यज्ञ का विरोध क्यों?

August 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री गोविन्दचन्द्र भट्ट पुरोहित)

प्रसन्नता की बात है कि आज गायत्री यज्ञों की लहर सारे भारतवर्ष में फैल रही है। ब्राह्मण होने के नाते मुझे इससे भारी प्रसन्नता होती है और गायत्री परिवार के इस पुण्य प्रयत्न को देखकर मेरी अन्तरात्मा पुलकित हो जाती है। लगता है कि हजारों लाखों वर्षों पर वह युग अब पुनः इस भारत भूमि में अवतरित हो रहा है जिसे ऋषियों का युग कहते थे और जब घर-घर में अग्निहोत्र का यज्ञ धूम्र उठता था, जब घर-घर में वेद मन्त्रों की ध्वनि सुनाई पड़ती थी।

कई गायत्री यज्ञों में मेरा जाना हुआ है। जहाँ सामान्य जनता तथा सभी विचारशील लोग इस पुण्य प्रयत्न की भूरी-भूरि प्रशंसा करते देखे जाते हैं, वहाँ यह भी देखा जाता है कि मेरे स्वजातीय बन्धु पण्डित पुरोहित लोग इस कार्य में सहयोग देना तो दूर उलटे इनमें अड़ंगा लगाते हैं। उनका अड़ंगा जनता के उत्साह और विवेक के सामने सफल तो होता नहीं उलटा इनका मान तथा मूल्य लोगों की दृष्टि में घट जाता है। लोग इन चन्द लोगों की भूलों को देखकर ब्राह्मण वर्ग पर ही आक्षेप करने लगते हैं। इससे मुझे भारी चोट पहुँचती है। मेरी ही भाँति लाखों ब्राह्मण इस यज्ञ कार्य में सच्चे मन से सहयोग देते हैं और प्रसन्नता अनुभव करते हैं। कुछ थोड़े से पण्डित पुरोहित वर्ग के लोग सारी ब्राह्मण जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करते, उनकी हरकतों का दोष सारे ब्राह्मण समाज को देना उचित नहीं। सच्चा ब्राह्मण यज्ञों का, विशेषतया गायत्री यज्ञों का सहायक हो सकता है।

गायत्री और यज्ञ रूपी माता-पिता को कन्धे पर रखकर प्राचीन काल के ब्राह्मण श्रवणकुमार की तरह उन्हें सारे देश में पहुँचाते थे। ब्राह्मण के छह कृत्यों में यज्ञ करना और यज्ञ कराना भी एक कर्तव्य है। इसके लिये ब्राह्मण अपने जीवन का एक तिहाई भाग खर्च करते थे। यज्ञ करने और यज्ञ कराने में उनका तिहाई जीवन बीत जाता था।

युग ने पलटा खाया। लोगों के मन धर्म कर्त्तव्यों से हटकर भौतिक स्वार्थ साधना में लगे। अधिकाँश ब्राह्मण भी अपने शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों को परित्याग करके विद्या पढ़ना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, इन छह कर्मों को त्याग कर, दान देने के लिये दान लेने की बात को भूलकर केवल अपने निज के उपयोग के लिये ही निमन्त्रण तथा दक्षिणा लेने तक सीमित हो गये।

विद्या पढ़ने की थोड़ी सी परम्परा अभी पुरोहित वर्ग में जारी है, क्योंकि इसके सिवा उनकी आजीविका के साधन नहीं बनते। विद्या पढ़ाने, ज्ञान देने, धर्मोपदेश करने, जनता का पथ प्रदर्शन करने, राष्ट्र के चरित्र को ऊँचा उठाने की आवश्यक जिम्मेदारी तो उन्हें झंझट जैसी बेकार बात मालूम पड़ती है। दान लेने का तो रिवाज है पर दान देने को नित्य कर्तव्य मानने वाले पुरोहित तो कहीं कोई विरले ही दीख पड़ेंगे। यज्ञ के सम्बन्ध में तो और भी अधिक अन्धकार है। नित्य अग्निहोत्र करने वाले नैष्ठिक ब्राह्मण आज उँगलियों पर गिनने लायक संख्या में मिलेंगे। ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व यज्ञों के ऊपर निर्भर था, मनु भगवान ने कहा है कि ‘महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु’

अर्थात् यज्ञ और महायज्ञों के द्वारा ही यह शरीर ब्राह्मण बनाये जाते हैं। ब्राह्मण पैदा नहीं होते वरन् यज्ञ और महायज्ञों के द्वारा इनमें ब्राह्मणत्व पैदा किया जाता है। ब्राह्मणत्व को उत्पन्न करने का प्रधान माध्यम यज्ञ को पिछले दिनों एक प्रकार से बेकार बात जैसा समझा जाने लगा था। प्रसन्नता की बात है कि गायत्री तपोभूमि यज्ञों को प्राचीन युग जैसा व्यापक रूप देने का सराहनीय कार्य कर रही है। उससे अब यज्ञों का भारतीय जनता में पुनः प्राचीन काल जैसा महत्व होने लगा है।

गायत्री यज्ञ इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। आज चारों ओर कुबुद्धि छाई हुई है, लोग सद्विचार और सत्कर्मों को छोड़कर कुविचार और दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं फलस्वरूप रोग, शोक, चिन्ता, भय, ईर्ष्या-द्वेष, अकाल, अभाव, क्लेश एवं कलह के नारकीय दृश्य घर-घर दिखाई पड़ रहे हैं। इनको शमन करने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री माता का आह्वान करने का आध्यात्मिक उपचार भी आवश्यक है। केवल लौकिक उपायों से ही इस व्यापक कुबुद्धि का शमन न हो सकेगा। गायत्री की सद्बुद्धि दायिनी शक्ति यज्ञों की ऊष्मा से ही प्रचण्ड बनती है और मानव मस्तिष्कों में प्रवेश करके उन्हें सन्मार्ग की प्रेरणा देती है। आज मानव के दुष्कर्मों और कुविचारों से सूक्ष्म जगत दूषित हो रहा है फलस्वरूप चारों ओर अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, तूफान, बीमारी, महामारी, दुर्घटनाएं, हत्याएं एवं युद्ध विभीषिकाएं विश्व की सुख-शान्ति को निगल जाने के लिए मुँह बाएं खड़ी हैं। ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार अगले 2-3 वर्षों में एक राशि पर 8॥ ग्रह एकत्रित होने वाले हैं जिनका प्रभाव सारे संसार के लिए बड़ा भयंकर होने की संभावना है। इन विभीषिकाओं की शाँति के लिए गायत्री यज्ञों का आयोजन एक महत्वपूर्ण उपाय है। यों वर्षों का अभाव दूर करने के लिए विष्णु यज्ञ, विलासिता का त्याग और भक्ति भावना बढ़ाने के लिए रुद्र यज्ञ, बीमारियों को रोकने के लिये मृत्युँजय यज्ञ और लड़ाई के समय जनता में जोश एवं वीरता भरने के लिये चण्डी यज्ञ कराये जाते हैं। पर जब मनुष्यों को कुमार्गगामिता से बचाकर सत्मार्ग पर लाने का विश्व-व्यापी अशुभ अनिष्ट को रोकने का प्रयोजन हो तो गायत्री यज्ञ ही आध्यात्मिक अवलम्बनों में एक मात्र धर्मानुष्ठान रह जाता है।

संसार की वर्तमान विषम परिस्थितियों में धर्मसेवा के इस महान् आयोजन, गायत्री यज्ञों में पुरोहित वर्ग को सेवा-भाव से दौड़कर संलग्न होना था। स्वयं उनका संचालन करना था, और दूसरे लोग जो कोई इस कार्य में उत्साहित थे, उनका साहस बढ़ाना था, पर जब यह दिखाई पड़ता है कि वे उलटे अड़ंगे लगाते हैं तब आश्चर्य और दुख की सीमा नहीं रहती।

उनका कथन है कि केवल ब्राह्मणों को ही हवन करना चाहिये। उन्हें ही हवन करने का अधिकार है। उन्हें ही पुष्कल दक्षिणा, वस्त्र, पात्र, मिष्ठान देकर हवन कराया जाना चाहिए। गायत्री-परिवार द्वारा आयोजित यज्ञों में द्विजत्व का व्रत धारण किये धर्म प्रवृत्ति के श्रद्धालु उपासकों को यज्ञ में आहुतियाँ देने के लिए बिठाया जाता है तो इन पुरोहितों को लगता है कि (1) हमारी बराबरी दूसरे लोग करने लगे, (2) हमारी दक्षिणा आजीविका पर आघात लगने लगा। उन्हें लगता है कि जब अन्य लोग हवन कराने लगे तो कुछ दिनों में हमारी कथा वार्ता, पूजा, पोथी भी यही लोग ले लेंगे और फिर जो दान दक्षिणा हमें मिलती है वह बन्द हो जायगी। इसमें उन्हें अपना सामाजिक सम्मान और आर्थिक लाभ गिरता दिखाई पड़ता है। वे आशा करते हैं कि अन्य साधु महात्माओं द्वारा संचालित यज्ञों में जिस प्रकार पंडित पुरोहितों को पुष्कल दक्षिणा मिलती है, घर के चार भाई भतीजे अपने यहाँ के यज्ञों में होता बन गये तो सहज दो चार सौ रुपये घर में पहुँचते हैं, इसी प्रकार का आर्थिक लाभ गायत्री परिवार द्वारा आयोजित यज्ञों से भी उन्हें प्राप्त होना चाहिये। उनकी बात यदि पूरी हो जाय तो उन्हें रत्ती भर भी विरोध नहीं हो सकता। इनमें वे पूरी तत्परता से सहयोग करें और भरपूर प्रशंसा करें।

गायत्री परिवार यदि ऐसी आर्थिक स्थिति में हो तो उसे स्थानीय पंडित पुरोहितों को पुष्कल दक्षिणा देने में प्रसन्नता ही होती। पर अन्य साधु महात्माओं के द्वारा आयोजित यज्ञों में लक्षाधीशों द्वारा पुष्कल धन एकत्रित कर लिया जाता है और वे उसे खर्च भी पूरी फैयाजी से करते हैं। गायत्री-परिवार की स्थिति वैसी नहीं है। उपासक प्रायः गरीब होते हैं। वे अपना पेट काटकर थोड़े-थोड़े पैसे इकट्ठे करते हैं और उन्हीं से यज्ञ भगवान की पूजा करते हैं। जितने धन से एक पंडित को सन्तुष्ट कर सकना कठिन है, उससे कहीं कम में पूरे यज्ञ का आयोजन बनाना पड़ता है। ऐसी दशा में गायत्री परिवारों को खेद और विवशतापूर्वक यह कहना पड़ता है कि वे स्वल्प दक्षिणा दे सकने की ही स्थिति में हैं। उदार ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है कि स्थिति को देखकर उतने से ही सन्तुष्ट हो जायं। जिस प्रकार अन्य लोग पैसे देकर यज्ञ की व्यवस्था करते हैं, वे भी धन न सही कुछ घण्टे का समय चन्दे में दे दें। यदि ऐसा हो सका होता तो सारे देश में आज यज्ञों की लहर फैल जाती, संसार का बड़ा कल्याण होता और उन सहयोग कर्त्ता ब्राह्मणों का मान भी घटता नहीं बढ़ता ही।

यज्ञ हिन्दू धर्म का पिता है। किसी हिन्दू का विवाह यज्ञ के बिना नहीं होगा, कोई हिन्दू बिना यज्ञ-चिता के अन्यत्र नहीं जलाया जाता, फिर केवल पंडित ही आहुति दें यह बात कहाँ रह जाती है। विवाह में वर-वधू दोनों ही आहुति देते हैं। बिना स्त्री के तो यज्ञ ही सफल नहीं होता। भगवान राम को सीता जी के न होने पर सोने की सीता बनाकर यज्ञ की आवश्यकता पूरी करनी पड़ी थी। फिर यह कहना कि स्त्रियाँ हवन न करें, ब्राह्मणों के अतिरिक्त और लोग हवन न करें-क्या अर्थ रखता है। यज्ञ शुभ कार्य है, उससे यज्ञ कर्ता का शरीर निरोग होता है, बुद्धि शुद्ध होती है, पाप दूर होते हैं, आत्मा पवित्र होती है यदि लाभ यज्ञ पर बैठने वाले ब्राह्मणोतर लोग या नारियाँ भी उठा लें तो इसमें उन पुरोहित जी की क्या हानि है, यह बात हमारी समझ में तो नहीं आती।

तान्त्रिक मन्त्रों को किसी को बताया नहीं जाता, गुप्त रखा जाता है। उनका जप-हवन भी गुप्त रूप से बिना उच्चारण के होता है। परन्तु वेद मन्त्रों का पाठ गायन एवं हवन उच्चारणपूर्वक होता है। पण्डितजी को यह पता नहीं कि गायत्री मारण मोहन उच्चाटन का वाममार्गी तान्त्रिक मन्त्र है या वेद मन्त्र। यदि उन्हें यह पता होता कि ताँत्रिक मन्त्रों के लिए जो प्रतिबन्ध हैं वह वेद-मन्त्रों के लिए नहीं हैं, तो वे लोगों से ऐसा कहने की भूल न करते कि गायत्री-मन्त्र का हवन जोर से बोलकर न करना चाहिए।

वास्तविक कारण कोई भी ऐसा नहीं है जिससे गायत्री-यज्ञ से कोई अधर्म होता हो, किसी को पाप लगता हो। भगवान सबके हैं, वे घट-घट वासी हैं, कर्त्ताओं की भावना को भली प्रकार जानते हैं। गीता में भगवान ने प्रतिज्ञा की है कि शुभ कार्य का कभी अशुभ परिणाम नहीं होता। गायत्री माता की, यज्ञ पिता की गोद में जो भक्त श्रद्धापूर्वक चढ़ना चाहते हैं उसे उनका स्नेह वात्सल्य ही प्राप्त होता है। पुत्र कपूत हो सकता है पर माता कुमाता नहीं होती। कोई भूल भी रहती हो तो माता अपने भक्त एवं पुत्र की श्रद्धा को समझकर उसकी क्रिया काँड सम्बन्धी छोटी-मोटी भूलों को ध्यान में भी नहीं लाती, वरन् उलटा नाम जपने वाले बाल्मीक की भाँति केवल कल्याण ही करती है। जो लोग डराते हैं वे यह सोचते हैं कि हमारी दलाली के बिना भगवान तक पहुँचना किसी के लिए सम्भव नहीं। यह भ्रम सर्वथा मिथ्या है और केवल अज्ञान का प्रतीक है।

समझदार दूरदर्शी और उदार हृदय पण्डित वर्ग, पुरोहित मण्डल अब भी भारी संख्या में गायत्री-यज्ञ का सहयोगी है। भारी त्याग और तप करके वे गायत्री-यज्ञों द्वारा धर्म की महान सेवा करने में संलग्न हैं। पर ऐसे व्यक्ति जो तिल जैसे क्षुद्र कारण से पहाड़ जैसे अनर्थ करने को तत्पर होते हैं, वे पढ़े-लिखे चाहे कितने ही हों, तिलक छाप चाहे कितनी ही लम्बी-चौड़ी लगाते हों, शास्त्रों की दुहाई चाहे कैसी ही देते हों, पर वस्तुतः उनका कार्य ऐसा है जो किसी भी दृष्टि से सराहनीय नहीं कहा जा सकता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles