सृष्टि-रचना के मूल तत्व

August 1958

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(श्री श्रीनिवास)

जिस सृष्टि में हम रहते हैं उसकी रचना कैसे हुई, इसका वर्णन प्रत्येक धर्म में किया गया है। धर्म का एक अंग यह भी माना गया है कि वह आत्मा, परमात्मा और सृष्टि के सम्बन्ध में लोगों की जिज्ञासा को पूरा करें, क्योंकि इन प्रश्नों का समाधानकारक उत्तर पाये बिना मनुष्य की धर्म बुद्धि दृढ़ नहीं हो सकती और वह सच्चा आस्तिक भी नहीं बन सकता।

जैसा सभी जानते हैं सृष्टि रचना के सम्बन्ध में, प्रत्येक धर्म में कुछ न कुछ बतलाया गया है, पर भारतीय धर्मों के सिवा अन्य किसी ने इस पर गम्भीरतापूर्वक और विस्तार से विचार नहीं किया। उदाहरणार्थ ईसाइयों की बाइबिल में लिख दिया है कि ईश्वर ने छः दिन में विश्व की भिन्न-भिन्न वस्तुओं को बनाया और सातवें दिन विश्राम किया, जो कि रविवार का दिन था। ऐसी ही बातें मुसलमानों की कुरान में लिखी हुई हैं। सृष्टि-रचना का सविस्तार और बुद्धि संगत वर्णन हमको हिन्दू वेद-शास्त्रों में ही मिलता है। इनमें विभिन्न स्थलों में लिखे वर्णन में कुछ अन्तर अवश्य है, तो भी वह अधिकाँश में आधुनिक विज्ञान की खोजों से मिलता-जुलता जान पड़ता है। आजकल भी अनेक विद्वानों और अनुभवी अध्यात्मवेत्ताओं ने उसकी व्याख्या करके इस विषय को बोधगम्य बनाने की चेष्टा की है जिसका साराँश हमारे पाठकों को अवश्य रुचिकर होगा।

विश्व की रचना के पहले एक महाशून्य आकाश में एक पीली ज्योति सर्वत्र प्राप्त हो रही थी। यह अनन्त प्रकाश समस्त विश्व में छः रूपों में अभिव्याप्त है और सृष्टि के प्रत्येक कण, उसके अणु-परमाणु, उसके चर-अचर जीवों तथा उसकी समस्त जागृत शक्तियों पर इसकी छाप है। यही अनन्त प्रकाश सृष्टि का आदि हेतु, उसका उद्गम स्थान है। इसी से समस्त शक्तियाँ विकसित होकर सारी सृष्टि और उसके समस्त नक्षत्र मण्डल को एक अटूट शृंखला में बाँध रही है।

इस अनन्त प्रकाश से एक महान स्वर लहरी (शब्द ब्रह्म) फूट पड़ी और उस स्वर लहरी से एक विश्वव्यापी अनन्त संगीत में एक अलौकिक स्वर माधुर्य, दिव्य लयता थी। यह स्वर लहरी चूँकि उस अनन्त प्रकाश से अभिन्न थी, अतएव यह भी समस्त चराचर विश्व में उस अनन्त प्रकार के साथ ही व्याप्त हो गई। दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि इस अनन्त प्रकाश की समस्त रश्मियाँ तथा उन रश्मियों के प्रत्येक कण संगीतमय हो गए। यह संसार का सबसे सुन्दर, सबसे दिव्य, सबसे मधुर संगीत था और उसमें एक दृढ़ और खोजपूर्ण एकलयता थी। यह संगीत इस संसार तथा सृष्टि का दूसरा उद्गम स्थान था।

उस अनन्त संगीत की स्वर लहरी से एक व्यापक आनन्द की सृष्टि हुई और उस व्यापक आनन्द के द्वारा उस सर्वशक्तिमान अनन्त प्रकाश की निर्माण शक्ति-उसका उत्पादक तेज पुँज जाग उठा। इस उत्पादक तेजपुँज ने अपने पूर्ण विकास में आकर पाँच तत्वों के इस विश्व की रचना की। इसके बाद एक छठे तत्व की भी रचना हुई जिसका ज्ञान आत्मज्ञानी ही प्राप्त कर सकते हैं।

अनन्त अथवा दिव्य प्रकाश की रश्मियाँ स्थिर होती हैं- स्थिर तथा प्रवर्धनशील। इनके रूप भी स्थिर होते हैं। इन्हीं रूप ज्योतियों के द्वारा ये विश्व के भीतर और बाहर परिव्याप्त रहती हैं। इन रूप ज्योतियों को भी अनन्त प्रकाश की स्थिर रश्मियाँ चारों ओर से ढ़क लेती हैं। ढ़कने वाली ये स्थिर रश्मियाँ अत्यन्त महान हैं। इनकी प्रवर्धनशील शक्ति उस महान अनन्त प्रकाश के गर्भ में गिरती है जो आगे चलकर छः अवस्थाओं में विभक्त हो जाती है। इन अवस्थाओं का वर्णन श्रीमद्भगवतगीता में भी पाया जाता है।

सृष्टि की उत्पत्ति में ॐ की भी बड़ी महिमा है। शास्त्रों में ब्रह्मा, शिव और विष्णु का उल्लेख किया गया है। धर्म गुरुओं ने साधारण जनता के समझ सकने के उद्देश्य से इनके मानवीय रूपों का वर्णन किया है पर वास्तव में इनका कोई दैहिक रूप नहीं होता। वास्तव में ये तीनों ॐ की ही तीन धाराएं हैं। पहले अनन्त प्रकाश विश्व में व्याप्त होकर क्रियमाण हुआ। इसके बाद वह और भी विस्तृत होने लगा और आगे चलकर तीन कल्याणकारी धाराओं में विभक्त हो गया। ये तीन धाराएं ॐ के आकार में बदल गई। आदि ज्योति के संगीत में परिणित होने के बाद ॐ की उत्पत्ति हुई।

आदि ज्योति ॐ के रूप में विश्व के शिरा केन्द्र की तीन जिह्वाओं की भाँति फैली। ये तीनों भुजाएं ही ब्रह्म की तीन वृत्तियों की कल्पनाएं बन जाती है, अर्थात् (1) विनाश वृत्ति, (2) उत्पादक वृत्ति, (3) पोषक वृत्ति। इस प्रकार शिव, ब्रह्मा और विष्णु का वास्तविक महत्व ॐ की तीन भुजाओं में प्रकट होता है। हमारे लिए यह गौरव की बात है कि सृष्टि के मूल ॐ का यह वास्तविक तत्व और विशद् वर्णन हिन्दू-शास्त्रों द्वारा ही प्रकट हुआ है।

इस प्रकार अनन्त प्रकाश से निकलने वाला उत्पादक तेजपुँज आगे चलकर संसार में ब्रह्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्म तीन अवस्थाओं में रहता है- चेतन, अचेतन और दिव्य चेतन अचेतन दशा में ब्रह्म अपनी योग्यता के द्वारा व्यक्त, अव्यक्त और दिव्य अवस्थाओं में परिक्रमण करते हुए, जीवधारी और निर्जीव पदार्थों में व्याप्त रहता है। इन्हीं अवस्थाओं के कारण मनुष्य भी उस ब्रह्म का सूक्ष्म प्रतिबिम्ब है।

ब्रह्म के उत्पादक तेजपुँज ने जब महाशून्य से सृष्टि रचने का कार्य आरम्भ किया, उसी समय विष-ज्वाला का एक अनन्त प्रवाह बह चला। उस समय सहस्र प्रकार का दारुण विष उत्पन्न हुआ। जिसे हमारे यहाँ सहस्रनाम [शेषनाग] के नाम से पुकारते हैं। वास्तव में वह सहस्र-विष ही था, जो उत्पन्न होकर स्वयं अपनी प्रतिक्रियाओं से सृष्टि के बाहर और भीतर परिवेष्टित हो गया और जो विश्व के सभी जीवित प्राणी और निर्जीव पदार्थ टकराकर चूर-चूर न हो जावें। इसी प्रकार यह संसार आज अपने इस रूप में इस विश्व के गर्भ में अवस्थित है। साथ ही यह बात स्पष्ट है कि यह विश्व सभी ओर से एक विशाल धूम्रराशि से आच्छादित है।

जिस विश्व का एक भाग हमारी पृथ्वी है उसके प्रादुर्भाव। (प्रकट होने) और लय होने के विषय में मनुष्य का ज्ञान अभी बहुत थोड़ा है। एक ही ईश्वर से उत्पन्न हुए और उसी की शक्ति से पोषण पाये सौर-मण्डल को हम विश्व कहते हैं। हमारी दृष्टि में यह पूर्ण दिखलाई पड़ता है, अर्थात् किसी बाह्य जगत या लोक से इसका सम्बन्ध नहीं रहता। इस प्रकार यह सौर-जगत ही हमारा विश्व है और उसका केन्द्र जो सूर्य है वह ईश्वर की ऐसी स्थूल उपाधि है जिसे हम नेत्रों से देख सकते हैं। वास्तव में तो सृष्टि के प्रत्येक रूप में ईश्वर व्यक्त भाव को प्राप्त है, प्राणदायक पोषण, सर्वव्यापक, सर्वनियामक, सर्वव्यव-संस्थापक केन्द्रस्थ सत्ता की दृष्टि से सूर्य को ही ईश्वर का सबसे नीचा प्रकट रूप कह सकते हैं।

अँधेरी रात्रि में आसमान में अनगिनत सौ ‘लोकों को देखकर चाहे हमें यह निश्चय हो जाय कि वहाँ जगत रूपी महासागर में हमारा सौर जगत हमारा विश्व केवल एक बूँद मात्र है, पर यह बूँद उसमें स्थित हमारे सरीखे मनुष्यों के अनुपात से स्वयं एक महासागर है।


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