी। वहाँ के हिन्दुओं ने अछूतों को आज्ञा दी कि तुम गाँव के सरकारी स्कूल में अपने बच्चों को भेजने का आग्रह मत करो। सवर्ण हिन्दुओं की इच्छा के विरुद्ध अपने नागरिक अधिकारों पर जोर देने का साहस करने पर बेचारे अछूतों को घोर कष्ट सहन करने पड़े। अहमदाबाद जिले के जुनू नामक गाँव में कुछ खाते-पीते अछूत परिवारों की स्त्रियों ने धातु के बासनों में पानी लाना शुरू किया। अछूतों द्वारा धातु के बासनों के उपयोग को सवर्ण हिन्दुओं ने अपना अपमान समझा और अछूत स्त्रियों की ढिठाई के लिये उन पर हल्ला बोल दिया।
जयपुर राज्य के चकवारा गाँव की घटना सबसे विचित्र है। वहाँ के कुछ अछूतों ने तीर्थ यात्रा से लौटकर गाँव के अछूत भाइयों को भोज देने का प्रबन्ध किया। उन्होंने घी के पकवान बनाये। परन्तु जिस समय अछूत लोग भोजन कर ही रहे थे कि हिन्दू लोग लाठियाँ लेकर सैकड़ों की संख्या में आ धमके। उन्होंने उनके भोजन को खराब कर दिया और खाने वालों को पीटा। वे बेचारे जान बचाकर भाग गये। इन निहत्थे अछूतों पर यह घातक आक्रमण क्यों किया गया? इसका उत्तर यह दिया गया कि क्योंकि अछूत लोगों ने घी के पकवान बनाने की ढिठाई की थी। इसमें सन्देह नहीं कि घी केवल धनी लोग ही खा सकते हैं, परन्तु आज तक यह कोई नहीं समझता था कि घी खाना भी कोई बड़ी जाति होने का निशान है। चकवारा के सवर्ण हिन्दुओं ने यह प्रकट कर दिया कि अछूतों को घी खाने का कोई अधिकार नहीं, चाहे वे खरीद भी सकते हों, क्योंकि इससे हिन्दुओं की गुस्ताखी होती है।
इन घटनाओं से स्पष्ट है कि राजनैतिक सुधारों के साथ-साथ सामाजिक सुधार होना भी आवश्यकीय है। इतिहास भी इस बात का समर्थन करता है कि राजनीतिक क्राँतियों से पहले सदा ही सामाजिक और धार्मिक क्राँतियाँ होती रहती हैं। लूथर द्वारा जारी किया हुआ धार्मिक संस्कार योरोपीय लोगों के राजनीतिक उद्धार का पूर्व लक्षण था। इंग्लैंड में भी प्यूरीटिनयम राजनीतिक स्वतंत्रता की स्थापना का कारण हुआ। प्यूरीटिनिज्म ने नये संसार की नींव रखी और उसी ने अमेरिकन स्वतन्त्रता का युद्ध जीता। यह प्यूरीटिनिज्म एक धार्मिक आन्दोलन ही था। यही बात मुस्लिम साम्राज्य के विषय में भी सत्य है। अरब जाति को राजनैतिक प्रभुता प्राप्त होने के पहले, हजरत मुहम्मद उनमें एक पूर्ण धार्मिक क्राँति उत्पन्न कर चुके थे। भारतीय इतिहास भी इस सिद्धान्त का समर्थन करता है। चन्द्रगुप्त की चलाई हुई राजनीतिक क्राँति से बहुत पहिले भगवान बुद्ध धार्मिक और सामाजिक क्राँति कर चुके थे। महाराष्ट्र के साधु-महात्माओं द्वारा सामाजिक और धार्मिक सुधार के बाद ही शिवाजी राजनीतिक क्राँति ला सके थे। सिक्खों की राजनीतिक क्राँति के, पूर्व गुरुनानक सामाजिक और धार्मिक क्राँति पैदा कर चुके थे। ये उदाहरण यह दिखलाने के लिये पर्याप्त है कि किसी जाति के राजनैतिक अभ्युदय के लिये पहले उसकी आत्मा और बुद्धि का उद्धार होना परम आवश्यक है।
[इतिहास के वास्तविक तत्व को जानने वाला विद्यार्थी भली प्रकार समझता है कि भारत की राजनीतिक पराधीनता का प्रधान कारण भारतीय समाज में उत्पन्न हो गया यह सामाजिक अन्याय ही था। इस समय भी हमने अपने राजनैतिक-संग्राम में जो सफलता प्राप्त की है उसका बहुत कुछ श्रेय पिछले साठ-सत्तर वर्षों के समाज और धर्म क्षेत्र सम्बन्धी सुधार आन्दोलनों को भी है। पर यह आन्दोलन अभी पूर्ण सफल नहीं हुआ है और हिन्दू जाति के एक बड़े भाग पर उसका प्रभाव बहुत थोड़ा पड़ा है। यही कारण है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता पा जाने पर भी भारतीय राष्ट्र सफल नहीं हो रहा है और उसकी प्रगति में अनेकों बाधायें आती रहती हैं। इसलिये यदि हम अपना कल्याण चाहते हैं तो धर्म के सत्य सिद्धान्तों का प्रचार करके सामाजिक अन्याय का मूलोच्छेदन करना चाहिये।