बौद्ध धर्म में स्त्रियों का स्थान

August 1958

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(श्री चतुरसेन शास्त्री)

बुद्ध भगवान ने यद्यपि स्त्रियों को अपने संघ में स्थान दिया था और पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी भिक्षुणी बन सकती थीं। परन्तु बौद्ध सम्प्रदाय का मूल सिद्धान्त स्त्रियों को पुरुषों से दूर रखना ही था। क्योंकि बौद्ध धर्म में त्याग और वैराग्य का स्थान मुख्य है, भोग का नहीं। बुद्ध ने स्त्रियों की निन्दा तो नहीं की परन्तु बराबर यह सलाह दी कि लोग स्त्रियों के खतरे से बचे रहें। उनके विचारानुसार आदर्श जीवन वह है जो स्त्रियों से अलग रहकर और संभव हो तो किसी भी दशा में उनसे न मिलकर व्यतीत किया जाय। एक बार बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द ने उसने प्रश्न किया-”भगवान, स्त्रियों के सम्बन्ध में हम कैसा व्यवहार करें?”

बुद्ध ने कहा-”उन्हें देखो मत, आनन्द।”

आनन्द ने कहा- “परन्तु उन्हें देखना पड़े तब?”

बुद्ध-”तो बहुत सावधान रहो।”

फिर भी बुद्ध ने अपने साधारण अनुयायियों और गृहस्थों के प्रति यही उपदेश किया था कि जहाँ तक हो सके अपनी स्त्रियों को अपना मित्र समझो और उन पर विश्वास रखो। साधारण भक्तों को उन्होंने यह उपदेश दिया कि माता-पिता की सेवा, पत्नी और बच्चों का सहवास तथा शाँतिपूर्ण उद्योग ही सबसे बड़ा आशीर्वाद है।

बौद्ध धर्म में जहाँ पति-पत्नी के सम्बन्ध और उनके व्यवहार के लिये नियमोपनियमों की चर्चा की गई है, वहाँ पत्नी के लिये पति की आज्ञापालन का कोई जिक्र नहीं है। पतियों के लिये जरूर आदेश है कि वे अपनी पत्नियों के विश्वास पात्र रहें, उनका आदर करें और उन्हें यथोचित वस्त्र आभूषण प्रदान करें। पत्नियों को पतिव्रत धर्मपालन और मितव्ययी बनने की शिक्षा दी है। स्त्रियों से यह भी कहा गया है कि वे अपने घरेलू कामों में बुद्धिमत्ता और परिश्रम से काम लें, यह सब होने पर भी बुद्ध ने अविवाहित जीवन को अधिक श्रेष्ठ माना है, क्योंकि उसमें मनुष्य शुद्ध आचार-विचार और परोपकार का पालन अधिक उत्तमता से कर सकता है। परन्तु गृहस्थियों के लिये भी उन्होंने ऐसे नियम बनाये हैं कि वे परस्पर एक दूसरे को अपना मित्र समझें, परस्पर एक दूसरे का आदर करें और परस्पर एक दूसरे का विश्वास करें।

माता के प्रति बुद्ध भगवान के भाव बहुत उच्च थे। बुद्ध ने अपनी माता और पत्नी के आग्रह से ही स्त्रियों को भी भिक्षुणी बनने का अधिकार दिया था। बौद्ध धर्म के अनुसार स्त्रियों को निर्वाण प्राप्त करने का उतना ही अधिकार है जितना कि पुरुषों को। कहा जाता है कि बुद्ध के जीवनकाल में 73 स्त्रियों और 107 पुरुषों ने निर्वाण प्राप्त करके मानव-जीवन के विकास की चरम सीमा तक पहुँचने का प्रयत्न किया था। जब बौद्ध धर्म का प्रचार किया जा रहा था तब स्त्रियों ने ही सबसे अधिक आर्थिक सहायता की थी। बुद्ध ने बिसाखा आदि स्त्रियों की बहुत प्रशंसा की है। एक स्त्री की प्रशंसा करते हुये बुद्ध ने कहा है-”यह महिला साँसारिक वातावरण में रहती है-और राजरानियों की कृपापात्री है, तो भी इसका हृदय स्थिर और शाँत है। उसकी अवस्था युवा है और वह धन तथा ऐश्वर्य से घिरी है, फिर भी वह कर्तव्य पथ में अविचल और विचारशील है। यह इस संसार में दुर्लभ चीज है।”

जिस काल में बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया था, उस काल में स्त्री-जाति की स्थिति बहुत शोचनीय हो गई थी। यह बुद्ध का ही साहस था कि उसने कहा- “निर्वाण की प्राप्ति न केवल ब्राह्मण को ही होती है वरन् मनुष्य मात्र को हो सकती है, और स्त्रियों को भी हो सकती है।” यह वही समय था जब ‘स्त्री शूद्रो नाधीयताम’ की आवाज सर्वत्र गूँज रही थी और स्त्रियों का समाज में कोई स्थान ही न था।


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