एक है तू ही अमल अदोष (Kavita)

August 1958

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(1) पिता तू ही है सबका एक-

जगत जपता तेरा ही नाम। सदा रहता है तू सब ठौर- किन्तु है तेरा कहीं न धाम।

(2) विश्व में करके तेरी खोज- खूब होते हैं नर हैरान। पता पाते क्या कोई कभी ढूँढ़कर जल-थल व्योम वितान॥

(3) अजन्मा अज अनन्त अव्यक्त- सृष्टिकर्ता तू ही भगवान। सुदर्शन, गदा पद्म कर शंख- विश्वपालक तू विष्णु महान॥

(4) भयंकर व्याल विभूषित अंग- शूलधर शंकर कठिन कृतान्त। तुम्हारे ही हैं तीनों रूप एक तू ही है पुरुष प्रशान्त॥

(5) सृष्टि का गौरवमय आधार- ज्योर्तिमय जग-जीवों का प्राण। कन्द फल मधुर स्वाद मकरन्द- सुमन में सरस सुवासित घ्राण॥

(6) प्रभाकर में तू प्रभा पसार- विश्व का करता है कल्याण। शान् शीतल शश्किर में घोल- सहर्षित करता सुधा प्रदान॥

(7) अगम वारिधि का तू विस्तार- व्योम का निर्मल श्याम स्वरूप। अग्नि का जगमग दिव्य प्रकाश- वायु-व्यापकता अलख अनूप॥

(8) सुखद शीतलता जल के बीच- जीव पाते जिस से सन्तोष। अन्न में जीवन-शक्ति महान- एक है तू ही अमल अदोष॥


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