‘नकद धर्म’ का पालन करके सुखी बनिए।

August 1958

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(स्वामी रामतीर्थ जी)

हमारे देश में सबसे बड़ी चीज धर्म ही मानी जाती है। विद्वानों और महात्माओं की तो बात ही छोड़ दीजिये, साधारण घास छीलने वाला खेतिहर और बोझ ढोने वाला मजदूर भी ‘धरम’ का बड़ा ध्यान रखते हैं और जो कार्य धर्म-विरुद्ध बतलाया जाय उसे करने को कभी तैयार नहीं होते। पर खेद है कि अज्ञानवश वे धर्म के वास्तविक स्वरूप को भूल गये हैं, इसलिए धर्म द्वारा अपना कल्याण करने के बजाय वे प्रायः हानि ही उठाते रहते हैं, ठगे और लूटे जाते हैं। वे धर्म को अधिकाँश में परलोक में लाभ पहुँचाने वाला कार्य मानते हैं और इस कारण इस लोक में प्रायः उनको कठिनाइयाँ ही सहन करनी पड़ती हैं। वह सब हमारे ही भ्रम का परिणाम है। जिनका अगर हम यह समझ लें कि, धर्म वही है जिसका परिणाम हमारे और दूसरों के लिए इस दुनिया में ही कल्याणकारी दिखलाई पड़े, तो अनेक कठिनाइयों और हानिकारक रूढ़ियों से बच सकते हैं। इस सम्बन्ध में स्वामी रामतीर्थ जी के उपदेश बड़े मार्मिक हुआ करते थे, जिनका कुछ अंश यहाँ दिया जाता है।

एक मनुष्य ने कुछ धन जमीन में गाड़ रखा था। उसके लड़के को मालूम हो गया। लड़के ने जमीन खोदकर धन निकाल लिया और खर्च कर डाला; किन्तु तोलकर उतने ही वजन के पत्थर वहाँ रख छोड़े। कुछ दिन के बाद जब बाप ने जमीन खोदी और रुपया न पाया तो रोने लगा- “हाय। मेरी दौलत कहाँ गई?” लड़के ने कहा-”पिताजी, रोते क्यों हो? आपको उसे काम में तो लाना ही न था और रख छोड़ने के लिए देख लो, उतने ही तोल के पत्थर वहाँ मौजूद हैं।”

धार्मिक वाद-विवाद और झगड़े जो होते हैं, वे उधार धर्म पर होते हैं। नकद धर्म वह है जो मरने के बाद नहीं, किन्तु वर्तमान जीवन से सम्बन्ध रखता है। उधार धर्म अन्ध-विश्वास पर निर्भर होता है। उधार धर्म कहने के लिए है, नकद धर्म करने के लिए। धर्म के उस भाग पर जो नकद है, सब धर्म सहमत हैं। “सत्य बोलना, विद्या अध्ययन करना और उसे आचरण में लाना, स्वार्थ से रहित होना, दूसरे के धन आदि को देख कर अपना चित्त न बिगाड़ना, संसार के लालच और धमकियों के जादू में आकर वास्तविक स्वरूप को न भूलना, दृढ़चित्त और स्थिर स्वभाव होना, इत्यादि” इस नकद धर्म पर कहीं दो मत नहीं हो सकते। उधार के दावे बाद-विवाद करने की प्रीति रखने वाले लोगों को सौंपकर स्वयं वर्तमान कर्त्तव्य, नकद धर्म पर चलने वाले ही उन्नति करते और वैभव को पाते हैं।

भारतवर्ष और अमेरिका में क्या भेद है? यहाँ दिन है तो वहाँ रात है। वहाँ दिन है तो यहाँ रात। जिन दिनों हिन्दुस्तान का सितारा ऊँचा था, अमेरिका को कोई जानता भी नहीं था। आज अमेरिका उन्नति पर है तो भारतवर्ष की कोई पूछ नहीं। हिन्दुस्तान में बाजार आदि में रास्ता बाँई ओर चलते हैं, वहाँ दाँई ओर। पूजा और सत्कार के समय यहाँ जूता उतारते हैं, वहाँ टोपी। यहाँ घरों में राज्य पुरुषों का है, वहाँ स्त्रियों का। इस देश में यह शिकायत है कि विधवा ही विधवा है उस देश में कुमारी ही कुमारी अधिक हैं। हिन्दुस्तान में गधा और उल्लू मूर्खता के चिह्न हैं, उस देश में गधा और उल्लू भलाई और बुद्धिमता के चिह्न हैं। इस देश में जो पुस्तक लिखी जाती है, वह जब तक आधी के लगभग पहले के विद्वानों के प्रमाणों से न भरी हो, उसका कुछ सम्मान नहीं होता, उस देश में पुस्तक की सारी बातें नवीन न हों तो उसकी कोई कद्र ही नहीं। यहाँ किसी को कोई लाभदायक बात मालूम हो जाय तो उसे छिपा कर रखते हैं वहाँ उसे छापेखाने द्वारा प्रदर्शित कर देते हैं। यहाँ अधर्म की रूढ़ियों की उपासना अधिक है, वहाँ नकद धर्म बहुत है। हमारे यहाँ इस बात में बड़ाई है कि औरों से न मिलें, अपने ही हाथ से पका कर खायें और सबसे अलग रहें वहाँ पर जितना औरों से मिलें उतनी ही बड़ाई है। यहाँ पर अन्य देशों की भाषा पढ़ना दोष-पूर्ण समझा जाता है। वहाँ जितना अन्य देशों की भाषा का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उतना ही अधिक सम्मान होता है।

जब राम जापान को जा रहा था तो जहाज पर अमेरिका का एक वयोवृद्ध प्रोफेसर मित्र बन गया। वह रूसी-भाषा पढ़ रहा था। पूछने पर मालूम हुआ कि ग्यारह भाषायें वह पहले से जानता है। उससे पूछा गया-”इस उम्र में यह नवीन भाषा क्यों सीखते हो?” उसने उत्तर दिया “मैं भूगर्भ शास्त्र का प्रोफेसर हूँ। रूसी भाषा में भूगर्भ-शास्त्र की एक अनोखी पुस्तक लिखी गई है। यदि मैं उसका अनुवाद कर सकूँगा तो मेरे देशवासियों को अत्यन्त लाभ पहुँचेगा। इसलिये रूसी भाषा पढ़ता हूँ।” राम ने कहा-”अब तुम मौत के निकट हो। अब क्या पढ़ते हो? ईश्वर-सेवा करो। अनुवाद करने में क्या धरा है?” उसने उत्तर दिया-”लोक सेवा ही ईश्वर सेवा है। इसके साथ यदि यह भी मान लिया जाय कि इस काम को करते-करते मुझे नरक में जाना पड़े तो मैं जाऊँगा इसकी कुछ परवाह नहीं। अगर मुझे घोर नरक के दुःख मिलते हैं तो हजार जान से भी कबूल हैं, यदि भाइयों को सुख और लाभ मिल जाय। इस जीवन में सेवा के आनन्द का अधिकार मैं मौत के उस पार के डर से नहीं छोड़ सकता।”

यही नकद धर्म है। भगवद्गीता में बड़ी सुन्दरता से आज्ञा दी है-कर्म तो करते ही जाओ; परन्तु फल पर दृष्टि मत रखो।

एक मनुष्य बाग लगाता था। किसी ने पूछा “बूढ़े मियाँ, क्या करते हो? तुम क्या इसके फल खाओगे? एक पाँव तो तुम्हारा पहले से ही कब्र में है।”

माली ने उत्तर दिया-”औरों ने बोया था, हमने खाया। हम बोयेंगे, दूसरे खायेंगे।”

इसी प्रकार संसार का काम चलता है। जितने महापुरुष हो गये हैं-राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, मुहम्मद इत्यादि, क्या इन महापुरुषों ने उन वृक्षों का फल स्वयं खाया था, जिसे वे बो गये थे। कदापि नहीं। इन महापुरुषों ने तो केवल अपने शरीरों को मानो स्वाद बना दिया, फल कहाँ खाये? जिन वृक्षों का फल शताब्दियों के बाद लोग आज खा रहे हैं, वे उन ऋषियों की खाक से उत्पन्न हुए हैं। यह सिद्धान्त ही धर्म का वास्तविक प्राण है।


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