दार्शनिक ज्ञान और सच्ची धार्मिक अनुभूति

August 1958

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(श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन)

परम्परा-भक्ति तथा-प्रेम ये दो बातें भारतीय दार्शनिकों के समस्त प्रयत्नों में, किसी न किसी रूप में अवश्य पाई जाती हैं। प्रत्येक दार्शनिक यह समझता है। कि उसके पूर्वजों के सिद्धान्त ही वह शिलायें हैं, जिनसे आध्यात्मिक प्रसाद निर्मित हुआ है; उनकी निन्दा अपनी ही संस्कृति की निन्दा है, उस संस्कृति की अवहेलना कभी नहीं कर सकते, भले ही उस संस्कृति के कुछ अंग ऐसे हों जो श्लाघ्य न कहे जा सकें । ये दार्शनिक बड़े परिश्रम से प्राचीन सम्प्रदाय को समझने का प्रयास करते हैं, उसमें लाक्षणिकता खोज निकालते हैं, उसे परिवर्तित एवं परिशोधित भी करते हैं क्योंकि वह लोक-भावनाओं का केन्द्र बन चुका है। परवर्ती भारतीय आचार्य पूर्वगामी दार्शनिकों के विश्व के सम्बन्ध में निश्चित किये हुये विविध सिद्धान्तों का समर्थन करते हैं और उन सबको ही सत्य का, भिन्न-भिन्न मात्रा में, दिग्दर्शक माने जाते हैं। यह नहीं माना जाता कि विभिन्न सम्प्रदाय यथार्थतः एक अज्ञात प्रदेश में मानव-मस्तिष्क के असम्बद्ध अभियान अथवा दार्शनिक विचित्रताओं का संग्रह हैं। वे सब उस एक ही मस्तिष्क से निकले माने जाते हैं जिसने इस महान मन्दिर का निर्माण किया है यद्यपि उस मन्दिर में अनेक दीवारें, अनेक देहलियाँ, अनेक मार्ग और खम्भे हैं।

न्याय तथा विज्ञान में, दर्शन तथा धर्म में, प्राकृतिक सम्बंध है। विचारों की उन्नति का प्रत्येक नूतन युग न्याय के सुधार से ही प्रारम्भ होता है। पद्धति की समस्या का विशेष मूल्य है क्योंकि इसमें मानव-विचार की प्रकृति का खास ज्ञान सन्निहित है। न्याय-दर्शन हमें यह बताता है कि कोई भी चिरस्थायी दर्शन बिना तर्क-शास्त्र के आधार के नहीं बन सकता। वैशेषिक चेतावनी देता है कि प्रत्येक सफल दर्शन के लिए भौतिक प्रकृति की रचना प्रणाली का ज्ञान नितान्त अपेक्षित है। हम हवाई किला नहीं बना सकते। यद्यपि दर्शन तथा भौतिक विज्ञान दो भिन्न-भिन्न शास्त्र हैं, जो कभी एक नहीं हो सकते, फिर भी दार्शनिक योजना को प्रकृति-विज्ञान के निष्कर्षों से समंजसता रखनी होगी। किन्तु जो बातें भौतिक जगत के सम्बन्ध में सत्य हैं, उन्हें यदि हम अधिक व्यापक मानकर सम्पूर्ण विश्व पर आरोपित कर दें तो हम वैज्ञानिक दर्शन का प्रचार करने के दोषी ठहराये जायेंगे। साँख्य-शास्त्र इस खतरे से बचने के लिये हमें सावधान करता है। प्रकृति की समस्त शक्तियाँ चेतना के उत्पादन में असमर्थ हैं। वैज्ञानिक तथा मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों की भाँति प्रकृति अथवा चेतना को हम एक दूसरे के रूप में परिवर्तित नहीं कर सकते। सत्य का दर्शन हमें विज्ञान तथा मानव जीवन में ही नहीं मिलता वरन् धार्मिक अनुभूति में भी मिलता है और यह अनुभूति ही योग-दर्शन का विषय है। पूर्व मीमाँसा और वेदांत आचरण तथा धर्म पर विशेष जोर देते हैं। बाह्य प्रकृति तथा मानव मस्तिष्क का सम्बन्ध-ज्ञान ही वेदाँत-दर्शन का महत्वपूर्ण विषय है। जो कहा गया था कि ऋषि लोग एक दूसरे का विरोध नहीं करते वह दर्शनों के सम्बन्ध में भी सच है। न्याय-वैशेषिक यथार्थवाद साँख्य-योग द्वैतवाद तथा वेदान्त के अद्वैतवाद में सत्य एवं असत्य का नहीं, कम सत्य एवं अधिक सत्य का अन्तर है। वे तो क्रमशः मन्दाधिकारी, मध्यमाधिकारी एवं उत्तमाधिकारी की आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से निर्मित हुए हैं। एक ही मूल पाषाण को काट-छाँट कर विभिन्न सम्प्रदायों का निर्माण किया गया है, सब का मूलाधार एक, भेद रहित, पूर्ण एवं अन्य अपेक्षा रहित है। विश्व-सम्बन्धी कोई भी ज्ञान तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक उसमें न्याय तथा भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान तथा नीतिशास्त्र, दर्शन तथा धर्म के विभिन्न पहलू नहीं हैं। जितने दार्शनिक सम्प्रदायों का जन्म भारत में हुआ है, उनमें से प्रत्येक ने अपना स्वतंत्र तत्त्व-मीमाँसा शास्त्र, प्रकृति तथा आत्मा का सम्बन्ध निर्देश एवं नीति तथा धर्म-शास्त्र का विधान किया है। प्राकृतिक विज्ञान की संरक्षता में जगत-सम्बन्धी हमारा ज्ञान बहुत उन्नति कर चुका है और अब हम जीवन के किसी सीमित दृष्टिकोण से ही संतुष्ट नहीं हो सकते। भविष्य में जो दार्शनिक प्रयास किये जायेंगे उनको मनोविज्ञान एवं प्राकृतिक विज्ञान के नवीनतम अनुसन्धानों से सम्बन्ध स्थापित करने की जरूरत होगी।

दर्शन का काम जीवन को व्यवस्थित करना तथा उसे मार्ग प्रदर्शित करना है। दर्शन, जीवन के नेतृत्व को ग्रहण कर, संसार के अनेक परिवर्तनों एवं परिस्थितियों में से होकर रास्ता दिखाता है। जब तक दर्शन जीवित रहता है, वह लोक-जीवन से दूर नहीं जाता। दार्शनिकों के विचार उनकी व्यक्तिगत जीवन-चर्या से ही विकसित होते हैं। हमें उसके प्रति केवल श्रद्धा ही नहीं रखनी है प्रत्युत उस भावना की प्राप्ति भी करनी है। वशिष्ठ तथा विश्वामित्र, याज्ञवलक्य तथा गार्गों, बुद्ध तथा महावीर, गौतक तथा कणाद, कपिल तथा पतंजलि, वादरायण और जैमिनि केवल इतिहासकारों के विषय मात्र नहीं हैं, वे व्यक्तित्त्व के भिन्न-भिन्न प्रकार भी हैं। उनके लिए दर्शन, विचारों तथा अनुभव पर आधारित संसार सम्बन्धी एक दृष्टिकोण है। भलीभाँति मनन किये हुए विचार ही जीवन रूपी सर्वोच्च परीक्षा में व्यवहृत एवं परीक्षित होकर धर्म बन जाते हैं। दर्शन का अभ्यास धर्माचरण की पूर्ति करना भी तो है।


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